राजस्थान प्रदेश के प्रमुख लोकनाट्य

राजस्थान में प्रर्दश्य-कला (परफौर्किंमग आर्ट) और लोकनाट्यो की एक समूह परम्परा रही है। यहाँ रंगमंच की परम्परा भी लोकगाथाओं व लोकवार्ताओं की ही भाँति प्राचीन है। बगड़ावत (देवनारायण) की महागाथा, पाबूजी, गोगाजी, तेजाजी, ढोला-मारु सैणी बीजानन्द, रामू चनणा, जेठवा ऊजली, मूमल महेन्द्र, बाघो भारमली तथा दुरपदावतार इत्यादि ऐसी अनेक कथाएँ हैं। ये लोकवार्ताएँ गाथाएँ तथा आख्यान, प्रेम व सौन्दर्य तथा शौर्य व जीवट से भरे पड़े हैं। इनका नियमित इतिहास रुप तो ईसा की सोहलवीं सदी से मिलता है, परन्तु इन गाथाओं के प्रक्ररणों में देश, काल व परिस्थिति के अनुसार स्वभाविक भिन्नता भी दिखाई देती है। लोक नाट्यों में "तुर्रा कलंगी' कम-से-कम  ५०० वर्ष पुराना है। मेवाड़ के दो पीर संतों ने जिनके नाम शाहअली, और तुक्कनगीर थे "तुर्राकलंगी' की रचना की। बीकानेर की "रम्मत' की अपनी न्यारी ही विशेषता है, जो उसे कुचामनी और चिड़ावा के ख्याल से अलग करती है। बीकानेर में लगभग १०० वर्षों से चली आ रही लोकप्रिय लोककाव्य की प्रतिस्पर्द्धा में से ही "रम्मत' का निकास ढूंढ़ा जा सकता है।

राजस्थान के आदिवासी भीलों की संस्कृति ने लोककलाओं तथा लोक नाट्यों की परम्परा के विकास व संरक्षण एवं संवर्धन में बहुत योग दिया है। उन्होंने अपने रीति-रिवाजों के माध्यम से रंगमंच के लोक नाट्यों रुपों को भी निरन्तर जीवित रखा है। अरावली पर्वत श्रृंखलाओं में बसे भील प्रतिवर्ष मानसून की समाप्ति पर करीब चालीस दिनों का एक बड़ा समारोह आयोजित करते हैं, जिसमें अनेक प्रकार के नृत्य और नाटक आदि सम्पन्न किए जाते हैं। ये समारोह "गवरी' त्यौहार के नाम से जाने जाते हैं और यह भील समुदाय की प्राचीन संस्कृति एवं रंगमंचीय परम्परा के आज तक भी नए-ए रुप ग्रहण कर समृद्ध होने का संदेश देते हैं।

राजस्थान की संस्कृति प्राचीन होने के साथ-साथ जीवन्त भी है। क्रमबद्धता एवं अपने पुनर्नवीकरण की ये दो आधारभूत शक्तियाँ इसमें अंतर्निहित हैं। ये दो शक्तियाँ इसे आज के लगातार परिवर्तनशील समाज की जरुरतों के अनुरुप सार्थक बनाती है। असाधारण व्यवहारिक बुद्धि की धरोहर लिए सर्वसाधारण, लोकजन की सार्वजनिक चेतना में उभरने वाले महान विचारों का जो रुप उभरता है, उसे यह प्राणवान लोक व आदिम संस्कृति सहज ही ग्रहण करके आत्मसात् कर लेती है। राजस्थान के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित लोक नाट्यों और उन्हें सम्पन्न करने वाली लोक मंडलियों की यही शक्ति है।

राजस्थान में सामन्तवादी काल में राज्याश्रयों के लोक नाट्यों एवं अन्य प्रदर्शन कलाओं को लगातार पोषण मिला है, वे संमृद्ध भी हुई। उस समय का दरबारी माहौल प्रदश्र्य कलाओं के तथा लोक नाट्यों के विकास के लिए अत्यन्त अनुकूल था। राज दरबारों में इनके प्रति रुचि होने से विभिन्न राज्यों के सामन्त वर्ग इन कलाओं से भली भाँति परिचित होते थे। जबकि दरबारोन्मुख होने के कारण आमजन को ये कलाएँ बहुधा देखने को नहीं मिलती थी। इसलिए आम लोगों में इनके प्रति गहरी रुचि नहीं हो सकी  व केवल लोक समाज की पेशेवर जातियों तक ही ये कलाएँ सीमित रह गई। राजा-महाराजाओं के दैनिक, मासिक, वार्षिक मनोविनोद के लिए होने वाले पेशेवर जातियों द्वारा सम्पन्न ये लोकनाट्य आमजन देख भी नहीं सकते थे। क्योंकि राजा-महाराजा तथा सामन्त इन्हें नीची नजरों से देखते थे। मध्यकाल में यह प्रवृति विशेष रुप से विकसित हो गई व गाँवों तक में भी फैल गई। रुढ़ जाति प्रथा के विकसित हो जाने से लोकनाट्य दलित जाति या निम्न वर्ग के मनोरंजन का साधन रह गई और यही कारण था कि उच्च वर्ग में इसी मध्यवर्ती सामन्ती प्रथा के कारण लोक नाट्यों के प्रति एक हीन भावना पैदा हो गई। इस तरह लोकनाट्य आमजन की सम्पत्ति बना रहा। और यही उनकी सामाजिक मामुदायिक भावनाओं की अभिव्यक्ति का माध्यम भी बनी रही।

राजस्थान को लोक नाट्यों  की विविध रुपो की दृष्टि से तीन क्षेतों में बांटा जा सकता है –

       1. उदयपुर, डूँगरपुर, कोटा, झालावाड़ और सिरोही के पर्वतीय क्षेत्र,
       2.. जोधपुर, बीकानेर, बाड़मेर तथा जैसलमेर के रेगिस्तानी क्षेत्र,
       3.राजस्थान का पूर्वांचल, जिसमें शेखावटी, जयपुर, अलवर, भरतपुर तथा धौलपुर आदि प्रांत हैं।

सामुदायिक मनोरंजन की दृष्टि से पहाड़ी इलाके बहुत अधिक समृद्ध हैं, क्योंकि इनके भीतर भीलों, मीणों, वनराजों, सहरियों और गिरासियों की रंगमय संस्कृति बिखरी बड़ी है। इनका सहज स्वाभाविक प्राकृतिक परिवेश तथा प्राकृतिक देवी-देवताओं में इनकी अटूट निष्ठा ही इनके जीवन्त पर्यन्त नृत्यों, नाट्यों तथा रंगीन परिधान में डूबी सांस्कृतिक अभिव्यक्ति का कारण है। यही उनके नृत्य, नाट्य, संगीत एवं मेले के अवसर पर उत्पन्न होने वाली सामुदायिक भावना का प्रतीक बनकर सामने आती है।

राजस्थान के मरुस्थलीय क्षेत्रों में जनसंख्या बहुत कम है और वहां की साधारण जनता को अपनी जीविका निर्वाह के लिए कठिन परिश्रम करना पड़ता है। इन क्षेत्रों में मनोरंजन का कार्य सरगड़ा, नट, निरासी, भाट व भाण्ड नामक पेशेवर जनजातियों के लोग करते हैं। ये लोग स्वांग, लोक नाट्य को जमाने की नयी जरुरतों के मुताबिक ढाल कर लोगों का मनोरंजन करने में निपुण होते हैं। ऐसे कार्य प्राय: ये भाण्डों (लोक नाट्य का प्रचलित प्राचीन रुप) के माध्यम से करते हैं। इनके वार्तालाप पूरी तौर पर व्यंग्य विनोद प्रधान होते हैं और लोगों को हँसा-हँसाकर लोट-पोट कर देते हैं।

राजस्थान का पूर्वाचन, विशेषतौर पर शेखावटी का इलाका ख्याल की परम्परागत लोक नाट्य शैली के लिए विख्यात है। ख्याल राजस्थान के लोक नाट्य की सबसे लोकप्रिय विद्या है। इसको जनता के समक्ष मंचित करने वाली पेशेवर जातियों या नाट्य मण्डलियों के लिए कमाई के प्रचुर साधन है। व इस अँचल में प्रकृति भी इन नाट्यकर्मियों के प्रति इतनी क्रूर नहीं है जितनी जैसलमेर, बाड़मेर के रेगिस्तानी इलाकों में है। कठपुतली, भाट, कामड़ घोड़ी, नर्तक व भोपे आदि लोक नाट्यों के विविध रुपों को नियमित रुप से आज जनता से समक्ष प्रस्तुत कर अपनी जीविका आसानी से चला रहे हैं। इनको सम्पन्न करने वाली पेशेवर जातियों, समूहों तथा मण्डलियों के माध्यम से ही ये लोकनाट्य रुप अपना निरन्तर विकास कर रहा है। जिसमें लोक रंगमंच आज भी अपना प्रभाव कायम किए हुए है। अलवर, भरतपुर क्षेत्र के लोक नाट्यों में राजस्थान, हरियाणा और उत्तरप्रदेश की लोक संस्कृतियों का मिला-जुला रुप भी देखने को मिलता है।

राजस्थान के सीमावर्ती इलाके, जैसे धौलपुर, सवाईमाधोपुर, डीग उत्तरप्रदेश से जुड़े होने के कारण वहाँ की संस्कृति से अछूते नहीं रह सकते और रासलीलाएँ, रामलीला, रसिया, ख्याल एवं नौटंकी आदि लोक नाट्यों पर स्पष्टत: ब्रजभूमि की संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट झलकता है। ऐसा लगता है जैसे यहाँ राजस्थान व ब्रज क्षेत्रों की लोक संस्कृतियाँ गलबहियाँ डाले हों।

राजस्थान में लोक नाट्यों के निम्नांकित रुप विद्यमान हैं। ये लोक नाट्य इन क्षेत्रों के लोगों के मनोरंजन की आवश्यकता से पैदा हुए हैं और इन्होंने यहाँ के जनजीवन के लोकाचार में अपना स्थान बना लिया है।

ख्याल :-

१८वीं शताब्दी के प्रारम्भ से ही राजस्थान में लोक नाट्यों के नियमित रुप से सम्पन्न होने के प्रमाण मिलते हैं। इन्हें ख्याल कहा जाता था। इन ख्यालों की विषय-वस्तु पौराणिक या किसी पुराख्यान से जुड़ी होती है। इनमें ऐतिहासिक तत्व भी होते हैं तथा उस जमाने के लोकप्रिय वीराख्यान आदि होते हैं। भौगोलिक अन्तर के कारण इन ख्यालों ने भी परिस्थिति के अनुसार अलग-अलग रुप ग्रहण कर लिए। इन ख्यालों के खास है, कुचामनी ख्याल, शेखावटी ख्याल, माँची ख्याल तथा हाथरसी ख्याल। ये सभी ख्याल बोलियों में ही अलग नहीं है। बल्कि इनमें शैलीगत भिन्नता भी है। जहाँ कुछ ख्यालों में संगीत की महत्ता भी है दूसरों में नाटक, नृत्य और गीतों का प्राधान्य है। गीत प्राय: लोकगीतों पर आधारित है या शास्रीय संगीत पर। लोकगीतों एवं शास्रीय संगीत का भेद ख्याल को गाने वाले विशेष नाट्यकार पर ही आधारित होता है। अगर लोकनाट्यकार शास्रीय संगीत का जानकार है तो वह ख्याल संगीत प्रधान होगा। यदि खिलाड़ी अभिनेता नृत्य का जानकार हुआ तो ख्याल नृत्य प्रधान होगा। इन ख्यालों में से कुछेक की विशेषताएँ इस प्रकार है।

कुचामनी ख्याल 

विख्यात लोक नाट्यकार द्वारा इसका प्रर्वतन किया गया इसने प्रचलित ख्याल परम्परा में अपनी शैली का समावेश किया। इस शैली की विशेषताएँ निम्नलिखित है –

        अ) इसका रुप आपेरा जैसा है।
        ब) गीत (लोकगीतों) की प्रधानता है।
        स) लय के अनुसार ही नृत्य के कदमों की ताल बंधी है।
        द) खुले मंच (ओपन एयर) में इसे सम्पन्न किया जाता है।

इसकी कुछ अन्य विशेषताएँ भी है। यथा –

        (1) सरल भाषा,
        (2) सीधी बोधगम्य लोकप्रिय धुनों का प्रयोग,
        (3) अभिनय की कुछ सूक्ष्म भावभिव्यक्तियाँ, तथा
        (4) सामाजिक व्यंग्य पर आधारित कथावस्तु का चुनाव।

लच्छीराम

खुद एक अच्छे नर्तक और लेखक थे। उन्होंने १० ख्यालों की रचना की, जिनमें चाँदी नीलगिरी, राव रिड़मल तथा मीरा मंगल मुख्य है। उनके पास अपनी खुद की नृत्य मण्डली थी, जो वह पेशेवर नृत्य के लिए भी उपयोग करते थे। ख्याल सांयकाल से शुरु होकर सुबह तक चलता है और उसे देखने के लिए दूर-दराज के इलाकों से आते हैं। यद्यपि राम के निधन को ६५ साल हो गए हैं, पर उनके ख्याल राजस्थान के सभी क्षेत्रों में आज भी दिखाए जाते हैं। स्री चरित्र का अभिनय पुरुष पात्र ही करते हैं। ख्याल में संगत के लिए ढोल वादक, शहनाई वादक व सारंगी वादक मुख्य रुप से सहयोगी होते हैं। गीत बहुत ऊँचे स्वर में गाये जाते हैं और इन्हें प्राय: नृतक ही गाते हैं। इन नृतकों की गाते समय साँस टूट जाने की पूर्ति मंच पर बैठे दूसरे सहगायक करते हैं। इन दिनों ख्याल शैली के प्रमुख प्रर्वतक उगमराज खिलाड़ी है।

शेखावटी ख्याल :-

नानूराम इस शैली के मुख्य खिलाड़ी रहे हैं। उनका स्वर्गवास ६५ साल पहले हुआ, फिर वे अपने पीछे स्वचरित ख्यालों की एक धरोहर छोड़ गए हैं। उनमें से कुछ निम्नलिखित है –

        (1) हीरराझाँ (2) हरीचन्द्र (3) भर्तृहरि (4) जयदेव कलाली (5) ढोला मरवड़ और (6) आल्हादेव।

नानूराम चिड़ावा के निवासी थे, और मुसलमान थे। किन्तु सभी जाति के लोग उनका बडडा सम्मान करते थे। अपनी कला के लिए वे आज भी सभी सम्प्रदायों में याद किए जाते है। उनके योग्यतम शिष्यों में दूलिया राणा का नाम लिया जाता है, जो उपर्युक्त सभी ख्याल अपने भतीजे के साथ खेला करते हैं।

        (1) अच्छा पद संचालन,
        (2) पूर्ण सम्प्रेषित हो सके उस शैली, भाषा और मुद्रा में गीत गायन,
        (3) वाद्यवृन्द की उचित संगत, जिनमें प्राय: हारमोनियम, सारंगी, शहनाई, बाँसुरी, नक्कारा तथा ढोलक का प्रयोग करते हैं।

दुलिया राणा की मृत्यु के बाद उनके पुत्र सोहन लाल तथा पोते बन्सी बनारसी आज तक भी साल में आठ महीनों तक इन ख्यालों का अखाड़ा लगाते हैं। दूलिया राणा, जिन्हें गुजरे अधिक अर्सा नहीं हुआ, स्री चरित्रों की भूमिका बड़ी कुशलता से निभाते थे और यह क्रम उन्होंने 80 वर्ष की अवस्था तक जारी रखा। वे जितने अच्छे गायक थे उतने ही अच्छे नृतक भी थे। शेखावटी के पूरे इलाके में दूलिया के ख्याल बहुत लोकप्रिय है। उनके ख्यालों के गीतमय संवाद उन्हें साहित्यिक तथा रंगमंच के बहुत अनुकूल बनाते हैं। इस इलाके के हजारों लाखों लोग इन ख्यालों को निशुल्क देखते हैं और अपना मनोरंजन करते हैं। दूलिया राणा के परिवार के लोग ही इन ख्यालों में होने वाले व्यय का निजी तौर पर वहन करते हैं और खिलाड़ियों को स्वयं पारिश्रमिक भी देते हैं। इन ख्यालों के खिलाड़ी प्राय: मिरासी, ढोली और सरगड़ाओं में से ही होते हैं। परन्तु जो अन्य जाति के लोग इसमें शरीक होना चाहें तो उन पर कोई पाबंदी नहीं है। यह बात विशेष उल्लेखनीय है कि इन जातियों के अलावा भी अन्य गैर-पेशेवर जाति के लोग केवल मनोविनोद के लिए बी इन ख्यालों को अपने स्तर पर भी सम्पन्न करते हैं।

जयपुरी ख्याल – यद्यपि सभी ख्यालों की प्रकृति मिलती-जुलती है, परन्तु जयपुर ख्याल की कुछ अपनी विशेषता है जो इस प्रकार है।

        (1) स्री पात्रों की भूमिका भी स्रियाँ निभाती हैं।
        (2) जयपुर ख्याल में नए प्रयोगों की महती संभावनाएँ हैं।
        (3) यह शैली रुढ़ नहीं है। मुक्त है तथा लचीली है।
        (4) इसमें अखबारों, कविता, संगीत, नृत्य तथा गान व अभिनय का सुंदर समानुपातिक समावेश है।

    गुणजन ख्याल के कलाकार जयपुरी ख्यालों में हिस्सा लिया करते थे। इस शैली के कुछ लोकप्रिय ख्याल निम्नांकित है –

        (1) जोगी-जोगन (2) कान-गूजरी (3) मियाँ-बीबू (4) पठान, और (5) रसीली तम्बोलन।

सन् 1981 में ख्याल भारमली के कथ्य पर नयी शैली में एक नाटक लिखा गया। इसके लेखक राजस्थान के प्रयोगवादी नाटककार हमीदुल्ला है। यह नाटक राजस्थान के अलावा हैदराबाद, बैंगलोर, चैन्नई, मुम्बई, दिल्ली और लखनऊ आदि स्थानों पर खोला गया। इसके बहुरंगी लोक वातावरण के कारण इसे सभी स्थलों पर पसन्द किया गया तथा कुछ प्रांतीय भाषाओं में इसका अनुवाद भी हुआ।

तुर्रा कलंगी ख्याल मेवाड़ के शाह अली और तुकनगीर नाम के दो संत पीरों ने 400 वर्ष पहले इसकी रचना की और इसे यह नाम दिया। तुर्रा को महादेव "शिव' और "कलंगी' को "पार्वती' का प्रतीक माना जाता है। तुकनगीर "तुर्रा' के पक्षकार थे तथा शाह अली "कलंगी' के। इन दोनों खिलाड़ियों ने "तुर्राकलंगी' के माध्यम से "शिवशक्ति' के विचारों को लोक जीवन तक पहुँचाया। इनके प्रचार का मुख्य माध्यम काव्यमय सरंचनाएँ थी, जिन्हें लोक समाज में "दंगल' के नाम से जाना जाता है। ये "दंगल' जब भी आयोजित होते हैं, तो दोनों पक्षों के खिलाड़ियों को बुलाया जाता है और फिर इनमें पहर-दर-पहर काव्यात्मक संवाद होते हैं। इन काव्यात्मक संवादों के नित नए-नए रुप ग्रहण करने से शिव शक्ति दर्शन का लोक जगत में उच्च स्तरीय काव्यात्मक संवाद प्रचलन में आया है।

"तुर्रा कलंगी' का ख्याल बहुत लोकप्रिय हुआ है और यह सम्पूर्ण राजस्थान में खेला जाता है। इसका विस्तार मध्यप्रदेश तक भी है। "तुर्रा कलंगी' सम्बन्धी सबसे पहले केले गए ख्याल का नाम "तुर्रा कलंगी का ख्याल'  था।

 तुर्रा कलंगी के शेष चरित्र प्राय: वही होते हैं जो अन्य ख्यालों के होते हैं। फिर भी निम्नलिखित विशिष्ट बातें इसकी उल्लेखनीय है –

        (अ) इसकी प्रकृति गैर व्यावसायिक कि की है।
        (ब) इसमें रंगमंच की भरपूर सजावट की जाती है।
        (स) नृत्य की कदम ताल सरल होती है।
        (द) लयात्सम गायन जो, कविता के बोल जैसा ही होता है।
        (ई) यही एक ऐसा लोकनाट्य है जिसमें दर्शक अधिक भाग लेते थे।

क्षेत्र में आकर सम्पन्न करते हैं। यह समारोह मानसून की समाप्ति के अवसर पर किया जाता है। इस समारोह का रुप रंगमंचीय ही है, यह सांस्कृतिक, कलात्मक एवं रंगमंचीय अभिनय तीनों ही दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध लोकनाट्य शैली है। भीलों जैसे आदिम कबीलों द्वारा सभी दृष्टि से उत्कृष्ट यह आयोजन विस्मय में डाल देता है।

राजस्थान की आदिम जातियों में से एक भील जाति ने इस क्षेत्र में अत्यन्त प्राचीनकाल से निवास किया हुआ है। इनकी शौर्यपूर्ण गाथाएँ, इनकी रंगीनी संस्कृति की धरोहर है। हिन्दू पुराण गाथाओं के सम्मिश्रण से बना भील समुदाय का यह गवरी लोकनाट्य इस आदिम समुदाय की ऐतिहासिक परम्परा को उजागर करता है और सामुदायिक सीमाओं के बाहर जाकर चिरकाल की परम्पराओं के अंगीकरण का यह अपने आप में एक सुन्दर दृष्टान्त बन गया है।

अगस्त के महीने में रक्षाबन्धन के दूसरे दिन भील व भोपा जाति के लोग किसी मंदिर के आगे इकट्ठे होते हैं, और देवी "गवरी' का आह्मवान करते हैं वे उसे अपना अतिथ्य ग्रहण करने की मनौती करते है। धान्य बीज प्रतिमा पर फेंककर चढ़ाए जाते हैं। यदि ये प्रतिमा के दाहिनी और गिर जाते हैं तो इसे माता "गवरी' की स्वीकृति माना जाता है, परन्तु बाँयी ओर गिरने पर इसे देवी की "मनाही' माना जाता है। अब यदि देवी का उत्तर हाँ में है तो व्यापक स्तर पर समारोह की तैयारियाँ शुरु हो जाती है। लकड़ी के मुखौटों, आदिम मेकअप का साजो-सामान, जवाहरात, वेशभूषा तथा रंगमंच की सामग्री सभी समारोह के लिए एकत्र की जाती है।

मन्दिर के सामने समारोह के निष्पादन के लिए बांस गाढ़ दिया जाता है तथा प्रतिदिन कई प्रकार के पारम्परिक लोक नाट्य मय दर्शकगणों के सम्मुख श्रृंखलाबद्ध रुप में प्रस्तुत किए जाते हैं। केन्द्र में गाड़ा गया लट्ठा इस नाट्य का आधार बिन्दु होता है। यह सांसारिक लोगों के देवतागणों के बीच के जंक्शन के रुप में कार्य करता है। जब देवी की आत्मा इस लट्ठे से नीचे आती है तो खिलाड़ियों के साथ दर्शक भी अभिभूत हो जाते हैं।

"तुर्रा कलंगी' के मुख्य केन्द्र है, घोसूण्डा, चित्तौड़, निम्बाहेड़ा तथा नीमच (मध्य प्रदेश) इन स्थानों में "तुर्रा कलंगी' के सर्वश्रेष्ठ कलाकार दिए हैं, जैसे चेतराम, घोसूण्डा का हमीद बेग एवं संवादों, जब पायल ताराचन्द तथा ठाकुर ओंकार सिंह आदि। इन तुर्राकलंगी खिलाड़ियों में "सोनी जयदयाल' बहुत ही विख्यात एवं प्रतिभाशाली था। उसके ख्याल आज भी लोकप्रिय हैं। उसकी मृत्यु के बाद भी इन क्षेत्रों के लोग उसके बोलों एवं संवादों को बहुत इज्जत देते हैं।

"तुर्रा कलंगी' के ख्याल में २० फील ऊँचाई के दो अलग मंच आमने-सामने बनाए जाते हैं। इस ख्याल के दो मुख्य खिलाड़ी अपने-अपने मंचों पर आते है, ये मंच सुंदर ढ़ंग से सजे होते हैं। इन्हें फूल-पत्तियों तथा चित्रकारी से, छज्जों आदि से अलंकृत किया जाता है। इसके संवादों को "बोल' की संज्ञा दी जाती है और ये काव्यत्मक होते हैं। इस ख्याल के दो बोल बानगी के तौर पर नीचे दिए जाते हैं –

सवाल तुर्रा : महादेव विकराल रुप ले,
जोत चन्द्रमा न पड़ी
पार्वती और गंगा लड़ती
इन दोनों में कौन बड़ी?

जवाब कलंगी : मि सायरी करते हो,
बातें करते हो बड़ी-बड़ी
पार्वती और गंगा दोनों
बतलाओं किस रोज लड़ी?

गवरी :-

मेवाड़ में भीलो का यह सामुदायिक गीत नाट्य अत्यन्त चित्ताकर्षक एवं पारम्परिक रीति-रिवाज से युक्त है। इसमें प्रयोग किए जाने की बहुत सम्भावनाएँ हैं। इसका सांगीतिक लय गीतात्मक रुप प्रयोग के अनुकूल है। गवरी का संचालन एवं नियंत्रण संगीत द्वारा होता है।

जैसा कि पहले बताया गया है, अरावली क्षेत्रों में रहने वाले भील, प्रत्येक वर्ष ४० दिनों का गवरी समारोह उदयपुर शहर के आसपास के क्षेत्रों में आकर सम्पन्न करते हैं। यह समारोह मानसून की समाप्ति के अवसर पर किया जाता है। इस समारोह का रुप रंगमंचीय ही है, यह सांस्कृतिक, कलात्मक एवं रंगमंचीय अभिनय तीनों ही दृष्टि से अत्यन्त समृद्ध लोक नाट्यशैली है। भीलों जैसे आदिम कबीलों द्वारा सभी दृष्टि से उत्कृष्ट यह आयोजन विस्मय में डाल देता है।

राजस्थान की आदिम जातियों में से एक भील जाति ने इस क्षेत्र में अत्यन्त प्राचीनकाल से निवास किया हुआ है। इनकी शौर्यपूर्ण गाथाएँ, इनकी रंगीन संस्कृति की धरोहर है। हिन्दू पुराण गाथाओं के सम्मिश्रण से बना भील समुदाय का यह गवरी लोकनाट्य इस आदिम समुदाय की ऐतिहासिक परम्परा को उजागर करता है व सामुदायिक सीमाओं के बाहर जाकर चिरकाल की परम्पराओं के अंगीकरण का यह अपने आप में एक सुन्दर दृष्टान्त बन गया है।

अगस्त के महीने में रक्षाबन्धन के दूसरे दिन भील व भोपा जाति के लोग किसी मंदिर के आगे इकट्ठे होते हैं और देवी "गवरी" का आह्मवान करते हैं, वे उसे अपना आतिथ्य ग्रहण करने की मनौती करते हैं। धान्य बीज प्रतिमा पर फेंककर चढ़ाए जाते हैं। यदे ये प्रतिमा के दाहिनी ओर गिर जाते हैं तो इसे माता "गवरी' की स्वीकृति माना जाता है, परन्तु बांयी और गिरने पर इसे देवी की "मनाही' मानी जाती है। अब यदि देवी का उत्तर हाँ में है तो व्यापक स्तर पर साजो-सामान, जवाहरात, वेशभूषा तथा रंगमंच की सामग्री सभी समारोह के लिए एकत्र की जाती है।

गवरी की कथा में कथानक या सहकथानक क्रमबद्ध नहीं होते, परन्तु फिर भी मूल गाथा से इनका सम्बन्ध होता है और उसके साथ तारतम्य दिकाना ही इनका लक्ष्य है। ये बिखरे हुए कथानक युद्ध, पराजय, मृत्यु तथा अन्तत: जीवात्मा के पुनर्जीवित हो उठने से सम्बद्ध होते हैं। यह पुनर्जीवन देवी की कृपा से मिलता हुआ दिखलाया जाता है।

"नेशनल स्कूल आॅफ ड्रामा' से दिक्षित भानु भारती ने "पशु गायत्री' नाम का एक नाट्य अनेक बार मंचित किया है। यह प्रयोग अपनी कलात्मक अभिव्यंजना के लिए विज्ञप्त है। इस नाट्य विद्या का माध्यम इतना जीवंत है कि इसे शिक्षा और विकास के कार्यक्रमों से भी जोड़ जो सकता है। गवरी के नवीन रुपान्तरण की दृष्टि से भानु भारती के "पशु गायत्री'  का अपना महत्तव है।

गवरी की मुख्य विशेषताएँ निम्ननिखित हैं –

    (1) जुलाई, अगस्त के महीने में "बूढिया देन'  की पूजा के अवसर पर "गवरी' सम्पन्न किया जाता है।
    (2) भील अपना घर छोड़कर सामुदायिक समारोह के विचारों से बंधकर "गवरी' में भाग लेने आते हैं और ४० दिनों तक लगातर वहीं रहते हैं।
    (3) गवरी सुबह से शाम तक प्रतिदिन चलता रहता है।
    (4) इनमें भाग लेने वाले नर्तक, अभिनेता और गायक सभी उत्साह व उल्लास से भरे होते हैं।

गवरी के कुछ मुक्य प्रसंग है – देवी अम्बड़, बादशाह की सवारी, मिन्यावड़, बनजारा, खाड़लिया भूत थात शेर सूअर की लड़ाई। ये सभी प्रसंग प्रतीकार्थक हैं।

रम्मत :- 

बीकानेर की रम्मतों का अपना अलग ही रंग है। ये कुचामन, चिड़ावा और शेखावटी के "ख्यालों' से भिन्न होती है। १०० वर्ष पूर्व बीकानेर क्षेत्र में होली एवं सावन आदि के अवसर पर होने वाली लोक काव्य-प्रतियोगिताओं से ही उनका उद्भव हुआ है। कुछ लोक कवियों ने राजस्थान के सुविख्यात लोक – नायकों एवं महापुरुषों पर काव्य रचनाएँ की थीं, ये रचनाएँ ऐतिहासिक एवं धार्मिक लोक चरित्रों पर रची गयीं। इन्हीं रचनाओं को रंगमंच के ऊपर मंचित कर दिया गया। इन रम्मतों के रचयिताओं के नाम इस प्रकार हैं –

        (1) मनीराम व्यास
        (2) तुलसी राम
        (3) फागू महाराज
        (4) सूआ महाराज
        (5) तेज कवि (जैसलमेरी)

यहाँ यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि तेज कवि जैसलमेरी रंगमंच के क्रांतिकारी कार्यकर्ता थे। सन् १९३८ में जन्मे इस कवि ने रम्मत का अखाड़ा श्रीकृष्ण कम्पनी के नाम से चालू किया। सन् १९४३ में उन्होंने "स्वतंत्र बावनी' की रचना की और उसे महात्मा गाँधी को भेंट कर दी। ब्रिटिश सरकार ने इस पर निगरानी रखी और उनकी गिरफ्तारी का वारण्ट जारी कर दिया। जब तेज कवि को वारण्ट की सूचना मिली, वह पुलिस कमिश्नर के घर गये और अपनी ओजस्वी वाणी मे कहा –

        कमिश्नर खोल दरवाजा, हमें भी जेल जाना है,
        हिन्द तेरा है न तेरे बाप का
        हमारी मातृभूमि पर लगाया बन्दीखाना है।

इससे सिद्ध होता है कि रम्मत और ख्याल के खिलाड़ी सिर्फ मनोरंजक नहीं थे, बल्कि वे समाज में हो रही क्रांति के प्रति पूरी तरह से जागरुक भी थे। रम्मत की खुच उल्लेखनीय बातें निम्नांकित हैं –

(1) रम्मत शुरु होने से पहले रम्मत के मुख्य कलाकार मंच पर ही आकर बैठ जाते हैं, ताकि हरेक दर्शक उन्हें अपनी वेशभूषा और मेक-अप में देख सके। संवाद विशेष गायकों द्वारा गाए जाते हैं, जो मंच पर ही बैठे होते हैं। और मुख्य चरित्र उन गायकों द्वारा गाये जाने वाले संवादों को नृत्य और अभिनय करते हुए स्वयं भी बोलते जाते हैं।
(2) रम्मत में मुख्य वाद्य नगाड़ा तथा ढोलक होते हैं।
(3) कोई रंगमंचीय साज-सज्जा नहीं होती। मंच का धरातल थोड़ा-सा ऊँचा बनाया जाता है। जो मुख्य गीत गाये जाते हैं उनका सम्बन्ध निम्नांकित विषयों से है –

        चौमासा – वर्षा ॠतु का वर्णन,
        लावणी – देवी-देवताओं की पूजा से सम्बंधित गीत,
        गणपति वंदना – गणपति की वन्दना
        रामदेवजी का भजन – रम्मत शुरु होने से पहले रामदेवजी का भजन गाया जाता है।

रम्मत की सबसे उल्लेखनीय विशेषता उसकी साहित्यिकता है। वाद्यवादक व संगत करने वाले कलाकाल रम्मत में स्वयं मनोरंजन का विशेष साधन बन जाते हैं और लोक समाज में इस वाजिन्दों साजियों की बहुत इज्जत होती है।

रम्मत के शेष तत्व शेखावटी ख्याल से मेल खाते हैं। फर्क इतना ही रहता है कि जहाँ शेखावटी ख्याल पेशेवर ख्याल की गिनती में आ गए हैं, रम्मत आज भी सामुदायिक और लोकनाट्य का ही रुप लिए है। इसमें किसी भी जाति का व्यक्ति भाग ले सकता है।

रम्मत के कुछ विख्यात खिलाड़ियों के नाम इस प्रकार है – स्वर्गीय श्री रामगोपाल जी मेहता, साईं सेवग, गंगादास सेवग, सूरज काना सेनग, जीतमल और गीड़ोजी। ये सभी बीकाने के हैं। गीडोजी अपने समय के विख्यात नगाड़ावादक रहे हैं।

बीकानेर के अलावा रम्मतें पोकरण, फलौदी, जैसलमेर और आस-पड़ोस के क्षेत्र में खेली जाती हैं। इन रम्मतों में जिन्होंने बहुत लोक ख्याति अर्जित की है वे हैं – रम्मत पूरन भक्त की, मोरहवज की, डूंगजी जवाहर जी की, राजा हरिशचन्द्र और गोपीचन्द भरथरी की।

तमाशा – जयपुर में तमाशे की गौरवशाली परम्परा है। यह लोकनाट्य १९वीं शती के पूर्व मध्यकाल में महाराज प्रतापसिंह के काल में शुरु हुआ। इसके खिलाड़ी इस तमाशे को लेकर देश के सुदूर दक्षिणी भाग से यात्रा करते हुए पहुँच गये। यह परिवार भ परिवार कहलाता है। इस परिवार के लोगों ने ही तमाशा थियेटर के रुप में जयपुर ख्याल और ध्रुवपद गायकी का समावेश किया।

पं. बंशीधर भ इसके मुखिया थे। इन्हें जयपुर राजघराने का भी संरक्षण मिला। यह परिवार आज भी विद्यमान हैं और यह परिवार परम्परागत विधि से आज भी तमासा का लोक मंचन करता है। इस परिवार में उस्ताद परम्परा फूल जी भ द्वारा स्थापित हुई। फूलजी भ अपनी ध्रुवपद गायकी के लिए प्रसिद्ध थे। इस समय गोपीकृष्ण भ जो "गोपीजी' के नाम से जाने जाते हैं। इस परम्परा के उस्ताद है। वे आज भी "तमाशा' का हर साल आयोजन करते हैं। इस परिवार में वासुदेव भ एक अच्छे रंगमंच अभिनेता तथा गायक हैं और वे इस परम्परा को जीवित रखने में सक्रिय हैं। वासुदेव भ "गोपीजी' के चचेरे भाई हैं। गोपीचन्द तथा "हीर रांझा' इनके द्वारा खेले जाने वाले "तमाशे' हैं। ये तमासे आज भी लोकप्रिय हैं। तमासे की मुख्य-मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं –

        (1) भट्ट परिवार द्वारा प्रस्तुत "तमाशा' महाराष्ट्र के तमाशे से भिन्न हैं।
        (2) संवाद काव्यमय है तथा इन्हें राग-रागनियों में निबद्ध करके प्रस्तुत किया जाता है।
        (3
) "तमाशा' खुले मंच पर होता है, इसे "अखाड़ा' कहा जाता है।
        (4) इस भ परिवार द्वारा 250 वर्षों पूर्व की इस परम्परागत लोकनाट्य शैली का प्रर्दशन आज तक लगातार हर साल किया जाता है।
        (5) सारी संगीत रचनाएँ राग-रागनियों में निबद्ध है।
        (6) संगीत, नृत्य और गायन, इन तीनों की "तमाशे' में प्रधानता है।
        (7) सिनेमा व टी.वी. के इस युग में भी दर्शक के बीच "तमाशा' आज भी अत्यधिक लोकप्रिय हैं।

स्वांग :-

लोकनाट्य रुपों में एक परम्परा "स्वांग' की भी है। शाब्दिक दृष्टि से इसका अर्थ है किसी विशेष, ऐतिहासिक, पौराणिक, लोक प्रसिद्ध या समाज में विख्यात चरित्र या देवी देवता की नकल में मेकअप करना व वेशभूषा पहनना। कुछ जनजाति के लोग तो स्वांग करने का पेशा अपनाए हुए हैं। यह एक ऐसी विद्या है जिसे एक ही चरित्र सम्पन्न करता है।

परन्तु आधुनिक प्रसार-प्रचार के माध्यमों के विकसित हो जाने से यह तमासे का लोकनाट्य रुप शहर से दूर गाँव की धरोहर रह गया है और इसे केवल शादी-ब्याह तथा त्यौहार के अवसर पर ही दिखलाया जाता है।

फड़ :-

फड़ भोपों द्वारा खेली जाती है। ये भोपें जल्दी-जल्दी एक स्थान से दूसरे स्थान तक चले जाते हैं। चित्रित फड़ को दश्र्कों के सामने खड़ा तान दिया जाता है। भोपा गायक की पत्नी या सहयोगिनी, लोलटेन लेकर फड़ के पास नाचती-गाती हुई पहुँचती है और वह जिस अंश का गायन करती है, डंड़ी से उसे बजाती है। भोपा अपने प्रिय वाद्य "रावण हत्या' को बजाता हुआ स्वंय भी नाचता-गाता रहता है। यह नृत्य गान समूह के रुप में होता है। दर्शकगण फड़ के दृश्यों से एवं सहवर्ती अभिनय से बहुत प्रभावित होते हैं और अपने परिवार के लिए इसे देखना, वर्ष की शुभ घटना मानते हैं।

फड़ से सम्बन्धित दो लोकप्रिय चित्र गीत कथाएँ पाबूजी व देवनारायण जी की फड़े ही हैं। पाबूजी राठौड़ जाति के महान लोक नायक हुए है। इनका समय आज से ७०० वर्ष पूर्व था। उनकी गाथा के आज भी राजस्थान में हजारों-लाखों प्रशंसक हैं। उनके अनुयायी भी हजारों की संख्या में हैं। पाबूजी को कुटुम्ब के देवता के रुप में पूजा जाता है और उनकी वीरता के गीत चारण और भाटों द्वारा गाए जाते हैं। मारवाड़ के भोपों ने पाबूजी की वीरता के सम्बन्ध में र्तृकड़ों लोकगीत रच डाले हैं और पाबूजी की शौर्यगाथा आज भी लोक समाज में गायी जाती है। एक खास कविता, जो पाबूज के भोपों के नाम से जाना जाता है। उन्होंने पाबूजी की फड़ के गीत को अभिनय के साथ गाने की एक विशेष शैली विकसित कर ली है।

पाबूजी की फड़ लगभग ३० फीट लम्बी तथा ५ फीट चौड़ी होती है। इसमें पाबूजी के जीवन चरित्र शैली के चित्रों में अनुपात रंगों एवं रंग एवं फलक संयोजन के जरिए प्रस्तुत करता है। इस फड़ को एक बांस में लपेट कर रखा जाता है, और यह भोपा जाति के लोगों के साथ धरोहर के रुप में तथा जिविका साधन के रुप में भी चलता रहता है। पाबूजी की दैवी शक्ति में विश्वास करने वाले लोग प्राय: इन्हें निमंत्रम देकर बुलाते हें। क्योंकि वे जानते हैं कि इससे उनके बाल-बच्चों की बीमारियाँ तथा परिवार की भूत-प्रेत जैसी बाधाएँ दूर हो जाएँगी।

पाबूजी के अलावा दूसरी लोकप्रिय फड़ "देवनारायण जी की फड़' है। देवनारायण जी भी सोलंकी राजपूतों के पाबूजी की तरह वीर नायक थे। देवनारायण जी की फड़ के गीत, देवनारायण जी के भोपों द्वारा गाएं जातें हैं। ये भोपे गूजर जाति के हैं। "जन्तर' नामक प्रसिद्ध लोकवाद्य पर "भोपा' इस फड़ की धुन बजाते हैं। राजस्थान में भोपों के कई प्रकार हैं। वे प्राय: "रावण हत्या' अपंग तथा जन्तर नामक वाद्यों का प्रयोग करते हैं। ये भूमिहीन होतें है और अपनी जीविका के लिए उन्हें फड़ो के दरसाव पर ही निर्भर रहना पड़ता है। प्रतिवर्ष विजय दशमी (दशहरा) के मौके पर रोणीचा के पास कोड़मदे गाँव में एक बड़ा मेला लगता है। यह पाबूजी का मूल स्थान है। यहाँ आकर भक्तगण हजारों की संख्या में उन्हें श्रृंदाजलि अर्पित करते हैं। इस मौके पर हजारों फड़ गायक भी एकत्र हो जाते हैं और सब मिलकर सामूहिक रुप से पाबूजी की गीत गाते हैं।

लीला :-

 लीला का कथा पुराणों या पुराख्यानों से ली जाता है। इन्हें "रासधारी' और "गरासियों' की श्रेणियों में बांटा जा सकता है। इन लीलाओं में धर्म और लोकाचार की प्रधानता होती है। आज के जमाने में इस लोकनाट्य को करने वाले दल मण्डल बहुत सीमित संख्या में रह गये हैं, जो बचे-खुचे दल या मण्डलियां हैं वे  रामलीला या सिर्फ 'रासलीलाएँ' ही करते हैं।

नौटंकी :-

भरतपुर तथा धौलपुर में नत्थाराम की मण्डली द्वारा नौटंगी का खेल दिखाया जाता है। इसके अलावा अन्य अखाड़े भी हैं। ये अखाड़े अपनी-अपनी कम्पनियों के निजी नाम से जाने जाते हैं। नौटंकी के नाटकों के रुप में बहुत ही लोकप्रिय है और प्राय: ब्याह, शादी, सामाजीक समारोह, मेलों तथा लोकोत्सवों के मौके पर प्राय: नौटंकी का खेल करवाया जाता है।

भवाई :-

गुजरात की सीमा से सटे हुए राजस्थान के क्षेत्रों में "भवाई' नामक नृत्य नाटिका बहुत ही लोकप्रिय है। अपने स्वभाव से ही यह नृत्य नाटक व्यवसायिक कि का है और अनेक महत्वपूर्ण तकनीकी पक्ष है। "भवाई' करने वाले अपने "यजमानों' या सरक्षकों के पास प्रतिवर्ष जाते हैं और उनका वहाँ हार्दिक स्वागत होता है।

इस शैली पर आधारित तथा एक नाटक "जस्मा ओडन' है, जिसे भारत के बाहर लंदन व जर्मनी में खेला गया। यह नाटक शान्ता गाँधी द्वारा लिखा गया। इसके उल्लेखनीय पक्ष निम्नांकित है –

(1) सगाजी एवं सगीजी के रुप में भोपा-भोपी कुछ अन्य विनोदी, विदूषक चरित्रों के साथ इस नाट्य को सम्पन्न करते हैं। इसका संचालन सूत्रधार करता है।
(2) इसकी कथा आम आदमी के संघर्ष से सम्बन्धित है यह उच्च व निम्न वर्ग के वर्ग संघर्ष को बताता है।

उपर्युक्त लोकनाट्य रुपों के अलावा राजस्थान में कल्पिय रंगमचीय लोक नाट्य तत्वों का भोपाओं तथा तत्सम्बधी जनजातियों के कुछ व्यक्ति विशेषों में प्रर्दशन, कुटुम्ब परम्परा के रुप में भी देखने को मिलता है। इनमें कुछेक रासधारी है, कुछ बहरुपीये तथा भाण्ड है।

भोपा :-

भोपे पेशेवर पुजारी होते हैं। उनका मुख्य पेशा किसी मन्दिर में देवता के आगे नाचना-गाना होता है या फिर ये भोपें अपने संरक्षकों (धाताओं) के दरवाजे पर जाकर भी अपना पेशेवर गाना व नृत्य दिखाते हैं। गाना, बजाना, नाचना आदि के साथ विविध प्रकार के नटबाजी के करतब भी ये भोपो लोग दिखाया करते हैं। ये अतिरिक्त कार्य उन्हें अपनी रोजी-रोटी को कायम रखने के लिए ही करना पड़ता है। ये अपनी-अपनी कला में माहिर होते हैं और अपने देवता के प्रति उनमें अगाध श्रृद्धा होती है तथा वे अपने देवी-देवता की दैविक व चमत्कारी शक्ति में ही विश्वास करते हैं।

पाबूजी व रामदेव जी की भोपों का विवरण तो पहले दिया जा चुका है, दूसरे प्रकार के भोपे निम्नांकित हैं –

(1) गोगा जी का भोपा – छठी शताब्दी में दद्रेना के ठाकुर गोरखनाथ के चेले हो गए। यह ठाकुर बहादुर वीर नायक थे तथा उन्होंने आक्रामणकारियों के विरुद्ध र्तृकड़ो गायों व गरीबों की रक्षा करके हत्या से बचाया था। तभी से इनकी पूजा महान संत के रुप में होने लगी। तबी से गोगाजी के भोपे गौ, ब्राह्मण रक्षा के सम्बंध में किए गए गोगोजी के शौर्यपूर्म कार्यों की गाथा गाते आ रहे हैं। ये भोपे "डेरु' नामक वाद्ययंत्र बजाते हैं। और उँगली या छोटी से लकड़ी पर पहले अपने वाद्य के रुप में बजाई जाने वाली थाली (जो प्राय: कांसे की होती है) को तेजी से घुमेते है। फिर ऊपर हवा में उछाल कर वापस लकड़ी पर या उँगली पर थाम लेते हैं। देखने योग्य बात यह है कि सब नृत्य गान की चलती हुई लय ताल में ही होता है। ये भोपे नृत्य गान प्राय: समूह में ही करते हैं। भोपाओं का मुखिया, जिसके देवता घट में आया हुआ माना जाता है। नाचते और गाते वक्त ही अनेक सांपों को अपने गले में लपेटता उतारता रहता है। गोगामेड़ी में भाद्र या भादरा (बीकानेर) नामक स्थान पर हर वर्ष गोगाजी का मेला गोपाष्टमी के अवसर पर लगता है। इसमें हजारों की तादाद में श्रृद्धालु भक्ति की भीड़ जमा होती है। जो गोगाजी के प्रति अपनी श्रृद्धा अपंण करने आते हैं। उनके नृत्य आनन्दातिरेक के नृत्य हुआ करते हैं। ये "माठ' नामक ढोल की ध्वनि के साथ नाचते गाते हैं। इस विशाल "माठ' नामक ढोल की ध्वनि के साथ नाचते गाते, अपनी रंगीन वेशभूषा में सजे ये भोपे, एक अभूतपूर्व नजारा प्रस्तुत करते हैं। भोपों की मुद्रांए बी नटबाजी के करतबों पर टिकी होती है। इनके गानों में भक्ति का स्पर्श होता है और ये गीत असीम श्रृद्धा व भक्ति भाव से गाए जाते हैं।

(2) माता जी का भोपा – ये भोपे माता जी के भक्त पुजारी होते हैं। ये करणीमाता तथा सीकर की जीणमाता की चमत्कारपूर्ण दैविक शक्ति में आस्था रखते हैं। इन भोपों की विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि ये दूस्हे की वेशभूषा पहनते हैं। अपने नट करतबों को करते हुए ये यदाकदा अपनी जीभ में सुई तक घुसेड़ देते हैं। ये जीणमाता एवं करणीमाता के मेलों के अवसर पर सामूहिक रुप से एकत्र होते हैं।

(3) भैर्रूंजी का भोपा – ये भैंरु जी के पुजारी होते हैं। इनकी वेशभूषा साधारण होती है। ये अपनी वेशभूषा में साधारम तेल उड़ेल देते हैं, ताकि वे चिकने दिख सके। वे अपना चेहरा राख से पोत लेते हैं और अपने माथे तथा चेहरे पर बहुत सारा सिन्दूर भी लगा लेते हैं। और अपने हाथ में त्रिशूल धारण कर लेते हैं। और "मश्क का बाजा' नामक वाद्य मुँह से बजाते हैं। ये समूह में नृत्य नहीं करते हैं।

रासधारी :-

रासधारी का सामान्य अर्थ है वह व्यक्ति जो रासलीला करता है। जो भगवान कृष्ण के जीवर चरित्र पर आधारित होती है। परन्तु कलाकार में इस लोकनाट्य में अनेक और कथाएँ भी जुड़ गयी। सबसे वहला रासधारी नाटक लगभग ८० वर्ष पहले मेवाड़ के मोतीलाल जाट द्वारा लिखा गया। रासधारियों की लोक नृत्य नाट्य शैली ख्याल एवं अन्य लोक नाट्यों से सर्वथा भिन्न है। यह विशिष्ट शैली उदयपुर तथा आस-पड़ोस के क्षेत्रों में भी आज प्रचलित है और सम्पूर्ण इलाके में इसका प्रसार है। इसके मुख्य रसिया, बैरागी साधु लोग है। मूल रुप में "रसधारी' लोक नृत्य नाटिका ही थी, जिसमें रसियों के अलावा सभी उपस्थित जन प्रसन्नतापूर्वक भाग लेते थे। परन्तु धीरे-धीरे यह खास पेशे के लोगों की धरोहर हो गया। जिन्होंने इसे अपनी जीविका निर्वाह का आधार बना लिया और इन्हीं लोगों ने व्यवसायिक आय का साधन बनाने के लिए अपनी मण्डलियाँ तथा समूह बना लिए।

अन्य लोक नृत्य नाटिकाओं से रसधारी विद्या अनेक दृष्टियों से भिन्न है। सबसे मुख्य बात तो यह है कि इसमें किसी अखाड़े या मंच के निर्माण की जरुरत नहीं होती। रास में मुख्य कथाएँ रामसीला, कृष्णलीला, हरिशचन्द्र नागजी व मोरध्वज की ही हैं। गाँव के चौराहों पर रासधारी नाटक देखने को मिलते हैं। लोग सैकड़ो की भीड़ में देखने के लिए इकट्ठे होते हैं। गीत प्राय: अनलिखे होतो हैं और रसियों को मौखिक याद होते हैं। नृत्य व गीत गाते हुए सारी कथा व्याख्यान कर दी जाती है। गाँव के लोग इस नृत्य नाटिका को मुफ्त में देखते हैं। ग्रामीण समाज ही इनके रहने, खाने-पीने आदि की व्यवस्था करता है व पारिश्रमिक भी देता है। किन्तु अब यह लोक नृत्य नाटिका की विद्या लुप्त होती जा रही है।

बहरुपिये :-

सारे राजस्थान में बहरुपिये मिलते हैं। ये अपना रुप और अभिनय आदि चरित्र के अनुसार बदलने में माहिर होते हैं। अपने "मेकअप' और वेषभूषा की सहायता से वे प्राय: वही लगने लग जाते हैं, जिसके रुप की नकल वह करते हैं। किसी गाँव में आ जाने पर वे बहुत दिनों तक बाल-वृद्ध, नर-नारियों का मनोरंजन करते रहते हैं, ये प्राय: शादी-ब्याह या मेलों के अवसर पर गाँव में पहुँचते हैं। ये अपनी नकलची कला में दक्ष होते हैं और ये गाँव के धनी-मानी लोगो की नकल करते रहते हैं। गाँव के बोहरा, शेठजी, बनिया आदि इनके मुख्य जीवन पात्र हैं। बहरुपिया की कला राजस्थान की अपनी विशेष कला है। किन्तु आज के विकसित तकनीकी समाज में इनका प्रभाव लगातार घटता ही जा रहा है। इस विलुप्त प्राय: कला का सबसे नामी कलाकार केलवा का पशुराम है। जानकीलाल बहरुपिया भी राजस्थान में प्रसिद्ध है और उसने भारत उत्सवों में राजस्थान का प्रतिनिधित्व भी किया है।

भाण्ड :-

राजाओं के काल में भाण्ड मण्डलियाँ राजस्थान में बहुत अधिक लोकप्रिय थी। ये राजा महाराजा तथा सामन्तों द्वारा संरक्षित थे। जयपुर, कोटा, बूंदी, झालावाड़ तथा उदयपुर में अब तक भी भाण्ड मण्डलियाँ मौजूद हैं। अब तक वे सिर्फ शादी-ब्याह तथा धनिक जनों की गोठों में ही दिखाई देती है। मनोरंजन के आधुनिक साधनों के विकसित हो जाने के बावजूद इन मण्डलियों की मनोरंजन की पारम्परिक क्षमता का कोई सानी नहीं दिखता, परन्तु अब बहुतों ने संगीत के वाद्यवृन्दों में नौकरी करली है। ये भाण्ड लोग राजाओं के जमाने में राजाओं के बहुत निकट के व्यक्ति हुआ करते थे।

पारसी थियेटर :-

इस शताब्दी के प्राथमिक चरण में हमारे देश में एक नये ही कि की रंगमंचीय कला का विकास हुआ, जिसका नाम "पारसी थियेटर' था। यद्यपि यह विवादास्पद है। परन्तु इस शैली के अधिकारी विद्वान यही मानते हैं कि इस शैली का विकास इंग्लैड में विकसित "शेक्सपीरियन थियेटर' से ही प्रभावित होकर हुआ। इस कला के विशिष्ट तत्व निम्नांकित हैं –

(1) अभिनेताओं द्वारा मुखमुद्राओं तथा हावभाव का व्यापक रुप से प्रर्दशन,
(2) नाटक का निश्चित कथात्मक स्वरुप
(3) बोलचाल तथा संवाद की एक खास कि की शैली।

पारसी थियेटर शैली ने तीसरे दशक में राजस्थान के रंगकर्मियों पर भी पूरा प्रभाव डाला। जयपुर और अलवर में महबूब हसन नामक व्यक्ति ने पारसी शैली के अनेक नाटक मंचित किये। उसने इस शैली में लिखे आगा हस्द कश्मीरी के अनेक नाटकों को खेला। व्यापक प्रभाव को जमाने वाले इन नाटकों को खेलने की दिशा में यह महबूब हसन का व्यक्तिगत प्रयास था, जिसे राजा-महाराजा तथा किन्हीं सामन्तों का आर्थिक संरक्षण भी न मिला। इसी कारण उसे इन नाटकों को टिकट लगाकर प्रदर्शित करना पड़ा। उन दिनों कुछ राज्यों में राजाओं द्वारा बनवाए गए उनके अपने थियेटर हुआ करते थे तथा उन्हें संचालित करने के लिए अलग विभाग इत्यादि होते थे और पारसी थियेटर पर राज्याश्रय से अलग काम की इन चेष्टाओं को देखकर यह स्पष्ट लगता है कि प्रदर्शन कलाओं (जैसे नृत्य नाटक आदि) का आयोजन निर्माण एवं निर्देशन स्वतंत्र रुप से भी किया जाना प्रारम्भ हो चुका था।

यहाँ यह अत्यन्त रोचक तथ्य है कि प्रदर्शन कलाओं के सुसंगठित विभागों की रचना बहुत पहले से ही होनी शुरु हो गई थी। राजा-महाराजाओं द्वारा पोषित कला विभागों एवं गुणिजन खानों के अलावा भी निजी तौर पर जनता के सहयोग एवं समर्थन से भी उन्हीं दिनों बहुत-सी कम्पनियाँ, मण्डल व थियेटर ग्रुप्स नाटकों का निर्माण करते थे।

जयपुर में राज्य द्वारा संचालित इस महकमें को "गुणिजन खाना' कहा जाता था। सवाई जयसिंह द्वितीय ने जब जयपुर राज्य की स्थापना की तभी से गुणिजनखाने को राजा की सीधी देख-रेख में उनके इस निजी विभाग की स्थापना हुई। इस गुणिजनखाने के महकमें के सम्बन्ध में मिलने वाले रिकार्ड में राजस्थान में सत्रहवीं व अठाहरवीं शती में प्रदर्शन कलाओं के संरक्षण एवं विकास का तथ्यात्मक लेखा-जोखा प्रस्तुत करने की दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। इन प्रदर्शन कलाओं को दो भागों में बांटा गया। एक "परम्परा' से सम्बन्धित तथा दूसरा "संस्कृति' से सम्बन्धित। परम्परा जो हमें पीढ़ी दर पीढ़ी की विरासत के रुप में मिलती है, उसमें "घरानों' का विशेष महत्व होता है। जो कौटुम्बिक या उस्ताद की कलात्मक विशिष्टता का सम्मान, रक्षा तथा विकास करते हैं। पारम्परिक ज्ञान की जीवन्त श्रृंखला होने से परम्परा में गुरु-शिष्य, उस्ताद-शागिर्दो की भी अनिवार्य कढ़ी होती है। उन्हीं के माध्यम से इस विरासत को लगातार आने वाली पीढियाँ प्राप्त करती हैं। यह ऐसी सीढ़ी होती है, जिससे प्रदर्शन कलाएँ अवतरित होती है। इन्हीं कलाओं का संस्कार तथा संशोधन "संस्कृति' के रुप में अभिव्यक्ति पाता है। जिसका सीधा अर्थ है विशुद्धीकरण तथा संस्कार। प्रदर्शन कलाएँ सदा से ही सांस्कृतिक परम्परा का अंग रही है। परम्परा के अन्तर्गत "घराना' वंशगत कला को द्योतक है। परन्तु साथ ही साथ, उस वंश से इस कला की शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति या समुदाय को भी इसी के अन्तर्गत पाया जा सकता है।

विभिन्न राज्यों में थियेटर रंगमंच की रचना हो जाने के फरस्वरुप, जैसा कि रामप्रकाश थियेटर की स्थापना जयपुर में होना तथा ऐसी ही अन्य रंगशालाओं, थियेटर भवनों का निर्माण झालावाड़ में होना और शनै: शनै इन प्रदर्शन कलाओं से सम्बन्धित, राज्याश्रेय से अलग, मंच प्रेमी आम जनता का हिस्सा लेना कम महत्व की बात नहीं है। राज्याश्रय की पकड़ इन रंग भवनों पर ढ़ीली पड़ते जाने एवं जनता द्वारा व्यापक स्तर पर इनमें अपने कार्यक्रमों को सम्पन्न करने के प्रयास, रंगकर्मियों में उत्साहवर्द्धन का कारण भी रहा और उन्होंने उसी उत्साह में अनेक कि के नाटकों का मंचन इन भवनों में किया। एक समय ऐसा था जब पारसी थियेटर ने रंगमंच पर अपना पूर्ण अधिकार ही कायम कर लिया था। और यह वर्च उस समय तक लगातार बना रहा जब तक कि उसका स्थान "सिनेमा' ने नहीं ले लिया। फिर भी आज तक पारसी थियेटर का उपनगरों एवं छोटे नगरों में प्रभाव सिनेमा के बावजूद बना है।

राजस्थान में माणिकलाल डाँगी तथा कन्हैया ला पँवार पारसी थियेटर के विख्यात रंगकर्मी रहे। गणपतलाल डाँगी जो माणिकलाल के सम्बन्धी थे, वे इस परम्परा का १९९३ तक निर्वाह करते रहे। कन्हैया लाल पँवार ने सन् १९४२ में "शाहजहाँ थियेट्रिकल कम्पनी' में नौकरी कर ली और वहाँ उन्होंने राजस्थान की लोक कथाओं पर आधारित अनेक नाटक अभिमंचित किये। इनमें से कुछेक के नाम हैं, "रामू चनणा', "ढोला मारु' तथा "चुनरी'।

वे राजस्थान लौट आए और उन्होंन वहाँ नाथद्वारा की "मरुधर थियेट्रिकल कम्पनी' में नौकरी कर ली। यहाँ उन्होंने "सीता वनवास', "कृष्ण-सुदामा' तथा अन्य नाटकों में सक्रिय रुप से भाग लिया, उन्होंने बाद में अपनी खुद की एक कम्पनी कलकत्ता में स्थापित की जिसका नाम पँवार थियेटर था और वे अभी तक उसमें सक्रिय हैं।

सन् १९७७ में ए. प्र. सक्सेना, जो एक अच्छे अभिनेता है, ने खुद "यहूदी की लड़की' का अभिमंचन किया। यह नाटक आगा हस्न कश्मीरी का लिखा है। इसकी शैली पारसी थियेटर की है। इनके द्वारा पारसी थियेटर शैली को नयी अभिनय शैली के अनुकूल बदलने के भी छुटपुट प्रयास किए गए।

इसी दौरान आकाशवाली जयपरु ने भी मंच के कुछ कलाकार दिए और अनेक रेडियो नाटक यहाँ से प्रसारित हुए, जिनमें ओमशिव पुरी, सुधा, मोहन महर्षि, नन्दलाल, पिन्चू कपूर, गोवर्धन, असरानी आदि अनेक प्रसिद्ध रंगकर्मी कलाकार प्रकाश में आए।

1957 में राजस्थान सरकार ने संगीत नाटक अकादमी की स्थापना की ताकि राज्य में संगीत, नाटक तथा अन्य रंगमंच पर प्रदर्शन योग्य कलाओं का पूर्ण विकास हो सके। उसी के अन्तर्गत नयी रंगशालाएँ राजस्थान में बनी। जिनमें रवीन्द्र मंच (जयपुर), भारतीय लोक कला मण्डल (उदयपुर) के भवन उल्लेखनीय हैं। देवीलाल सामर ने राजस्थान की लोक कलाओं तथा लोक नाट्य शैली के विविध रुपों को मंचित करने तथा प्रोत्साहित करने का एक संस्था के रुप में कार्य किया। इन्होंने लोक कला का एक संग्रहालय भी बनाया।

राजस्थान में रंगमचीय कला का सातवें व आठवें दशक में बहुत विकास हुआ। नेशनल थियेटर जाइन कर लेने के बाद ओमशिव पुरी एवं मोहन महर्षि ने जयपुर में नये नाटकों से सम्बद्ध कार्यशालाएं बनाई। इसके अलावा राजस्थान कर्मचारियों तथा निजी रंगकर्मियों के दलों ने भी नये नाटकों का मंचन किया, जिसमें हम्मीदुल्ला कृत दरिन्दे (सरताज माथुर द्वारा निर्देशित) तथा एक मुद्दा और (स्वयं हमीदुल्ला द्वारा निर्देशित) जयपुर में खेले गए। हमीदुल्ला को नाटकों के लिए राष्ट्रीय पुरष्कार भी मिले।

मणि मधुकर के नाटक "खेला पालेमपुर' तथा एस. गंधर्व भी काफी लोकप्रिय नाटक रहे, इनमें लोक तत्व एवं नयी शैली का समन्व्य मिलता है। इसी दौरान राजस्थान विश्वविद्यालय के "ड्रामा विभाग' में भानु भारती के निर्देशन में मृच्छ कटिका, जसना ओडना आदि नाटक किये गए। इस विभाग का संचालन इन दिनों विजय माथुर कर रहे हैं।

आधुनिक भारतीय रंगमंच की दृष्टि से जयपुर का अपनी विशिष्ट स्थान है। जयपुर में इस समय लिखे गए सभी आधुनिक नाटकों का मंचन हो चुका है। जयपुर रंगमंच की जो प्रमुख नाट्य प्रतिमाएँ हैं, उनमें सरताज माथुर, डी. एन. शैली, हमीदुल्ला, वासुदेव भट्ट, पृथ्वीनाथ जुत्सी, स्वर्गीय एच. पी. सक्सेना तथा एहतराम नकवी आदि के नामोल्लेख किये जा सकते हैं। रिजवान जिसने उस्मान के बहुत से नये नाटक लिखे हैं तथा स्वयं भी मंचित किए हैं।

जयपुर में हुए रंगमंचीय नाटकों के विकास का प्रभाव उदयपुर, जोधपुर एवं बीकानेर में भी पड़ा और इन प्रदेशों में भी अनेक नये नाटकों का सफल मंचन किया गया।

रुपायन संस्थान बोरुन्दा में केन्द्रीय संगीत नाटक अकादमी के तत्वाधान में सुप्रसिद्ध रंगकर्मी हबीब तनवीर के निर्देशन में एक कार्यशाला का आयोजन कुछ दिनों पूर्व हुआ। इसमें रंगकर्म की लोकजन्य प्रवृतियों तथा उनका आधुनिक नाट्यलेखन शैलियों में रुपान्तरण पर लाभकारी विचार विमर्श हुआ। इसमें प्रदर्शन कलाओं के मुख्य अधिवक्ता कोमल कोठारी ने भी शिरकत की।

राजस्थान में नये नाट्य निर्देशक निर्माताओं में मंगल सक्सेना, रिजवान, जहीर उस्मान, कय्यूम अली बोहरा, मदनमोहन माथुर, अर्जुनदास चारण तथा राजनन्द आदि संस्थाबद्ध रुप में कार्य कर रहे हैं। जयपुर में त्रिमूर्ति, कला संगम, कल्चरल सोसाइटी आॅफ राजस्थान, राजस्थान सचिवालय क्लब, अभिसरिका, संकेत, अमेच्योर आर्टिस्ट एसोसिएशन रंगशाला, श्रुति मंडल मुख्य हैं।

इस प्रकार राजस्थान में रंगमंच की दृष्टि से जो महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ है, उसमें सुफल से ही नयी रंग प्रतिमाएँ दिनों-दिन प्रकाश में आती जा रही है। राज्य सरकार ने हाल में एक सांस्कृतिक विभाग की रचना की है, और ऐसी अपेक्षा है कि इस विभाग की मदद से राजस्थान की रंगप्रेमी जनता तथा रंगकर्मियों को समुचित प्रोत्साहन तथा सम्बल मिलेगा और राज्य सरकार प्रदेश में रंगमंचीय कला को लोकप्रिय बनाने व प्रदर्शन कलाओं को लगातार सभी दृष्टियों से परिपुष्ट करने में अपनी महती भूमिका निभाएगी।

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