राजस्थान पुत्र गर्भा सदा से रहा है। अगर भारत का इतिहास लिखना है तो प्रारंभ निश्चित रुप से इसी प्रदेश से करना होगा। यह प्रदेश वीरों का रहा है। यहाँ की चप्पा-चप्पा धरती शूरवीरों के शौर्य एवं रोमांचकारी घटनाचक्रों से अभिमण्डित है। राजस्थान में कई गढ़ एवं गढ़ैये ऐसे मिलेंगे जो अपने खण्डहरों में मौन बने युद्धों की साक्षी के जीवन्त अध्याय हैं। यहाँ की हर भूमि युद्धवीरों की पदचापों से पकी हुई है।

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प्रसिद्ध अंग्रेज इतिहासविद जेम्स टॉड राजस्थान की उत्सर्गमयी वीर भूमि के अतीत से बड़े अभिभूत होते हुए कहते हैं, “”राजस्थान की भूमि में ऐसा कोई फूल नहीं उगा जो राष्ट्रीय वीरता और त्याग की सुगन्ध से भरकर न झूमा हो। वायु का एक भी झोंका ऐसा नहीं उठा जिसकी झंझा के साथ युद्ध देवी के चरणों में साहसी युवकों का प्रथान न हुआ हो।”

आदर्श देशप्रेम, स्वातन्त्रय भावना, जातिगत स्वाभिमान, शरणागत वत्सलता, प्रतिज्ञा-पालन, टेक की रक्षा और और सर्व समपंण इस भूमि की अन्यतम विशेषताएँ हैं। “”यह एक ऐसी धरती है जिसका नाम लेते ही इतिहास आँखों पर चढ़ आता है, भुजाएँ फड़कने लग जाती हैं और खून उबल पड़ता है। यहाँ का जर्रा-जर्रा देशप्रेम, वीरता और बलिदान की अखूट गाथा से ओतप्रोत अपने अतीत की गौरव-घटनाओं का जीता-जागता इतिहास है। इसकी माटी की ही यह विशेषता है कि यहाँ जो भी माई का लाल जन्म लेता है, प्राणों को हथेली पर लिये मस्तक की होड़ लगा देता है। यहाँ का प्रत्येक पूत अपनी आन पर अड़िग रहता है। बान के लिये मर मिटता है और शान के लिए शहीद होता है।”

राजस्थान भारत वर्ष के पश्चिम भाग में अवस्थित है जो प्राचीन काल से विख्यात रहा है। तब इस प्रदेश में कई इकाईयाँ सम्मिलित थी जो अलग-अलग नाम से सम्बोधित की जाती थी। उदाहरण के लिए जयपुर राज्य का उत्तरी भाग मध्यदेश का हिस्सा था तो दक्षिणी भाग सपालदक्ष कहलाता था। अलवर राज्य का उत्तरी भाग कुरुदेश का हिस्सा था तो भरतपुर, धोलपुर, करौली राज्य शूरसेन देश में सम्मिलित थे। मेवाड़ जहाँ शिवि जनपद का हिस्सा था वहाँ डूंगरपुर-बांसवाड़ा वार्गट (वागड़) के नाम से जाने जाते थे। इसी प्रकार जैसलमेर राज्य के अधिकांश भाग वल्लदेश में सम्मिलित थे तो जोधपुर मरुदेश के नाम से जाना जाता था। बीकानेर राज्य तथा जोधपुर का उत्तरी भाग जांगल देश कहलाता था तो दक्षिणी बाग गुर्जरत्रा (गुजरात) के नाम से पुकारा जाता था। इसी प्रकार प्रतापगढ़, झालावाड़ तथा टोंक का अधिकांस भाग मालवादेश के अधीन था।

बाद में जब राजपूत जाति के वीरों ने इस राज्य के विविध भागों पर अपना आधिपत्य जमा लिया तो उन भागों का नामकरण अपने-अपने वंश अथवा स्थान के अनुरुप कर दिया। ये राज्य उदयपु, डूंगरपुर, बांसवाड़, प्रतापगढ़, जोधपुर, बीकानेर, किशनगढ़, सिरोही, कोटा, बूंदी, जयपुर, अलवर, भरतपुर, करौली, झालावाड़, और टोंक थे। (इम्पीरियल गजैटियर)

इन राज्यों के नामों के साथ-साथ इनके कुछ भू-भागों को स्थानीय एवं भौगोलिक विशेषताओं के परिचायक नामों से भी पुकारा जाता है। ढ़ूंढ़ नदी के निकटवर्ती भू-भाग को ढ़ूंढ़ाड़ (जयपुर) कहते हैं। मेव तथा मेद जातियों के नाम से अलवर को मेवात तथा उदयपुर को मेवाड़ कहा जाता है। मरु भाग के अन्तर्गत रेगिस्तानी भाग को मारवाड़ भी कहते हैं। डूंगरपुर तथा उदयपुर के दक्षिणी भाग में प्राचीन ५६ गांवों के समूह को “”छप्पन” नाम से जानते हैं। माही नदी के तटीय भू-भाग को कोयल तथा अजमेर के पास वाले कुछ पठारी भाग को ऊपरमाल की संज्ञा दी गई है। (गोपीनाम शर्मा / सोशियल लाइफ इन मेडिवियल राजस्थान / पृष्ठ ३)

अंग्रेजों के शासनकाल में राजस्थान के विभिन्न इकाइयों का एकीकरण कर इसका राजपूताना नाम दिया गया, कारण कि उपर्युक्त वर्णित अधिकांश राज्यं में राजपूतों का शासन था। ऐसा भी कहा जाता है कि सबसे पहले राजपूताना नाम का प्रयोग जार्ज टामस ने किया। राजपूताना के बाद इस राज्य को राजस्थान नाम दिया गया। आज यह रंगभरा प्यारा प्रदेश इसी राजस्थान के नाम से जाना जाता है।

यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राजपूताना और राजस्थान दोनों नामों के मूल में “राज’ शब्द मुख्य रुप से उभरा हुआ है जो इस बात का सूचक है कि यह भूमि राजपूतों का वर्च लिये रही और इस पर लम्बे समय तक राजपूतों का ही शासन रहा। इन राजपूतों ने इस भूमि की रक्षा के लिए जो शौर्य, पराक्रम और बलिदान दिखाया उसी के कारण सारे वि में इसकी प्रतिष्ठा सर्वमान्य हुई। राजपूतों की गौरवगाथाओं से आज भी यहाँ की चप्पा-चप्पा भूमि गर्व-मण्डित है।

प्रसिद्ध इतिहास लेखक कर्नल टॉड ने इस राज्य का नाम “रायस्थान’ रखा क्योंकि स्थानीय साहित्य एवं बोलचाल में राजाओं के निवास के प्रान्त को रायथान कहते थे। इसा का संस्कृत रुप राजस्थान बना। हर्ष कालीन प्रान्तपति, जो इस भाग की इकाई का शासन करते थे, राजस्थानीय कहलाते थे। सातवीं शताब्दी से जब इस प्रान्त के भाग राजपूत नरेशों के आधीन होते गये तो उन्होंने पूर्व प्रचलित अधिकारियों के पद के अनुरुप इस भाग को राजस्थान की संज्ञा दी जिसे स्थानीय साहित्य में रायस्थान कहते थे। जब भारत स्वतंत्र हुआ तथा कई राज्यों के नाम पुन: परिनिष्ठित किये गये तो इस राज्य का भी चिर प्रतिष्ठित नाम राजस्थान स्वीकार कर लिया गया। (डॉ. गोपीनाम शर्मा / राजस्थान का सांस्कृतिक इतिहास / राजस्थान हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, जयपुर / प्रथम संस्करण १९८९ / पृष्छ ३)।

भौगोलिक संरचना के समन्वयात्मक सरोकार

अगर इस प्रदेश की भौगोलिक संरचना को देख तो राजस्थान के दो प्रमुख भौगोलिक क्षेत्र हैं। पहला, पश्चिमोत्तर जो रेगिस्तानीय है, और दूसरा दक्षिण-पूर्वी भाग जो मैदानी व पठारी है। पश्चिमोत्तर नामक रेगिस्तानी भाग में जोधपुर, बीकानेर, जैसलमेर और बाड़मेर जिले आते हैं। यहाँ पानी का अभाव और रेत फैली हुई है। दक्षिण-पूर्वी भाग कई नदियों का उपजाऊ मैदानी भाग है। इन नदियों में चम्बल, बनास, माही आदि बड़ी नदियाँ हैं। इन दोनों भागों के बीचोंबीच अर्द्धवर्तीय पर्वत की श्रृंखलाएं हैं जो दिल्ली से शुरु होकर सिरोही तक फैली हुई हैं। सिरोही जिले में अरावली पर्वत का सबसे ऊँचा भाग है जो आबू पहाड़ के नाम से जाना जाता है। इस पर्वतमाला की एक दूसरी श्रेणी अलवर, अजमेर, हाड़ौती की है जो राजस्थान के पठारी भाग का निर्माण करती हैं।

राजस्थान में बोली जाने वाली भाषा राजस्थानी कहलाती है। यह भारतीय आर्यभाषाओं की मध्यदेशीय समुदाय की प्रमुख उपभाषा है, जिसका क्षेत्रफल लगभग डेढ़ लाख वर्ग मील में है। वक्ताओं की दृष्टि से भारतीय भाषाओं एवं बोलियों में राजस्थानी का सातवां स्थान है। सन् १९६१ की जनगणना रिपोर्ट के अनुसार राजस्थानी की ७३ बोलियां मानी गई हैं।

सामान्यतया राजस्थानी भाषा को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। इनमें पहला पश्चिमी राजस्थानी तथा दूसरा पूर्वी राजस्थानी। पश्चिमी राजस्थानी की मारवाड़ी, मेवाड़ी, बागड़ी और शेखावटी नामक चार बोलियाँ मुख्य हैं, जबकि पूर्वी राजस्थानी की प्रतिनिधी बोलियों में ढ़ूंढ़ाही, हाड़ौती, मेवाती और अहीरवाटी है। ढ़ूंढ़ाही को जयपुरी भी कहते हैं।

पश्चिमी अंचल में राजस्थान की प्रधान बोली मारवाड़ी है। इसका क्षेत्र जोधपुर, सीकर, नागौर, बीकानेर, सिरोही, बाड़मेर, जैसलमेर आदि जिलों तक फैला हुआ है। साहित्यिक मारवाड़ी को डिंगल तथा पूर्वी राजस्थानी के साहित्यिक रुप को पिंगल कहा गया है। जोधपुर क्षेत्र में विशुद्ध मारवाड़ी बोली जाती है।

दक्षिण अंचल उदयपुर एवं उसके आसपास के मेवाड़ प्रदेश में जो बोली जाती है वह मेवाड़ी कहलाती है। इसकी साहित्यिक परम्परा बहुत प्राचीन है। महाराणा कुम्भा ने अपने चार नाटकों में इस भाषा का प्रयाग किया। बावजी चतर सिंघजी ने इसी भाषा में अपना उत्कृष्ट साहित्य लिखा। डूंगरपुर एवं बांसवाड़ा का सम्मिलित क्षेत्र वागड़ के नाम से जाना जाता है। इस क्षेत्र में जो बोली बोली जाती है उसे वागड़ी कहते हैं।

उत्तरी अंचली ढ़ूंढ़ाही जयपुर, किशनगढ़, टोंक लावा एवं अजमेर, मेरवाड़ा के पूर्वी अंचलों में बोली जाती है। दादू पंथ का बहुत सारा साहित्य इसी में लिखा गया है। ढ़ूंढ़ाही की प्रमुख बोलियों में हाड़ौती, किशनगढ़ी, तोरावाटी, राजावाटी, अजमेरी, चौरासी, नागरचोल आदि हैं।

मेवाती मेवात क्षेत्र की बोली है जो राजस्थान के अलवर जिले की किशनगढ़, तिजारा, रामगढ़, गोविन्दगढ़ तथा लक्ष्मणगढ़ तहसील एवं भरतपुर जिले की कामा, डीग तथा नगर तहसील में बोली जाती है। बूंदी, कोटा तथा झालावाड़ क्षेत्र होड़ौती बोली के लिए प्रसिद्ध हैं।

अहीरवाटी अलवर जिले की बहरोड़ तथा मुण्डावर एवं किशनगढ़ जिले के पश्चिम भाग में बोली जाती है। लोकमंच के जाने-माने खिलाड़ी अली बख्स ने अपनी ख्याल रचनायें इसी बोली में लिखी।

राजस्थान की इस भौगोलिक संरचना का प्रभाव यहाँ के जनजीवन पर कई रुपों में पड़ा और यहाँ की संस्कृति को प्रभावित किया। अरावली पर्वत की श्रेणियों ने जहाँ बाहरी प्रभाव से इस प्रान्त को बचाये रखा वहाँ यहाँ की पारम्परिक जीवनधर्मिता में किसी तरह की विकृति नहीं आने दी। यही कारम है कि यहाँ भारत की प्राचीन जनसंस्कृति के मूल एवं शुद्ध रुप आज भी देखने को मिलते हैं।

शौर्य और भक्ति की इस भूमि पर युद्ध निरन्तर होते रहे। आक्रान्ता बराबर आते रहे। कई क्षत्रिय विजेता के रुप में आकर यहाँ बसते रहे किन्तु यहां के जीवनमूल्यों के अनुसार वे स्वयं ढ़लते रहे और यहाँ के बनकर रहे। बड़े-बड़े सन्तों, महन्तों और न्यागियों का यहाँ निरन्तर आवागमन होता रहा। उनकी अच्छाइयों ने यहाँ की संस्कृति पर अपना प्रभाव दिया, जिस कारण यहाँ विभिन्न धर्मों और मान्यताओं ने जन्म लिया किन्तु आपसी सौहार्द और भाईचारे ने यहाँ की संस्कृति को कभी संकुचित और निष्प्रभावी नहीं होने दिया।

राजस्थान में सभी अंचलों में बड़े-बड़े मन्दिर और धार्मिक स्थल हैं। सन्तों की समाधियाँ और पूजास्थल  हैं। तीर्थस्थल हैं। त्यौहार और उत्सवों की विभिन्न रंगीनियां हैं। धार्मिक और सामाजिक बड़े-बड़े मेलों की परम्परा है। भिन्न-भिन्न जातियों के अपने समुदायों के संस्कार हैं। लोकानुरंजन के कई विविध पक्ष हैं। पशुओं और वनस्पतियों की भी ऐसी ही खासियत है। ख्यालों, तमाशों, स्वांगों, लीलाओं की भी यहाँ भरमार हैं। ऐसा प्रदेश राजस्थान के अलावा कोई दूसरा नहीं है।

स्थापत्य की दृष्टि से यह प्रदेश उतना ही प्राचीन है जितना मानव इतिहास। यहां की चम्बल, बनास, आहड़, लूनी, सरस्वती आदि प्राचीन नदियों के किनारे तथा अरावली की उपत्यकाओं में आदिमानव निवास करता था। खोजबीन से यह प्रमाणित हुआ है कि यह समय कम से कम भी एक लाख वर्ष पूर्व का था।

यहां के गढ़ों, हवेलियों और राजप्रासादों ने समस्त वि का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है। गढ़-गढ़ैये तो यहाँ पथ-पथ पर देखने को मिलेंगे। यहां का हर राजा और सामन्त किले को अपनी निधि और प्रतिष्ठा का सूचक समझता था। ये किले निवास के लिये ही नहीं अपितु जन-धन की सुरक्षा, सम्पति की रक्षा, सामग्री के संग्रह और दुश्मन से अपने को तथा अपनी प्रजा को बचाने के उद्देश्य से बनाये जाते थे।

बोलियों के लिए जिस प्रकार यह कहा जाता है कि यहां हर बारह कोस पर बोली बदली हुई मिलती हैं – बारां कोसां बोली बदले, उसी प्रकार हर दस कोस पर गढ़ मिलने की बात सुनी जाती है। छोट-बड़ा कोई गढ़-गढ़ैया ऐसा नही मिलेगा जिसने अपने आंगन में युद्ध की तलवार न तानी हो। खून की छोटी-मोटी होली न खेली हो और दुश्मनों के मस्तक को मैदानी जंग में गेंद की तरह न घुमाया हो। इन किलों का एक-एक पत्थर अपने में अनेक-अनेक दास्तान लिये हुए है। उस दास्तान को सुनते ही इतिहास आँखों पर चढञ आता है और रोम-रोम तीर-तलवार की भांति अपना शौर्य लिये फड़क उठता है।

शुक नीतिकारों ने दुर्ग के जिन नौ भेदों का उल्लेख किया है वे सभी प्रकार के दुर्ग यहां देखने को मिलते हैं। इनमें जिस दुर्ग के चारों ओर खाई, कांटों तथा पत्थरों से दुर्गम मार्ग बने हों वह एरण दुर्ग कहलाता है। चारों ओर जिसके बहुत बड़ी खाई हो उसे पारिख दुर्ग की संज्ञा दी गई हैं। एक दुर्ग पारिख दुर्ग कहता है जिसके चारो तरफ ईंट, पत्थर और मिट्टी की बड़ी-बड़ी दिवारों का विशाल परकोटा बना हुआ होता है। जो दुर्ग चारों ओर बड़े-बड़े कांटेदार वृक्षों से घिरा हुआ होता है वह वन दुर्ग ओर जिसके चारों ओर मरुभूमि का फैलाव हो वह धन्व दुर्ग कहलाता है।

इसी प्रकार जो दुर्ग चारों ओर जल से घिरा हो वह जल दुर्ग की कोटि में आता है। सैन्य दुर्ग अपने में विपुल सैनिक लिये होता है जबकि सहाय दुर्ग में रहने वाले शूर एवं अनुकूल आचरण करने वाले लोग निवास करते हैं। इन सब दुर्गों में सैन्य दुर्ग सर्वश्रेष्ठ दुर्ग कहा गया है।

“”श्रेष्ठं तु सर्व दुर्गेभ्य: सेनादुर्गम: स्मृतं बुद:।”

राजस्थान का चित्तौड़ का किला तो सभी किलों का सिरमौर कहा गया है। कुम्भलगढ़, रणथम्भौर, जालौर, जोधपुर, बीकानेर, माण्डलगढ़ आदि के किले देखने से पता चलता है कि इनकी रचना के पीछे इतिहास, पुरातत्व, जीवनधर्म और संस्कृति के कितने विपुल सरोकार सचेतन तत्व अन्तर्निहित हैं।

यही स्थिति राजप्रासादों और हवेलियों की रही है। इनके निर्माण पर बाहर से आने वाले राजपूतों तथा मुगलों की संस्कृति का प्रभाव भी स्पष्टता: देखने को मिलता है। बूंदी, कोटा तथा जैसलमेर के प्रासाद मुगलसैली से प्रभावित हैं, जबकि उदयपुर का जगनिवास, जगमन्दिर, जोधपुर का फूलमहल, आमेर व जयपुर का दीवानेखास व दीनानेआम, बीकानेर का रंगमहल, शीशमहल आदि राजपूत व मुगल पद्धति का समन्व्य लिये हैं। मन्दिरों के स्थापत्य के साथ भी यही स्थिति रही। इन मन्दिरों के निर्माण में हिन्दू, मुस्लिम और मुगल शैली का प्रभाव देखकर उस समय की संस्कृति, जनजीवन, इतिहास और शासन प्रणाली का अध्ययन किया जा सकता है।

आबू पर्वत पर ४००० फुच की ऊँचाई पर बसे देलवाड़ा गाँव के समीप बने दो जैन मन्दिर संगमरमर के प्रस्तरकला की विलक्षण जालियों, पुतलियों, बेलबूटों और नक्काशियों के कारण सारे वि के महान आश्चर्य बने हुए हैं। प्रख्यात कला-पारखी रायकृष्ण दास इनके सम्बन्ध में अपना विचार प्रकट करते हुए लिखते हैं –

संगमरमर ऐसी बारीकी से तराशा गया है
कि मानो किसी कुशल सुनार ने रेती से
रेत-रेत कर आभूषण बनाये हो। यहां पहुंचने
पर ऐसा मालूम होता है कि स्वप्न के
अद्भूत लोक में आ गये हैं। इनकी सुन्दरता
ताज से भी कहीं अधिक है।

इसी प्रकार जोधपुर का किराड़ मन्दिर, उदयपुर का नागदा का सास-बहू का मन्दिर, अर्घूणा का जैन मन्दिर, चित्तौड़ का महाराणा कुम्बा द्वारा निर्मित कीर्तिस्तम्भ, रणकपुर का अनेक कलात्मक खम्भों के लिये प्रसिद्ध जैन मन्दिर, बाड़मेर का किराडू मन्दिर स्थापत्य कला के उत्कृष्ट उदाहरण हैं। हवेली स्थापत्य की दृष्टि से रामगढ़, नवलगढ़, फतेहपुर की हवेलियां देखते ही बनती हैं। जैसलमेर की पटवों की हवेली तथा नथमल एवं सालमसिंह की हवेली, पत्थर की जाली एवं कटाई के कारण विश्वप्रसिद्ध हो गई। हवेली शैली के आधार पर यहां के वैष्णव मन्दिर भी बड़े प्रसिद्ध हैं। इन हवेलियों के साथ-साथ यहां के हवेली संगीत तथा हवेली-चित्रकला ने बी सांस्कृतिक जगत में अपनी अनूठी पहचान दी है।

चित्रकला की दृष्टि से भी राजस्थान अति समृद्ध है। यहाँ विभिन्न शैलियों के चित्रों का प्रचुर मात्रा में सजृन किया गया। ये चित्र किसी एक स्थान और एक कलाकार द्वारा निर्मित नहीं होकर विभिन्न नगरों, राजधानियों, धर्मस्थलों और सांस्कृतिक प्रतिष्ठानों की देन हैं। राजाओं, सामन्तों, जागीरदारों, श्रेष्ढीजनों तथा कलाकारों द्वारा चित्रकला के जो रुप उद्घाटित हुए वे अपने समग्र रुप में राजस्थानी चित्रकला के व्यापक परिवेश से जुड़े किन्तु कवियों, चितासे, मुसव्विरों, मूर्तिकारों, शिल्पाचार्यों आदि का जमघट दरबारों में होने के कारण राजस्थानी चित्रकला की अजस्र धारा अनेक रियासती शैलियों, उपशैलियों को परिप्लावित करती हुई १७वीं-१८वीं शती में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंची। अधिकांश रियासतों के चित्रकारों ने जिन-जिन तौर-तरीकों के चित्र बनाए, स्थानानुसार अपनी परिवेशगत मौलिकता, राजनैतिक सम्पर्क, सामाजिक सम्बन्धों के कारण वहां की चित्रशैली कहलाई।

डॉ. जयसिंह “नीरज’ ने राजस्थानी चित्रकला को चार प्रमुख स्कूलों में विभाजिक करते हुए उसका  मेवाड़ स्कूल , मारवाड़ स्कूल , ढ़ूंढ़ाड़ स्कूल; और हड़ौती स्कूल नाम दिया।

मेवाड़ स्कूल की चित्रकला में राजस्थानी चित्रकला का प्रारम्भिक और मौलिक स्वरुप देखने को मिलता है। महाराणा प्रताप की राजधानी चावण्ड में चित्रकला का जो विशिष्ट रुप उजागर हुआ वह चावण्डशैली के नाम से जाना गया। बहुप्रसिद्ध रागमाला के चित्र चावण्ड में ही बनाये गये। इसके बाद महाराना उदयसिंह ने जब उदयपुर को अपनी राजधानी बनाया तब यहां जो चित्रशैली समृद्ध हुई वह उदयपुरशैली कहलाई। इस शैली में सूरसागर, रसिकप्रिया, गीतगोविन्द, बिठारी सतसई आदि के महत्वपूर्ण चित्र बनाये गये। विभिन्न राग-रागिनियों तथा महलों के भित्तिचित्र भी इस शैली की विशिष्ट देन हैं।

सन् १६७० में जब श्रीनाथ जी का विग्रह नाथद्वारा में प्रतिष्ठित किया गया तो उनके साथ ब्रज की चित्र परम्परा भी यहां विरासत में आई। यहां उदयपुर और ब्रज की चित्रशैली के समन्वय ने एक नई शैली के नाम से जानी गयी। इस शैली में श्रीनाथ जी के स्वरुप के पीछे सज्जा के लिए कपड़े पर बने पिछवाई चित्र सर्वाधिक चर्चित हुए।

मारवाड़ स्कूल में जो शैली विकसित हुई वह जोधपुर, बीकानेर और किशनगढ़ शैली के नाम से प्रचलित हुई। किशनगढ़ शैली में बणीठणी के चित्र ने बड़ा नाम कमाया। बीकानेर शैली के प्रारम्भिक चित्रों में जैन यति मथेरणों का प्रभाव रहा। बाद में मुगल दरबार से जो उस्ता परिवार आया उसने यहां के संस्कृत, हिन्दी एवं राजस्थानी काव्यों को आधार बनाकर र्तृकड़ों चित्र बनाये। इनमें हिस्सामुद्दीन उस्ता ऊँट की खाल पर विशेष पद्धति से चित्रण कार्य करके ख्याति प्राप्त कर चुके हैं।

हाड़ौती अंचल में प्रमुखत: बूंदी, कोटा तथा झालावाड़ अपना विशेष कला प्रभाव लिये हैं। बूंदी के राव छत्रसाल ने रंगमहल का निर्माण करवाकर उसे बड़े ही कलात्मक भित्तिचित्रों से अलंकृत करवाया। इस शैली में कई ग्रन्थ चित्रण और लघु चित्रों का निर्माण हुआ। कोटा के राजा रामसिंह ने कोटा शैली को स्वतन्त्र अस्तित्व दिलाने का भागीरथ कार्य किया। उनके बाद महारावल भीमसिंह ने कृष्णभक्ति को विशेष महत्व दिया तो यहां की चित्रकला में वल्लभ सम्प्रदाय का बड़ा प्रभाव आया। जयपुर और उसके आसपास की चित्रकला को ढ़ूंढ़ाड़ स्कूल के नाम से सम्बोधित किया गया। इस स्कूल में आमेर, जयपुर, अलवर, शेखावटी, उणियारा, करौली आदि चित्रशैलियों का समावेश किया जा सकता है।

सांस्कृति पृष्ठबूमि के पोषक तत्व

राजस्थान के लोक संगीत ने विभिन्न अवसरों पर, वार त्यौहारों तथा अनुरंजनों पर स्वस्थ लोकानुरंजन की सांस्कृतिक परम्पराओं को जीवन्त परिवेश दिया है। विभिन्न अंचलों का लोकगीत और संगीत अपने भौगोलिक वातावरण और सांस्कृतिक हलचल के कारण अपनी निजी पहचान लिये है। इसीलिये एक ही गीत को जब अलग-अलग अंचलों के कलाकार गाते हैं तो उनके अलाप, मरोड़, ठसक और गमक में अन्तर दिखाई पड़ता है। यह अन्तर मारवाड़, मेवाड़, हाड़ौती, ढ़ूंढ़ड़ी, मेवाती आदि अंचलों के भौगोलिक रचाव-पचाव, रहन-सहन, खान-पान, बोलीचाली आदि सभी दृष्टियों की प्रतीति लिये देखा जा सकता है।

उदाहरण के लिये गणगौर पर जो घूमर गीत गाये जाते हैं उनकी गायन शैली सभी अंचलों में भिन्न-भिन्न रुप लिये मिलती है। यही स्थिति मांड गायिकी की कही जा सकती है। इस गायिकी में बीकानेर की श्रीमती अल्लाजिलाई बाई ने विशेष पहचान बनाई है। भजन के क्षेत्र में लोकगायिका सोहनीबाई ने बड़ी प्रसिद्धि ली। जैसलमेर, बाड़मेर के मांगणियारों ने अपने लोक संगीत द्वारा सारे वि में राजस्थान को गूंजा दिया। नड़, पुंगी, सतारा, मोरचंग, खड़ताल, मटकी, सारंगी, कामायचा, रावणहत्था आदि जंतर वाद्य इस क्षेत्र के कलाकार जिस गूंज के साथ बजाते हैं वैसी गूंज अन्य कोई कलाकार नहीं दे पाते। ये कलाकार अपनी ढ़गतियों और झूंपों से गीत-संगीत को लेकर दुनियां की परिक्रमा कर आये। अपने दोनों हाथों में दो-दो लकड़ी के टुकड़ो को टकरा कर संगीत की अद्भुत प्रस्तुति देने वाले खड़ताली कलाकार सिद्दीक ने जहां भी अपने कार्यक्रम दिये वहां जादू ही जादू भर दिया। दो जून की जुगाड़ नहीं करने वाले इस कलाकार को जब पद्मश्री मिली तो वह हक्का-बक्का रह गया। ऐसी ही ख्याति यहां के हिचकी, गोरबंद, पणिहारी, आलू, कुरजा, इडोणी, मूमल, कंगसिया, लूर, काजलिया, कागा गीत गाने वाले कलाकारों ने प्राप्त की।

जैसलमेर के कारण भील ने देश-भक्त डाकू के साथ-साथ अपने नड़ वारन में उतनी ही ख्याति अर्जित की। उदयपुर के दयाराम ने भवाई नृत्य में जो कमाल दिखाया उसके कारण स्वंय दयाराम ही भवाई का प्रतीक बन गया। कठपुतली नचाने में भी यह कलाकार बड़ सिद्धहस्त था। रुमानिया के तृतीय अन्तर्राष्ट्रीय कठपुतली समारोह में इस कलाकार ने भारतीय लोककला मण्डल की ओर से भाग लिया और वि का सर्वोच्च पुरस्कार हासिल किया। यह कठपुतली कला इसी प्रदेश की देन कही जाती है।

उदयपुर में गणगौर उत्सव बड़ा प्रसिद्ध रहा है। इसे देखने दूर-दूर तक के लोग आते है। महाकवि पद्माकर भी इस मौके पर यहां आये और इस उत्सव को देख दो छन्द लिखे जिनमें –

“”गौरन की कौनसी हमारी गणगौर है”

छन्द बहुत लोकप्रिय हुआ। महाराणा सज्जनसिंह ने गणगौर पर नाव की सवारी प्रारम्भ की। इसका गीत आज भी यहाँ गणगौर के दिनों में गूंजता हुआ मिलता है।

हेली नाव री असवारी
सज्जन राण आवे छै।

बीकानेर की ढ़ड्ढ़ो की गणगौर जितनी कीमती आभूषणों से सुसज्जित होती है उतनी किसी प्रान्त की कोई गणगौर नहीं सजती। कोटा का दशहरा और सांगोद का न्हाण आज भी बहुत प्रसिद्ध हैं।

उदयपुर संभाग के आदिवासी भीलों की गवरी नृत्य दिनकर का धार्मिक अनुष्ठान है। इसमें कई तरह के बड़े ही मजेदार स्वांग-दृश्य और खेल-तमाशे दिखाये जाते हैं। प्रतिदिन अलग-अलग स्थानों पर पूरे सवा माह उनका प्रदर्शन होता है। यह प्रदर्शन रक्षा बन्धन के ठीक दूसरे दिन प्रारम्भ हो जाता है।

राम लीलाओं और कृष्ण लीलाओं के यहां कई दल हैं जो कई-कई दिनों तक पड़ाव डालकर जनता का मनोरंजन करते हैं। ऐसे ही दल ख्यालों के हैं जो मेलों ड़ेलों तथा अन्य अवसरों पर शत-शत भर ख्याल-तमाशे करते हैं। नौटंकी, तुर्राकलंगी, अलीबख्शी, मारवाड़ी तथा चिड़ावी, शेखावटी ख्यालों की यहां अच्छी मण्डलियां विद्यमान हैं।

बीकानेर, जैसलमेर की ओर रम्मत ख्यालों के बड़े अच्छे अखाड़े हैं। होली के दिनों में बीकानेर का हर मुहल्ला रम्मतों के रंगों में सराबोर रहता है। जैसलमेर में किसी समय तेज कवि के ख्यालों की बड़ी धूम थी। बागड़ की और मावजी की भक्ति में साद लोग लीला ख्यालों का मंचन करते हैं।

ऐसी ही एक प्रसिद्ध मेला बांसवाड़ा जिले में घोटियाआंबा नामक स्थान पर भरता है। कहते हैं कि यहां इन्द्र ने गुठली बोई सो आमवृक्ष फल। कृष्ण की उपस्थिति में यहां ८८ हजार ॠषियों को आम्ररस का भोजन कराया गया। इस स्थान पर पाण्डव रहे।

जोधपुर-जैसलमेर के बीच रुणेचा में रामदेवजी का बड़ा भारी मेला लगता है। इस मेले में रामदेवजी को मानने वाले मुख्यत: छोटी जातियों के लोग बड़ी संख्या में भाग लेगे हैं। गोगामेड़ी में लोक देवता गोगाजी और पखतसर में तेजाजी का मेला बहुत प्रसिद्ध है। करौली का केलादेवी का मेला लांगुरिया गीतों से दूर-दूर तक अपनी पहचान देता हुआ पाया जाता है। पुष्कर का धार्मिक मेला पौराणिक काल से ही चला आ रहा है। डूंगरपुर जिले की आसपुर पंचायत समिति का साबंला गांव मावजी की जन्म स्थली रहा है। इसी के पास बैणेश्वर नामक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है जहां माघ पूर्णिमा को सन्त मावजी की स्मृति में मेला भरता है। यह मेला आदिवासियों का बड़ा ही धार्मिक मेला है जो राजस्थान का कुम्भ भी कहा जाता है। यहां सोम, माही व जाखम नदियों का त्रिवेणी संगम है। मावजी ने यहां तपस्या की थी।

यहां के पहनावे ने भी अपनी संस्कृति को एक भिन्न रुप में प्रस्तुत किया है। पुरुषों के सिर पर बांधी जाने वाली पाग में ही यहां कई रुप-स्वरुप और रंग-विधान देखने को मिलते हैं। पगड़ी को लेकर कुछ घटनायें तो इतिहास की अच्छी खासी दास्तान बनी हुई हैं। पगड़ी की लाज रखना, पगड़ी न झुकाना, पदड़ी पांव में रखना जैसे कई मुहावरे पगड़ी के महत्व को प्रकट करते हैं।

नारियों के परिधान कई रुपों में देखने को मिलते हैं। अलग-अलग पहनावे, अलग-अलग जातियों के सूचक हैं। ये पहनावे कई भावों, छापों, रंगों और बांधनियों के कारण प्राचीनकाल से ही बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। वर्तमान में भी आकोला, सांगानेर, बगरु, बाड़मेर आदि की छपाई के परिधान न केवल भारत में अपितु विदेशी बाजार में भी सबको लुभाते देखे गये हैं। इन परिधारों में जो चित्राकृतियाँ उभारी जाती हैं उनकी समानता सांझी चित्रों में भी देखने को मिलता हैं।

महिलाओं के पहनावे बड़ी विविधता लिये हैं। कई तरह की चूंदड़े, भांति-भांति के घाघरे और रंग बिंरंगी कांचलियों के कारण यहां की जातियों की पहचान बनी हुई है। मौसम और ॠतुओं के साथ-साथ विशिष्ट वार-त्यौहार और संस्कार पर ये पहनावे इन्द्रधनुष की विशिष्ट रंगावलियों में अपनी छवि देते दृष्टिगोचर होते हैं। घाघरों में अस्सी-अस्सी कलियों तक के घाघरे प्रचलित रहे हैं। इन कलियों में जो घेर डाले जाते हैं उन्हें पहनकर जो घूमर ली जाती है उसी के कारण यहां घूमर के रुप में नाच की एक विधा विकसित हो गई।

तात्पर्य यह है कि इस क्षेत्र के निवासियों ने अपने अभावों में और घोर गरीबी में भी अपने आपको कभी कला और संस्कृति विहीन नहीं होने दिया। गीतों, गाथाओं, कथाओं, नृत्यों, चित्रों और विविध अनुरंजनों के माध्यम से उसने अपने को सदा उल्लासमय बनाये रखा।

अपने घर को, आंगन को, खेत-खलिहान को और स्वयं अपने को सजाने की उसकी दृष्टि आदिमकाल से ही रुचि सम्पन्न नाना कलाओं में समृद्ध रही। अपने शरीर के अंग-प्रत्यंग को सजाने में उसने कई प्रसाधन खोज निकाले। पुरुष जहां अपनी दाढ़ी को सजाता है और चिलम को कलामय बनाता है वहां स्री अपने केश विन्यास और कांगसी तक को कला के कई रुपों में आंकती हुई जीवन को अधिकाधिक सरस बनाती है।

 

 

 

 

 

 

 

 

 

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