राजस्थानी कला

इतिहास के साधनों में शिलालेख, पुरालेख और साहित्य के समानान्तर कला भी एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इसके द्वारा हमें मानव की मानसिक प्रवृतियों का ज्ञान ही प्राप्त नहीं होता वरन् निर्मितियों में उनका कौशल भी दिखलाई देता है। यह कौशल तत्कालीन मानव के विज्ञान तथा तकनीक के साथ-साथ समाज, धर्म, आर्थिक और राजनीतिक विषयों का तथ्यात्मक विवरण प्रदान करने में इतिहास का स्रोत बन जाता है। इसमें स्थापत्या, मूर्ति, चित्र, मुद्रा, वस्राभूषण, श्रृंगार-प्रसाधन, घरेलु उपकरण इत्यादि जैसे कई विषय समाहित है जो पुन: विभिन्न भागों में विभक्त किए जा सकते हैं।
•    राजस्थानी स्थापत्य कला
•    मुद्रा कला
•    मूर्ति कला
•    धातु मूर्ति कला
•    चित्रकला
•    धातु एवं काष्ठ कला
•    लोककला

राजस्थानी स्थापत्य कला :-
राजस्थान में प्राचीन काल से ही हिन्दु, बौद्ध, जैन तथा मध्यकाल से मुस्लिम धर्म के अनुयायियों द्वारा मंदिर, स्तम्भ, मठ, मस्जिद, मकबरे, समाधियों और छतरियों का निर्माण किया जाता रहा है। इनमें कई भग्नावेश के रुप में तथा कुछ सही हालत में अभी भी विद्यमान है। इनमें कला की दृष्टि से सर्वाधिक प्राचीन देवालयों के भग्नावशेष हमें चित्तौड़ के उत्तर में नगरी नामक स्थान पर मिलते हैं। प्राप्त अवशेषों में वैष्णव, बौद्ध तथा जैन धर्म की तक्षण कला झलकती है। तीसरी सदी ईसा पूर्व से पांचवी शताब्दी तक स्थापत्य की विशेषताओं को बतलाने वाले उपकरणों में देवी-देवताओं, यक्ष-यक्षिणियों की कई मूर्तियां, बौद्ध, स्तूप, विशाल प्रस्तर खण्डों की चाहर दीवारी का एक बाड़ा, ३६ फुट और नीचे से १४ फुल चौड़ दीवर कहा जाने वाला “गरुड़ स्तम्भ’ यहां भी देखा जा सकता है। १५६७ ई. में अकबर द्वारा चित्तौड़ आक्रमण के समय इस स्तम्भ का उपयोग सैनिक शिविर में प्रकाश करने के लिए किया गया था। गुप्तकाल के पश्चात् कालिका मन्दिर के रुप में विद्यमान चित्तौड़ का प्राचीन “सूर्य मन्दिर’ इसी जिले में छोटी सादड़ी का भ्रमरमाता का मन्दिर कोटा में, बाड़ौली का शिव मन्दिर तथा इनमें लगी मूर्तियां तत्कालीन कलाकारों की तक्षण कला के बोध के साथ जन-जीवन की अभिक्रियाओं का संकेत भी प्रदान करती हैं। चित्तौड़ जिले में स्थित मेनाल, डूंगरपुर जिले में अमझेरा, उदयपुर में डबोक के देवालय अवशेषों की शिव, पार्वती, विष्णु, महावीर, भैरव तथा नर्तकियों का शिल्प इनके निर्माण काल के सामाजिक-सांस्कृतिक विकास का क्रमिक इतिहास बतलाता है।kala 1
सातवीं शताब्दी से राजस्थान की शिल्पकला में राजपूत प्रशासन का प्रभाव हमें शक्ति और भक्ति के विविध पक्षों द्वारा प्राप्त होता है। जयपुर जिले में स्थित आमानेरी का मन्दिर (हर्षमाता का मंदिर), जोधपुर में ओसिया का सच्चियां माता का मन्दिर, जोधपुर संभाग में किराडू का मंदिर, इत्यादि और भिन्न प्रांतों के प्राचीन मंदिर कला के विविध स्वरों की अभिव्यक्ति संलग्न राजस्थान के सांस्कृतिक इतिहास पर विस्तृत प्रकाश डालने वाले स्थापत्य के नमूने हैं।  उल्लेखित युग में निर्मित चित्तौड़, कुम्भलगढ़, रणथंभोर, गागरोन, अचलगढ़, गढ़ बिरली (अजमेर का तारागढ़) जालोर, जोधपुर आदि के दुर्ग-स्थापत्य कला में राजपूत स्थापत्य शैली के दर्शन होते हैं। सरक्षा प्रेरित शिल्पकला इन दुर्गों की विशेषता कही जा सकती है जिसका प्रभाव इनमें स्थित मन्दिर शिल्प-मूर्ति लक्षण एवं भवन निर्माण में आसानी से परिलक्षित है। तेरहवीं शताब्दी के पश्चात् स्थापत्य प्रतीक का अद्वितीय उदाहरण चित्तौड़ का “कीर्ति स्तम्भ’ है, जिसमें उत्कीर्म मूर्तियां जहां हिन्दू धर्म का वृहत संग्रहालय कहा जा सकता है। वहां इसकी एक मंजिल पर खुदे फारसी-लेख से स्पष्ट होता है कि स्थापत्य में मुस्लिम लक्ष्ण का प्रभाव पड़ना शुरु होने लगा था।
सत्रहवीं शताब्दी के पश्चात् भी परम्परागत आधारों पर मन्दिर बनते रहे जिनमें मूर्ति शिल्प के अतिरिक्त भित्ति चित्रों की नई परम्परा ने प्रवेश किया जिसका अध्ययन राजस्थानी इतिहास के लिए सहयोगकर है।

मुद्रा कला :- 
राजस्थान के प्राचीन प्रदेश मेवाड़ में मज्झमिका (मध्यमिका) नामधारी चित्तौड़ के पास स्थित नगरी से प्राप्त ताम्रमुद्रा इस क्षेत्र को शिविजनपद घोषित करती है। तत्पश्चात् छठी-सातवीं शताब्दी की स्वर्ण मुद्रा प्राप्त हुई। जनरल कनिंघम को आगरा में मेवाड़ के संस्थापक शासक गुहिल के सिक्के प्राप्त हुए तत्पश्चात ऐसे ही सिक्के औझाजी को भी मिले। इसके उर्ध्वपटल तथा अधोवट के चित्रण से मेवाड़ राजवंश के शैवधर्म के प्रति आस्था का पता चलता है। राणा कुम्भाकालीन (१४३३-१४६८ ई.) सिक्कों में ताम्र मुद्राएं तथा रजत मुद्रा का उल्लेख जनरल कनिंघम ने किया है। इन पर उत्कीर्ण वि.सं. १५१०, १५१२, १५२३ आदि तिथियों “”श्री कुभंलमेरु महाराणा श्री कुभंकर्णस्य”, “”श्री एकलिंगस्य प्रसादात” और “”श्री” के वाक्यों सहित भाले और डमरु का बिन्दु चिन्ह बना हुआ है। यह सिक्के वर्गाकृति के जिन्हें “टका’ पुकारा जाता था। यह प्रबाव सल्तनत कालीन मुद्रा व्यवस्था को प्रकट करता है जो कि मेवाड़ में राणा सांगा तक प्रचलित रही थी। सांगा के पश्चात् शनै: शनै: मुगलकालीन मुद्रा की छाया हमें मेवाड़ और राजस्थान के तत्कालीन अन्यत्र राज्यों में दिखलाई देती है। सांगा कालीन (१५०९-१५२८ ई.) प्राप्त तीन मुद्राएं ताम्र तथा तीन पीतल की है। इनके उर्ध्वपटल पर नागरी अभिलेख तथा नागरी अंकों में तिथि तथा अधोपटल पर “”सुल्तान विन सुल्तान” का अभिलेख उत्कीर्ण किया हुआ मिलता है। प्रतीक चिन्हों में स्वास्तिक, सूर्य और चन्द्र प्रदर्शित किये गए हैं। इस प्रकार सांगा के उत्तराधिकारियों राणा रत्नसिंह द्वितीय, राणा विक्रमादित्य, बनवीर आदि की मुद्राओं के संलग्न मुगल-मुद्राओं का प्रचलन भी मेवाड में रहा था जो टका, रुप्य आदि कहलाती थी।
परवर्ती काल में आलमशाही, मेहताशाही, चांदोडी, स्वरुपशाही, भूपालशाही, उदयपुरी, चित्तौड़ी, भीलवाड़ी त्रिशूलिया, फींतरा आदि कई मुद्राएं भिन्न-भिन्न समय में प्रचलित रहीं वहां सामन्तों की मुद्रा में भीण्डरीया पैसा एवं सलूम्बर का ठींगला व पदमशाही नामक ताम्बे का सिक्का जागीर क्षेत्र में चलता था। ब्रिटीश सरकार का “कलदार’ भी व्यापार-वाणिज्य में प्रयुक्त किया जाता रहा था। जोधपुर अथवा मारवाड़ प्रदेश के अन्तर्गत प्राचीनकाल में “पंचमार्क’ मुद्राओं का प्रचलन रहा था। ईसा की दूसरी शताब्दी में यहां बाहर से आए क्षत्रपों की मुद्रा “द्रम’ का प्रचलन हुआ जो लगभग सम्पूर्ण दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान में आर्थिक आधार के साधन-रुप में प्रतिष्ठित हो गई। बांसवाड़ा जिले के सरवानियां गांव से १९११ ई. में प्राप्त वीर दामन की मुद्राएं इसका प्रमाण हैं। प्रतिहार तथा चौहान शासकों के सिक्कों के अलावा मारवाड़ में “फदका’ या “फदिया’ मुद्राओं का उल्लेख भी हमें प्राप्त होता है।
राजस्थान के अन्य प्राचीन राज्यों में जो सिक्के प्राप्त होते हैं वह सभी उत्तर मुगलकाल या उसके पश्चात् स्थानीय शासकों द्वारा अपने-अपने नाम से प्रचलित कराए हुए मिलते हैं। इनमें जयपुर अथवा ढुंढ़ाड़ प्रदेश में झाड़शाही रामशाही मुहर मुगल बादशाह के के नाम वाले सिक्को में मुम्मदशाही, प्रतापगढ़ के सलीमशाही बांसवाड़ा के लछमनशाही, बून्दी का हाली, कटारशाही, झालावाड़ का मदनशाही, जैसलमैर में अकेशाही व ताम्र मुद्रा – “डोडिया’ अलवर का रावशाही आदि मुख्य कहे जा सकते हैं। मुद्राओं को ढ़ालने वाली टकसालों तथा उनके ठप्पों का भी अध्ययन अपेक्षित है। इनसे तत्कालीन मुद्रा-विज्ञान पर वृहत प्रकाश डाला जा सकता है। मुद्राओं पर उल्लेखित विवरणों द्वारा हमें सत्ता के क्षेत्र विस्तार, शासकों के तिथिक्रम ही नहीं मिलते वरन् इनसे राजनीतिक व्यवहारों का अध्ययन भी किया जा सकता है।

मूर्ति कला :-
राजस्थान में काले, सफेद, भूरे तथा हल्के सलेटी, हरे, गुलाबी पत्थर से बनी मूर्तियों के अतिरिक्त पीतल या धातु की मूर्तियां भी प्राप्त होती हैं। गंगा नगर जिले के कालीबंगा तथा उदयपुर के निकट आहड़-सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी से बनाई हुई खिलौनाकृति की मूर्तियां भी मिलती हैं। किन्तु आदिकाल से शास्रोक्य मूर्ति कला की दृष्टि से ईसा पूर्व पहली से दूसरी शताब्दी के मध्य निर्मित जयपुर के लालसोट नाम स्थान पर “”बनजारे की छतरी” नाम से प्रसिद्ध चार वेदिका स्तम्भ मूर्तियों का लक्षण द्रष्टत्य है। पदमक के धर्मचक्र, मृग, मत्स, आदि के अंकन मरहुत तथा अमरावती की कला के समानुरुप हैं। राजस्थान में गुप्त शासकों के प्रभावस्वरुप गुप्त शैली में निर्मित मूर्तियों, आभानेरी, कामवन तथा कोटा में कई स्थलों पर उपलब्ध हुई हैं।
kala2गुप्तोतर काल के पश्चात् राजस्थान में सौराष्ट्र शैली, महागुर्जन शैली एवं महामास शैली का उदय एवं प्रभाव परिलक्षित होता है जिसमें महामास शैली केवल राजस्थान तक ही सीमित रही। इस शैली को मेवाड़ के गुहिल शासकों, जालौर व मण्डोर के प्रतिहार शासकों और शाकम्भरी (सांभर) के चौहान शासकों को संरक्षण प्रदान कर आठवीं से दसवीं शताब्दी के प्रारम्भ तक इसे विकसित किया।
१५वीं शताब्दी राजस्थान में मूर्तिकला के विकास का स्वर्णकाल था जिसका प्रतीक विजय स्तम्भ (चित्तौड़) की मूर्तियां है। सोलहवी शताब्दी का प्रतिमा शिल्प प्रदर्शन जगदीश मंदिर उदयपुर में देखा जा सकता है। यद्यपि इसके पश्चात् भी मूर्तियां बनी किंतु उस शिल्प वैचिञ्य कुछ भी नहीं है किंतु अठाहरवीं शताब्दी के बाद परम्परावादी शिल्प में पाश्चात्य शैली के लक्षण हमें दिखलाई देने लगते हैं। इसके फलस्वरुप मानव मूर्ति का शिल्प का प्रादूर्भाव राजस्थान में हुआ।

धातु मूर्ति कला :- 
धातु मूर्ति कला को भी राजस्थान में प्रयाप्त प्रश्रय मिला। पूर्व मध्य, मध्य तथा उत्तरमध्य काल में जैन मूर्तियों का यहां बहुतायत में निर्माण हुआ। सिरोही जिले में वसूतगढ़ पिण्डवाड़ा नामक स्थान पर कई धातु प्रतिमाएं प्राप्त हुई हैं जिसमें शारदा की मूर्ति शिल्प की दृष्टि से द्रस्टव्य है। भरतपुर, जैसलमेर, उदयपुर के जिले इस तरह के उदाहरण से परिपूर्ण है।
अठाहरवी शताब्दी से मूर्तिकला ने शनै: शनै: एक उद्योग का रुप लेना शुरु कर दिया था। अत: इनमें कलात्मक शैलियों के स्थान पर व्यवसायिकृत स्वरुप झलकने लगा। इसी काल में चित्रकला के प्रति लोगों का रुझान दिखलाई देता है।

चित्रकला :- 

राजस्थान में यों तो अति प्राचीन काल से चित्रकला के प्रति लोगों में रुचि रही थी। मुकन्दरा की पहाड़ियों व अरावली पर्वत श्रेणियों में कुछ शैल चित्रों की खोज इसका प्रमाण है। कोटा के दक्षिण में चम्बल के किनारे, माधोपुर की चट्टानों से, आलनिया नदी से प्राप्त शैल चित्रों का जो ब्योरा मिलता है उससे लगता है कि यह चित्र बगैर किसी प्रशिक्षण के मानव द्वारा वातावरण प्रभावित, स्वाभाविक इच्छा से बनाए गए थे। इनमें मानव एवं जावनरों की आकृतियों का आधिक्य है। कुछ चित्र शिकार के कुछ यन्त्र-तन्त्र के रुप में ज्यामितिक आकार के लिए पूजा और टोना टोटका की दृष्टि से अंकित हैं। कोटा के जलवाड़ा गांव के पास विलास नदी के कन्या दाह ताल से बैला, हाथी, घोड़ा सहित घुड़सवार एवं हाथी सवार के चित्र मिलें हैं। यह चित्र उस आदिम परम्परा को प्रकट करते हैं आज भी राजस्थान में “”मांडला” नामक लोक कला के रुप में घर की दीवारों तथा आंगन में बने हुए देखे जा सकते हैं। इस प्रकार इनमें आदिम लोक कला के दर्शन सहित तत्कालीन मानव की आन्तरिक भावनाओं की अभिव्यक्ति सहज प्राप्त होती है।
कालीबंगा और आहड़ की खुदाई से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों पर किया गया अलंकरण भी प्राचीनतम मानव की लोक कला का परिचय प्रदान करता है। ज्यामितिक आकारों में चौकोर, गोल, जालीदाल, घुमावदार, त्रिकोण तथा समानान्तर रेखाओं के अतिरिक्त काली व सफेद रेखाओं से फूल-पत्ती, पक्षी, खजूर, चौपड़ आदि का चित्रण बर्तनों पर पाया जाता है। उत्खनित-सभ्यता के पश्चात् मिट्टी पर किए जाने वाले लोक अलंकरण कुम्भकारों की कला में निरंतर प्राप्त होते रहते हैं किन्तु चित्रकला का चिन्ह ग्याहरवी शदी के पूर्व नहीं हुआ है।सर्वप्रथम वि.सं. १११७/१०८० ई. के दो सचित्र ग्रंथ जैसलमेर के जैन भण्डार से प्राप्त होते हैं।  औघनिर्युक्ति और दसवैकालिक सूत्रचूर्णी नामक यह हस्तलिखित ग्रन्थ जैन दर्शन से सम्बन्धित है। इसी प्रकार ताड़ एवं भोज पत्र के ग्रंथों को सुरक्षित रखने के लिए बनाये गए लकड़ी के पुस्तक आवरण पर की गई चित्रकारी भी हमें तत्कालीन काल के दृष्टान्त प्रदान करती है।
kala3बारहवी शताब्दी तक निर्मित ऐसी कई चित्र पट्टिकाएं हमें राजस्थान के जैन भण्डारों में उपलब्ध हैं। इन पर जैन साधुओं, वनस्पति, पशु-पक्षी, आदि चित्रित हैं। अजमेर, पाली तथा आबू ऐसे चित्रकारों के मुख्य केन्द्र थे। तत्पशात् आहड़ एवं चित्तौड़ में भी इस प्रकार के सचित्र ग्रंथ बनने आरम्भ हुए। १२६०-१३१७ ई. में लिखा गया “”श्रावक प्रतिक्रमण सूत्रचूर्णि” नामक ग्रन्थ मेवाड़ शैली (आहड़) का प्रथम उपलब्ध चिन्ह है, जिसके द्वारा राजस्थानी कला के विकास का अध्ययन कर सकते हैं।
ग्याहरवी से पन्द्रहवी शताब्दी तक के उपलब्ध सचित्र ग्रंथों में निशिथचूर्णि, त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, नेमिनाथ चरित्र, कला सरित्सागर, कल्पसूत्र (१४८३/१४२६ ई.) कालक कथा, सुपासनाचरियम् (१४८५-१४२८ ई.) रसिकाष्टक (१४३५/१४९२ ई.) तथा गीत गोविन्द आदि हैं। १५वीं शदी तक मेवाड़ शैली की विशेषता में सवाचश्म्, गरुड़ नासिका, परवल की खड़ी फांक से नेत्र, घुमावदार व लम्बी उंगलियां, गुड्डिकार जनसमुदाय, चेहरों पर जकड़न, अलंकरण बाहुल्य, लाल-पीले रंग का अधिक प्रयोग कहे जा सकते हैं।
मेवाड़ के अनुरुप मारवाड़ में भी चित्रकला की परम्परा प्राचीन काल से पनपती रही थी। किंतु महाराणा मोकल से राणा सांगा (१४२१-१५२८ ई.) तक मेवाड़-मारवाड़ कला के राजनीतिक प्रभाव के फलस्वरुप साम्य दिखलाई होता है। राव मालदेव (१५३१-१५६२ ई.) ने पुन: मारवाड़ शैली को प्रश्य प्रदान कर चित्रकारों को इस ओर प्रेरित किया। इस शैली का उदाहरण १५९१ ई. में चित्रित ग्रन्थ उत्तराध्ययन सूत्र है। मारवाड़ शैली के भित्तिचित्रों मे जोधपुर के चोखेला महल को छतों के अन्दर बने चित्र दृष्टव्य हैं।
राजस्थान में मुगल प्रभाव के परिणाम स्वरुप सत्रहवीं शती से मुगल शैली और राजस्थान की परम्परागत राजपूत शैली के समन्वय ने कई प्रांतीय शेलियों को जन्म दिया, इनमें मेवाड़ और मारवाड़ के अतिरिक्त बूंदी, कोटा, जैसलमेर, बीकानेर, जयपुर, किशनगढ़ और नाथद्वारा शैली मुख्य है। मुगल प्रभाव के फलत: चित्रों के विषय अन्त:पुर की रंगरेलियां, स्रियों के स्नान, होली के खेल, शिकार, बाग-बगीचे, घुड़सवारी, हाथी की सवारी आदि रहे। किन्तु इतिहास के पूरक स्रोत की दृष्चि से इनमें चित्रित समाज का अंकन एवं घटनाओं का चित्रण हमें सत्रहवीं से अठारहवी शताब्दी के अवलोकन की विस्तृत सामग्री प्रदान करता है। उदाहरणत: मारवाड़ शैली में उपलब्ध “”पंचतंत्र” तथा “”शुकनासिक चरित्र” में कुम्हार, धोबी, नाई, मजदूर, चिड़ीमार, लकड़हारा, भिश्ती, सुनार, सौदागर, पनिहारी, ग्वाला, माली, किसान आदि से सम्बन्धित जीवन-वृत का चित्रण मिलता है। किशनगढ़ शैली में राधा कृष्ण की प्रेमाभिव्यक्ति के चित्रण मिलते हैं। इस क्रम में बनीठनी का एकल चित्र प्रसिद्ध है। किशनगढ़ शैली में कद व चेहरा लम्बा नाक नुकीली बनाई जाती रही वही विस्तृत चित्रों में दरबारी जीवन की झांकियों का समावेश भी दिखलाई देता है।

मुगल शैली का अधिकतम प्रभाव हमें जयपुर तथा अलवर के चित्रों में मिलता है। बारामासा, राग माला, भागवत आदि के चित्र इसके उदाहरण हैं। १६७१ ई. से मेवाड़ में पुष्टि मार्ग से प्रभावित श्रीनाथ जी के धर्म स्थल नाथद्वारा की कलम का अलग महत्व है। यद्यपि यहां के चित्रों का विषय कृष्ण की लीलाओं से सम्बन्धित रहा है फिर भी जन-जीवन की अभिक्रियाओं का चित्रण भी हमें इनमें सहज दिख जाता  है। १९वीं शताब्दी में ब्रिटिश प्रभाव के फलत: राजस्थान में पोट्रेट भी बनने शुरु हुए। यह पोट्रेट तत्कालीन रहन-सहन को अभिव्यक्त करने में इतिहास के अच्छे साधन हैं।चित्रकला के अन्तर्गत भित्ति चित्रों का आधिक्य हमें अठाहरवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से दिखलाई देता है, किन्तु इसके पूर्व भी मन्दिरों और राज प्रासादों में ऐसे चित्रांकन की परम्परा विद्यमान थी। चित्तौड़ के प्राचीन महलों में ऐसे भित्ति चित्र उपलब्ध हैं जो सौलहवीं सदी में बनाए गए थे।

सत्रहवीं शताब्दी के चित्रणों में मोजमाबाद (जयपुर), उदयपुर के महलों तथा अम्बामाता के मंदिर, नाडोल के जैन मंदिन, आमेर (जयपुर) के निकट मावदूमशाह की कब्र के मुख्य गुम्बद के चित्र, जूनागढ़ (बीकानेर), मारोठ के मान मन्दिर गिने जा सकते हैं। अठाहरवीं शताब्दी के चित्रणों में कृष्ण विलास (उदयपुर) आमेर महल की भोजनशाला, गलता के महल, पुण्डरीक जी की हवेली (जयपुर) सूरजमल की छतरी (भरतपुर), झालिम सिंह की हवेली (कोटा) और मोती महल (नाथद्वारा) के भित्ति चित्र मुख्य हैं। यह चित्र आलागीला पद्धति या टेम्परा से बनाए गए थे। शेखावटी, जैसलमेर एवं बीकानेर की हवेलियों में इस प्रकार के भित्ति चित्र अध्ययनार्थ अभी भी देखे जा सकते हैं। कपड़ो पर की जाने वाली कला में छपाई की चित्रकारी भी कला के इतिहास सहित इतिहास के अन्य अंगों पर प्रकाश डालने में समर्थ हो सकती है। यद्यपि वस्र रंगाई, छपाई, तथा कढ़ाई चित्रकला से प्रत्यक्ष सम्बन्धित नहीं हैं, किन्तु काल विशेष में अपनाई जाने वाली इस तकनीक, विद्या का अध्ययन कलागत तकनीकी इतिहास की उपादेय सामग्री बन सकती है। चांदी और सोने की जरी का काम किए वस्र शामियाने, हाथी, घोड़े तथा बैल की झूले आदि इस अध्ययन के साधन हैं।

धातु एवं काष्ठ कला :-
इसके अन्तर्गत तोप, बन्दूक, तलवार, म्यान, छुरी, कटारी, आदि अस्र-शस्र भी इतिहास के स्रोत हैं। इनकी बनावट इन पर की गई खुदाई की कला के साथ-साथ इन पर प्राप्त सन् एवं अभिलेख हमें राजनीतिक सूचनाएं प्रदान करते हैं। ऐसी ही तोप का उदाहरण हमें जोधपुर दुर्ग में देखने को मिला जबकि राजस्थान के संग्रहालयों में अभिलेख वाली कई तलवारें प्रदर्शनार्थ भी रखी हुई हैं। पालकी, काठियां, बैलगाड़ी, रथ, लकड़ी की टेबुल, कुर्सियां, कलमदान, सन्दूक आदि भी मनुष्य की अभिवृत्तियों का दिग्दर्शन कराने के साथ तत्कालीन कलाकारों के श्रम और दशाओं का ब्यौरा प्रस्तुत करने में हमारे लिए महत्वपूर्ण स्रोत सामग्री है।

राजस्थान की जूतियाँ :-
राजस्थान के निवासियों ने अपना पहनावा, वेशभूषा, शिरोत्राण व पगरखियाँ देशकाल तथा भौगोलिक परिस्थितयों की आवश्यकता के अनुरुप ही अंगीकार किए हैं। उन सबका पृथक-पृथक महत्व है। यहाँ विभिन्न जूतियों का पृथक-पृथक पहनावा है तथा उनकी जूतियों की बनावट भी अलग-अलग है। इन जूतियों का उपयोग भी परम्पराओं से मुक्त नहीं है। जूतियाँ आम आदमी के व्यक्तित्व की पहचान कराती है। उसके सामाजिक स्तर, धर्म, आर्थिक स्थिति, परगना आदि की पहचान जानने वाले लोग उसकी जूतियों को देखकर कर लेते हैं। यहाँ तक कि रीति-रिवाजों और मर्यादाओं की लक्ष्मणरेखा भी जूतियों से आंकी जाती है।

पावरल छणी पादुका, जूती जबरो जाण।
चवो उपानन मोचड़ी, प्राण हिता पहचान।।

राजस्थान में जूतियों के लिए कई नाम व उपनाम प्रचलित हैं जो इस प्रकार हैं: – पग रक्षिका, पादुकाएँ, जूतियाँ, कांटारखी (कांटे से रक्षा करने वाली), लपतरो, जूतड़, जूतीड़, खाहड़ा, जरबो, (मेवाड़ में), लितड़ा (फटे हुए जूते), जोड़ा, खेटर, ठेठर (जैसलमेर में), मोजड़ी, लिकतर, जूत, लपटा, पनोती इत्यादि।
राजा, महाराजा और जागीरदारों की जूतियाँ मखमल, जरी, मोती तथा अमूल्य रत्नों से जड़ित होती थीं। शादी के समय जब मोची दूल्हे के लिए विशेष जूतियाँ लाता था, तो उसे बिन्दोली कहा जाता था। इसके बदले में उसे नेग दिया जाता था। जागीरों के समय जागीरदारों एवं उनके परिवार के सदस्यों के लिए गाँव का मोची जूतियाँ बनाकर लाता था। उसके बदले में उसे पेटिया ( गेंहू या बाजरी) दिया जाता था ।

जरकस जरी रेसमी जांभौ, रतना साज सजावै।
मणियां जड़ी मोचड़ी चरणां, जोयां ही बण आवै।।

शादी – ब्याह के समय जूतियाँ हास – परिहास करने का साधन बनती हैं तथा जीजा – साली इस प्रकार की हँसी-ठिठोली के द्वारा जाने-अनजाने एक दूसरे के स्वभाव तथा उनके धैर्य इत्यादि से परिचित होते हैं। शादी के पश्चात् दूल्हा-दुल्हन देवताओं को धोकने जाते हैं, तो उनसे मजाक करने के लिए महिलाएँ एक आले में दुल्हन की जूतियों को पलिया ओढ़ाकर रख देती हैं और महिलाएँ दूल्हे के हाथ से नारियल वढ़वाती हैं और वहाँ उसके माथा नमन करती हैं। कभी-कभी दूल्हे की जूतियाँ छिपाकर साली नेग वसूल करती है। दूल्हन अपने बड़ों के सामने जूतियाँ पहनकर नहीं वलती हैं। मर्यादा के अनुसार बड़ों के सामने नंगे पाँव ही वलना होता है। महिलाएँ घर में मर्द की उपस्थिति का अनुमान ड्योढ़ी पर उसकी जूतियों को देखकर ही लगाती हैं। ऐसा विश्वास भी है नई दूल्हन, जो पीहर के घर से जूती पहनकर आती है, उसे जल्दी पहनकर फाड़ने का प्रयास करती है, क्योंकि ऐसी मान्यता है कि उसकी जूतियाँ फटने से पीहर का कर्ज उतरता है।

मेह बिना धरती तरसै, मेहड़ों हुवण दै।
मोचड़ियाँ गणावूं मुखमलरी मेहड़ो हुवण दै।।

जोधपुर के रावटी महाराज तो जूतियों के इतने शौकीन थे कि वे अपनी मखमली जूतियों पर खरे मोती एवं हीरे-पन्ने लगवाते थे। वे इसके लिए विख्यात भी थे। जूतियों के संबंध में और भी अनेक प्रकार के रिवाज एवं परम्पराएँ रहीं हैं। यहाँ ऐसी मान्यता है कि जब पुत्र के पैर में पिता की जूतियाँ बराबर आनी लगे, तब उसे बराबरी का दर्जा दे देना चाहिए। जब किसी दुखियारी महिला के पीहर या मायके में कोई जीवित नहीं बचता है, तो कहा जाता है कि उसके लिए पगरखी उतारने की कोई ठौड़ अब नहीं रही है। किसी अहसान की चरम सीमा को स्वीकार करने के लिए यहाँ आम बोलचाल में कहा जाता है कि मैं अपनी खाल के जूते भी आपको पहनाऊँ तो भी आपका अहसान नहीं उतार सकता हूँ।

घुड़ला सईयां दीसै य न ठांण।
ना रे पगाणे भँवरजी श मोचड़ा।।

पुराने जमाने में कई नामी चोर रात में चोरी करने के लिए किसी अन्य की जूतियाँ पहनकर चोरी करने जाता था और चोरी करके उसकी जूतियाँ वापस रख देता था। इस प्रकार पागी (पदचिन्ह के पारखी) जूतियों के निशान देखकर उसी को पकड़ते थे, जिसकी जूतियाँ चोर ने प्रयुक्त की थीं। किसी अपराध के साबित होने पर गाँववाले अपराधी को जूतों की माला पहनाते तथा उसे गधे पर बैठाकर पूरे गाँव में घुमाते थे। उसके लिए यह सबसे बड़ी बेइज्जती मानी जाती थी।
बुरी नजर से बचाने के लिए आज भी फटी-फूटी जूती घर के ऊपर लटकाई जाती है। मिरगी का दौरा पड़ने पर अज्ञानवश आज भी रोगी को जूतियाँ सुंघाते हैं। कई बार रेगिस्तान में पानी रखने का बर्तन उपलब्ध न होने पर जूती में पानी भरकर कई आवश्यक कार्य निपटाते हैं। यह प्रयोग केवल अपरिहार्य परिस्थितयों में ही किया जाता है। कई बार भेड़ की जटा काटने के लिए उसे सुलाना पड़ता है। ऐसा करते समय खारी लोग अपनी जूती उसकी आँख पर उल्टी रख देते हैं और भेंड़ भय व आँख के सामने अंधेरा पाकर निर्जिंश्चत होकर पड़ी रहती है।
राजा-रजवाड़ों में चोंचदार जूतियाँ पहनने का रिवाज प्रचलित रहा है, जिनसे चलने पर करड़-करड़ की आवाज आना रौब का चिन्ह माना जाता था। शादी शुदा स्रियाँ रंगीन, कशीदे एवं जरी वाली पगरखियाँ पहनी हैं परन्तु विधवाएँ सिर्फ काले चमड़े की सादी जूतियाँ ही पहन सकती हैं। जनानी पगरखियाँ की एड़ी सदा मुड़ी हुई रहती हैं। चौधरी एवं रबारी महिलाएँ कस्से वाली एड़ी की जूतियाँ भी पहनती हैं।
बाड़मेर और जैसलमेर के सिन्धी मुसलमानों की स्रियाँ मोटे तले, छोटे पंजे एवं रंगीन फून्दों वाली जूतियाँ पहनती हैं। इन जूतियों को शहर की मोलांगी स्रियाँ तो पहनकर चल भी नहीं सकतीं।
यहाँ यदि कोई जूतियों को चुराकर ले जावे, तो अच्छा माना जाता है। इस समय यह कहकर मन को समझाया जाता है कि मेरी पनोती उतर गई। शनिश्चर की दशा लगने पर देशान्तरी को अन्य दोनों के साथ-साथ शनिवार को जूतियाँ भी दी जाती हैं, ताकि उस दशा का स्थानान्तरण देशान्तरी पर हो जाए।
भेंड़ – बकरी चराने वाले देवदासियों की जूतियाँ बहुत कम फटती है, क्योंकि वे लोग ज्यादातर अपने जोड़ों को लकड़ी में अटकाकर कन्धे पर लेकर घूमते हैं। यदि उन्हें जंगल में पेड़ की छाया के नीचे आराम करना हो तो वे उनको सिरहाने रखकर सोते हैं। वैसे यह भी मान्यता है कि अगर किसी व्यक्ति को नींद में बुरे सपने आएँ तो उसे जूतियाँ सिरहाने रखकर सोना चाहिए। ऐसा करने से बुरे सपने नहीं आते हैं। यह भी मान्यता है कि किसी के घर से कोई अतिथि प्रस्थान कर रहा हो तो उसे वापस आते वक्त जूते अथवा जूतियाँ इत्यादि लाने के लिए नहीं कहना चाहिए।
पाँव में पहनने वाली जूतियों को बाल में सजाकर सुहाग की अन्य वस्तुओं के साथ पडले के साथ दूल्हे की तरफ से दुल्हन को भेजी जाती है। उसमें चूड़ा, नथ, तिमणिया और सिन्दूर के साथ जूतियों का जरीदार जोड़ा भी होता है, जिन्हें फेरों के समय पहनाया जाता है।
मुगलों के जमाने की नोंकदार जरी वाली जूतियाँ सली-शाही के नाम से मशहूर हुई। आज भी नवाबी घरानों में ये नाम कहे-सुने जाते हैं। मनुष्य खाली हाथ संसार से विदा हो जाता है। शव को दाहसंस्कार के समय जब ले जाया जाता है, तब (चाहे राजा हो या रंक) उसे नई पगड़ी, धोती और कुर्ता इत्यादि पहनाए जाते हैं, परन्तु उसके पाँव नंगे ही रहते हैं। भगवान के घर विदा करते समय अमीर-गरीब किसी को भी जूतियाँ नहीं पहनाई जाती है। मृत्यु के पश्चात् ब्राह्मणों को जब धार्मिक रीति-रिवाजों के अनुसार सुख सेज दान में दी जाती है, तो अन्य आवश्यक वस्तुओं के साथ जूतियों का दान भी दिया जाता है। मारवाड़ में जूतियों से संबंधित अनेक प्रकार के मुहावरे भी प्रचलित हैं। जैसे – जूता पड़ना, जूता खाना, जूता बरसाना, जूतियाँ उठाणी, जूतियाँ काख में राखणी, जूतां री मन में आणे, जूतां रा भूत बातां सूं नीं मानै, जूत जरकावणा, म्हारी जाणै जूती, जूती जेड़ों तेल आदि-आदि।
इस प्रकार चमड़े की ये पादुकाएँ वर्षों का सफर तय करके आज भी अपने बदले हुए रुप में जिन्दा है। महाभारत काल में पाँच पतियों वाली द्रौपदी के कक्ष में किसी भाई की उपस्थिति का पता अन्य भाईयों की बाहर पड़ी हुई मोजड़ियों से ही चलता था। मोजड़ियों को देखकर अन्य भाई द्रौपदी के कक्ष में प्रवेश नहीं करते थे। यहाँ जूतियाँ एक मर्यादा रेखा का काम करती है।
जूतियों की दशा देखकर उनके जानकार लोग जुतियाँ पहनने वाले व्यक्ति के संबंध में भविष्यवाणी तक करते थे। उसकी चाल-ढाल, स्वभाव, वीरता तथा कायरता का अनुमान वे जूतियाँ देखकर ही कर लिया करते थे।
मानव ज्यों-ज्यों सभ्यता के सोपान पार करता गया, त्यों-त्यों भोग – विलास की सामग्री में भी बढ़ोत्तरी होती गई। उसका पहनावा ही उसकी सामाजिक स्थिति, रुतबे एवं पद की उच्चता का परिचायक बनता गया। प्रत्येक जाति एवं धर्म के व्यक्ति का सिर से पाँव तक अपना अलग ही पहनावा होता था, जो अब लगभग समाप्त हो चुका है। आज किसी का पहनावा, पगरखियाँ तथा उसकी वेष-भूषा देखकर उस व्यक्ति का सही परिचय नहीं हो सकता है। आज पगरखियों को पहनना किसी परम्परा से बंधित नहीं है, परन्तु यदा-कदा वे हमें पुराने रिवाजों की यादें जरुर ताजा कर देती हैं। आज भी अपने परिजन की शव को कंधे पर ले जाते वक्त बहुत से लोग जूतियाँ नहीं पहनते हैं तथा श्मशान तक नंगे पाँव जाते हैं। इस प्रकार कभी-कभी हमारी प्राचीन संस्कृति जूतियों के बहाने यदा-कदा जहाँ-तहाँ न आती है, जो आधुनिकता की होड़ में अब लुप्त प्राय हो रहीं हैं।

लोककला  :-
अन्तत: लोककला के अन्तर्गत बाद्य यंत्र, लोक संगीत और नाट्य का हवाला देना भी आवश्यक है। यह सभी सांस्कृतिक इतिहास की अमूल्य धरोहरें हैं जो इतिहास का अमूल्य अंग हैं। बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध तक राजस्थान में लोगों का मनोरंजन का साधन लोक नाट्य व नृत्य रहे थे। रास-लीला जैसे नाट्यों के अतिरिक्त प्रदेश में ख्याल, रम्मत, रासधारी, नृत्य, भवाई, ढाला-मारु, तुर्रा-कलंगी या माच तथा आदिवासी गवरी या गौरी नृत्य नाट्य, घूमर, अग्नि नृत्य, कोटा का चकरी नृत्य, डीडवाणा पोकरण के तेराताली नृत्य, मारवाड़ की कच्ची घोड़ी का नृत्य, पाबूजी की फड़ तथा कठपुतली प्रदर्शन के नाम उल्लेखनीय हैं। पाबूजी की फड़ चित्रांकित पर्दे के सहारे प्रदर्शनात्मक विधि द्वारा गाया जाने वाला गेय-नाट्य है। लोक बादणें में नगाड़ा ढ़ोल-ढ़ोलक, मादल, रावण हत्था, पूंगी, बसली, सारंगी, तदूरा, तासा, थाली, झाँझ पत्तर तथा खड़ताल आदि हैं।

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