राजस्थान प्रदेश में राष्ट्रीय उध्यान व वन्य जीव अभ्यारण्य

राष्ट्रीय उध्यान

केवलादेव (घाना) राष्ट्रीय उद्यान (भरतपुर) –

DSC_0036केवलादेव नेशनल पार्क, ये जगह कभी राजा-महराजाओं की शैरगाह, व शूटिंग ग्राउंड हुआ करती थी, सन १९५६ में इसे पक्षी विहार का दर्जा हासिल हुआ, और भारत सरकर ने  1971  में इसे पूर्ण सरंक्षित वन्य क्षेत्र घोषित किया। वैसे भरतपुर राजपरिवार के लोगों को वन्य-जीव अधिनियम १९७२ के बनने तक इस पक्षी विहार में पक्षियों का कत्ल करने की इजाजत मिली हुई थी। यह पक्षी विहार आज से लगभग २५० वर्ष पूर्व अस्तित्व में आया, इस वेटलैंड के निर्माण व संवंर्धन का मकसद मात्र शिकार के लिए हुआ, जहां भारत के विदेशी शासकों को आमंत्रित किया जाता था, अपनी प्राकृतिक संपदा के दामन को बारूद से दागदार कराने के लिए! भरतपुर के महाराजा सूरजमल (१७२६ से १७६३) ने बनगंगा व गम्भीर नदियों के संगम पर एक बांध का निर्माण कराया।

DSC_0048 जिसकी वजह से यह प्राकृतिक स्थल जलमग्न होने लगा और इस पथरीली जमीन पर हरियाली फ़ैल गयी, नतीजतन पक्षियों की यह पसंदीदा जगह बनी, खासतौर से जलीय पक्षियों की। यहां भरतपुर के महाराजा द्वारा प्रत्येक वर्ष भारत के वायसराय के सम्मान में शिकार का आयोजन बड़ी धूमधाम से किया जाता था। इस जगह पर खूबसूरत पक्षियों को लार्ड कर्जन से लेकर लार्ड लिंलिथिगो ने अपनी बन्दूकों से हजारों पक्षियों को मार गिराने का निकृष्ट कार्य किया,  जिसे बड़े गर्वीलेपन के साथ हमारे भारतीय राजाओं ने इस पक्षी विहार में पत्थरों में अंकित किया है, कि उनके किस गोरी चमड़ी वाले विदेशी मेहमान, या विदेशी शासक ने उनकी जमीन पर उनकी संपत्ति पर भरण पोषण करने वाले इन सुन्दर निरीह जीवों का कत्लेआम किया। अपने ही दामन पर विदेशी बारूद से सुराक कराने वाले राजा-महराजाओं की यह शर्मसार कर देने वाली कहानियां अंकित है शिलालेखों पर!,  भरतपुर के इस पक्षी बिहार में, जहाँ आज हजारों की तादाद में ये रंग-बिरंगे देशी-विदेशी पक्षी अपना पसंदीदा घर मानते है, जिन्हे शायद यह नही मालूम कि उनके पूर्वजों की मौत की कहानी यहां बड़े बड़े पत्थरों पर बड़ी शान से कुरेदी गयी!   

Bharatpurसन १९०२ से सन १९६४ई० तक की पक्षियों के कत्लेआम की फ़ेहरिस्त यहां मौजूद है, बड़े बड़े शिला-लेखों पर, कहते है सलीम अली साहब ने सन १९६४ में यहां पर शिकार पर प्रतिबंध लगवाया! इस दौरान एक शिकार के दौरान सबसे अधिक ४२७३ पक्षियों का कत्ल किया गया, जिसे अंजाम देने वाला व्यक्ति था, भारत का तत्कालीन वायसराय लार्ड लिंलिथिगो(१९३८)! यहां राजकुमारों के जन्मदिवसों पर हजारों चिड़ियों की जान पर बन आती थी, निर्दयता की यह करूण कहानी थी हमारे उस भारत के दौरान!

Starling सन १९८१ में भरतपुर पक्षी विहार का नाम केवलादेव नेशनल पार्क में परिवर्तित किया गया, और इसे पूर्ण सरंक्षित क्षेत्र का दर्जा प्राप्त हुआ। केवलादेव नाम पड़ने की पीछे कारण हैं, इस सेंक्चुरी के अन्तर्गत मौजूद भगवान शिव का मन्दिर जिनका एक नाम है "केवलादेव"।

सन १९८५ में UNESCO द्वारा इसे World Heritage Site का दर्जा प्राप्त हुआ। आज पूरी दुनिया में भरतपुर अपनी पक्षी वोविधता के लिए मशहूर है।  २९ वर्ग किलोमीटर में फ़ैला यह सरंक्षित क्षेत्र भारत में एक मात्र स्थान था, जहां साइबेरियन क्रेन आया करती थी, और दुनिया में तीसरा। किन्तु सन २००१ के बाद यहां साइबेरियन क्रेन नही आती। वजह हजारों मील की यात्रा के दौरान पड़ने वाले पड़ाओं का मानव द्वारा विनाश, और इन खूबसूरत पक्षियों का शिकार, जिस वजह से सन २००१ के बाद ये अपने गतंव्य तक आजतक नही पहुंच पाये।

Greylag-Gooseसन २००१ में बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री द्वारा आयोजित IBCN Workshop में केवलादेव नेशनल पार्क में मैं इस वर्कशाप का हिस्सा था। उस दौरान मुझे एक जोड़ा साइबेरियन क्रेन देखने का अवसर प्राप्त हुआ था। मैं और मेरे तमाम साथी आखिरी गवाह बन गये थे इस पक्षी की आमद की, इसके बाद फ़िर कभी यह पक्षी भरतपुर में नही देख गया।

केवलादेव घाना में पक्षियों की कुल ३८० प्रजातियां पायी जाती हैं, जिनमें २१८ प्रजातियां विदेशी पक्षियों की हैं, चीन, योरोप, रूस, व पश्चिम एशिया के भू-भागों से यहां आती हैं। १६२ प्रजातियां स्थानीय हैं जो पूरे वर्ष केवलादेव घाना में ही रहती है। यहां के नम-भूमिं व सुन्दर उपवन में मानसून के दिनों १७ प्रजातियां अपने घोसले बनाती हैं, १०,००० से १५,००० घोसलें इन पक्षियों के देखे जा सकते हैं। प्रत्येक वर्ष ३०,००० से ४०,००० चूजें इस प्रजनन स्थल पर अण्डों से निकलते हैं।

रणथम्भौर राष्ट्रीय उद्यान (सवाई माधोपुर) – रणथम्भौर राष्ट्रीय अभ्यारण्य अपनी खूबसूरती, विशाल परिक्षेत्र और बाघों की मौजूदगी के कारण विश्व प्रसिद्ध है। अभ्यारण्य के साथ साथ यहां का ऐतिहासिक दुर्ग भी पर्यटकों को अपनी ओर आकर्षित करता है। लंबे समय से यह नेशनल पार्क और इसके नजदीक स्थित रणथंभौर दुर्ग पर्यटकों को विशेष रूप से प्रभावित करता है।

Ranthambore_National_Parkरणथम्भौर राष्ट्रीय अभ्यारण्य उत्तर भारत के सबसे बड़ा राष्ट्रीय अभ्यारण्यों में से एक है। इस अभ्यारण्य का निकटतम एयरपोर्ट कोटा है जो यहां से केवल 110 किमी की दूरी पर स्थित है जबकि जयपुर का सांगानेर एयरपोर्ट 130 किमी की दूरी पर है। राजस्थान के दक्षिण पूर्व में स्थित यह अभ्यारण्य सवाईमाधोपुर जिले में स्थित है जो मध्यप्रदेश की सीमा से लगता हुआ है। अभ्यारण सवाईमाधोपुर शहर से के रेल्वे स्टेशन से 11 किमी की दूरी पर है। सवाईमाधोपुर रेल्वे स्टेशन से नजदीकी जंक्शन कोटा है जहां से मेगा हाइवे के जरिए भी रणथंभौर तक पहुंचा जा सकता है।

रणथंभौर को भारत सरकार ने 1955 में सवाई माधोपुर खेल अभ्यारण्य के तौर पर स्थापित किया था। बाद में देशभर में बाघों की की घटती संख्या से चिंतित सरकार ने इसे 1973 में प्रोजेक्ट टाइगर अभ्यारण्य घोषित किया और बाघों के संरक्षण की कवायद शुरू की। इस प्रोजेक्ट से अभ्यारण्य और राज्य को लाभ मिला और रणथंभौर एक सफारी पर्यटन का प्रमुख केंद्र बन गया। इसके चलते 1984 में रणथंभौर को राष्ट्रीय अभ्यारण्य घोषित कर दिया गया। 1984 के बाद से लगातार राज्य के अभ्यारण्यों और वन क्षेत्रों को संरक्षित किया गया। वर्ष 1984 में सवाई मानसिंह सेंचुरी और केवलादेव सेंचुरी की घोषणा भी की गई। बाद में इन दोनो नई सेंचुरी को भी बाघ संरक्षण परियोजना से जोड़ दिया गया।

Tigerबाघों की लगातार घटती संख्या ने सरकार की आंखें खोल दी और लम्बे समय से रणथंभौर अभ्यारण्य में चल रही शिकार की घटनाओं पर लगाम कसी गई। स्थानीय बस्तियों को भी संरक्षित वन क्षेत्र से धीरे धीरे बाहर किया जाने लगा। बाघों के लापता होने और उनकी चर्म के लिए बाघों का शिकार किए जाने के मामलों ने देश के चितंकों को झकझोर दिया था। कई संगठनों ने बाघों को बचाने की गुहार लगाई और वर्ष 1991 के बाद लगातार इस दिशा में प्रयास किए गए। बाघों की संख्या अब भी बहुत कम है और अभ्यारण्यों से अभी भी बाघ लापता हो रहे हैं। ऐसे में वन विभाग को चुस्त दुरूस्त को होना ही है, साथ ही हाईटेक होने की भी जरूरत है।

रणथंभौर वन्यजीव अभयारण्य दुनियाभर में बाघों की मौजूदगी के कारण जाना जाता है और भारत में इन जंगल के राजाओं को देखने के लिए भी यह अभ्यारण्य सबसे अच्छा स्थल माना जाता है। रणथम्भौर में दिन के समय भी बाघों को आसानी से देखा जा सकता है। रणथम्भौर अभ्यारण्य की यात्रा करने का सबसे अच्छा समय नवंबर और मई के महीने हैं। इस शुष्क पतझड़ के मौसम में जंगल में विचरण करते बाघ आसानी से दिखाई देते हैं और उन्हें पानी के स्रोतों के आस पास देखा जा सकता है। रणथम्भौर के जंगल भारत के मध्यक्षेत्रीय शानदार जंगलों का एक हिस्सा थे। लेकिन बेलगाम वन कटाई के चलते भारत में जंगल तेजी से सीमित होते चले गए और यह जंगल मध्यप्रदेश के जंगलों से अलग हो गया।

banner1रणथम्भौर राष्ट्रीय अभ्यारण्य हाड़ौती के पठार के किनारे पर स्थित है। यह चंबल नदी के उत्तर और बनास नदी के दक्षिण में विशाल मैदानी भूभाग पर फैला है। अभ्यारण्य का क्षेत्रफल 392 वर्ग किमी है। इस विशाल अभ्यारण्य में कई झीलें हैं जो वन्यजीवों के लिए अनुकूल प्राकृतिक वातावरण और जलस्रोत उपलब्ध कराती हैं। रणथंभौर अभ्यारण्य का  नाम यहां के प्रसिद्ध रणथम्भौर दुर्ग पर रखा गया है।

रणथम्भौर को बाघ संरक्षण परियोजना के तहत जाना जाता है और यहां बाघों की अच्छी खासी संख्या भी है। समय समय पर जब यहां बाघिनें शावकों को जन्म देती हैं। तो ऐसे अवसर यहां के वन विभाग ऑफिसरों और कर्मचारियों के लिए किसी उत्सव से कम नहीं होते। खैर, इस अभ्यारण्य को बाघों को अभ्यारण्य कहा जाता है लेकिन यहां बड़ी संख्या में अन्य वन्यजीवों की मौजूदगी भी है। इनमें तेंदुआ, नील गाय, जंगली सूअर, सांभर, हिरण, भालू और चीतल आदि शामिल हैं। यह अभ्यारण्य विविध प्रकार की वनस्पति, पेड पौधों, लताओं, छोटे जीवों और पक्षियों के लिए विविधताओं से भरा घर है। रणथम्भौर में भारत का सबसे बड़ा बरगद भी एक लोकप्रिय स्थल है।

राष्ट्रीय मरु उद्यान (जैसलमेर बाड़मेर) – क्षेत्रफल की दृष्टि से राज्य का सबसे बड़ा राष्ट्रीय उद्यान है. जो 3162 वर्ग किलो० में फेला है. (1900 वर्ग किलो० जैसलमेर ओर 1262 वर्ग किलो० बाड़मेर में). इसे 1980 में वन्य जीव अभयारण्य घोषित किया गया यहाँ मरुदभिद प्रकृति की वनस्पति पाई जाती है. सेवण घास यहाँ रेतीली क्षेत्र व रेत के टिब्बो पर सबसे अधिक पाई जाती है. गोडावण इस क्षेत्र में प्रजनन करते है. आकलवुड फॉसिल पार्क इसी में स्थित पार्क है जहाँ लाखो वर्ष पूर्व के सागरीय जीवन के जीवाश्म तथा काष्ट जीवाश्म पाए गए है. इसमें भालू, भेडिया, सियार, लोमड़ी, कृष्ण मृग, नीलगाय गिद, बाज आदि पाये जाते है.

वन्य जीव अभ्यारण्य

सरिस्का अभ्यारण्य (अलवर) :  इसको बाघों का घर कहा जाता है. पीली किताब –अलवर रियासत के अंतिम शासक महाराजा सवाई तेजसिंह (1937-48) के शासनकाल में बनाई गई फोरेस्ट सेटलमेंट रिपोर्ट को पीली किताब कहा जाता है. लोकदेवता भर्तृहरि की तपोस्थल सरिस्का अभ्यारण्य के पास स्थित है. आज़ादी के बाद 1958 में भारत सरकार ने इसे वन्यजीव अभयारण्य घोषित किया और 1979 में इसे प्रोजेक्ट टाईगर के अधीन लाया गया। यह अभयारण्य हरे कबूतरों के लिए प्रसिद्ध है. राजस्थान के अलवर ज़िले में अरावली की पहाड़ियों पर 800 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैला सरिस्का मुख्य रूप से वन्य जीव अभयारण्य और टाइगर रिजर्व के लिए प्रसिद्ध है। 8वीं से 12वीं शताब्दी के दौरान यहाँ के अमीरों ने अनेक मंदिरों का निर्माण करवाया। सरिस्का वन्यजीव अभयारण में पूरे साल सैलानियों की भीड़ लगी रहती है।


कुम्भलगढ़ अभयारण्य (उदयपुर-राजसमंद-पाली) : भेडियों ओर जंगली मुर्गो के लिए प्रसिद्ध है.चार सींगो वाला मृग ‘चौसिंगा’ जिसे स्थानीय बोलचाल में घण्टेल कहते है. इसे 1971 में वन्य जीव अभयारण्य घोषित किया गया . यह विश्व का एकमात्र ऐसा हिरण है जिसके नर के चार सींग  होते है. यह केवल भारत में हि पाया जाता है. इसका क्षेत्रफल 608 किमी है. बनास नदी का उदगम स्थल यही अभयारण्य है.रणकपुर (पाली) के जैन मन्दिर इसी में आते है. कुम्भलगढ दुर्ग जो महाराजा कुम्भा के समय बनाया गया, वो भी इसी में है.

आबू अभयारण्य (माउन्ट आबू, सिरोही) : इसका क्षेत्रफल 112 वर्ग किलोमीटर में है. इसे 1960 में वन्य जीव अभयारण्य घोषित किया गया. राज्य का सर्वाधिक ऊंचाई पर स्थित यह अभयारण्य जंगली मुर्गो के लिए विख्यात है. इसी में राजस्थान की सबसे ऊँची चोटी गुरू शिखर स्थित है.

दर्रा अभयारण्य (कोटा-झालावाड) – इसका क्षेत्रफल 274 वर्ग किलोमीटर में है. यह अभयारण्य विन्ध्याचल पर्वत श्रृंखला सम्बंधित मुकन्दरा अथवा दर्रा पहाड़ियों जो पश्चिम दिशा में रावतभाटा से कालीसिंध नदी को गागरोन किले के पास पार करती है, में फेला है. इसे 1955 में वन्य जीव अभयारण्य घोषित किया गया इसमें धोकडा वनस्पति पाई जाती है.यह मुम्बई-जयपुर तथा मुम्बई दिल्ली रेलमार्ग से जुड़ा है.

चम्बल अभयारण्य – यह अभयारण्य सवाई माधोपुर, कोटा, बूंदी, धौलपुर एवं करौली जिले में है. इसे 1983 में वन्य जीव अभयारण्य घोषित किया गया.  यह अभयारण्य जलीय पक्षियों की प्रजनन स्थली के रूप में जाना जाता है. चम्बल नदी घडियालो के लिए सर्वोत्तम प्राकृतिक आवास है. यहाँ जल मानुष , डॉल्फिन तथा मगर भी पाये जाते है. डॉल्फिन उत्तर भारतीय नदियों में पाया जाने वाला एक विशिष्ट स्तनपायी है, जो इस अभयारण्य की विशेषता है इसको भारत का राष्ट्रीय जलीय जीव कहा जाता है.

बस्सी अभयारण्य (चित्तौडगढ) : इस अभयारण्य में बघेरा , जरख, सियार, भेडिया, तथा जलीय जीव मगरमच्छ , कछुएं पाये जाते है. इस अभयारण्य से ब्राह्मणी व ओरई नदियाँ का उदगम होता है. इसको 1988 ई० में वन्य जीव अभयारण्य का दर्जा दिया गया.

सीतामाता अभयारण्य (चित्तौडगढ -334 वर्ग  km –उदयपुर -88 वर्ग km) –  यह उड़न गिलहरियो के लिए प्रसिद्ध है. उड़न गिलहरी के दोनों पाँवो के बीच झिल्लीनुमा चमड़ी विद्यमान रहती है जो गिलहरी को पैराशूटनामा आकार प्रदान करती है. यह 422 वर्ग किमी क्षेत्र में स्थित है. इसको अभयारण्य का दर्जा 1979 ई० में दिया गया. इस अभयारण्य में सागवान-बांस के वन पाये जाते है. इस अभयारण्य में से होकर जाखम, करमोई, सीतामाता, टांकिया, भुदो एवं नालेश्वर नदी बहती है. यहाँ स्थित लव-कुश जलस्रोतो से अनंत काल से ठण्डी तथा गर्म धाराएँ बहती रहती है. सियार, नीलगाय, जंगली सूअर, रीछ, सांभर आदि पाये जाते है.

भैंसरोडगढ़ अभयारण्य (चित्तौड़गढ़) – क्षेत्रफल – 229.14 वर्ग किमी है. घड़ियाल भैंसरोडगढ़ अभयारण्य की अनुपम धरोवर है. इसको 1983 ई० में वन्य जीव अभयारण्य घोषित किया गया. इस भैंसरोडगढ़ अभयारण्य क्षेत्र में ग्रेनाइट, क्वार्ट्जाइट, सेंडस्टोन, आदि चट्टानों की भरमार है. यहाँ धोक के वृक्ष पुरे प्रदेश में फेले है.

अन्य अभयारण्य –

तालछापर (चुरू -1971)

जयसमंद वन्य जीव अभयारण्य (उदयपुर – 1955)

रावली टाईगढ़ वन्य जीव अभयारण्य(अजमेर, पाली एवं उदयपुर –1983)

सज्जनगढ़ वन्य जीव अभयारण्य(उदयपुर – 1987)

फुलवारी की नाल अभयारण्य(उदयपुर-1983)

कैलादेवी अभयारण्य(सवाई माधोपुर – 1983)

रामगढ अभयारण्य(बूंदी – 1982)

जवाहर सागर अभयारण्य (कोटा – 1975)

शेरगढ़ अभयारण्य ( बारां 1983)

बंध बारेठा (भरतपुर 1985)

जमुवारामगढ अभयारण्य (जयपुर 1982)

 

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