चोहान वंश का इतिहास
चौहानों की उत्पत्ति के संबंध में विभित्र मत हैं। पृथ्वीराज रासौ में इन्हें ‘अग्रिकुण्ड‘ से उत्पत्र बताया है, ऋषि वशिष्ठ द्वारा आबू पर्वत पर किये गये यज्ञ से उत्पत्र हुए चार राजपूत योद्धाओं -प्रतिहार, परमार, चालुक्य एवं चैहानो मे से एक थे। मुहणोत नैणसी एवं सूर्यमल मिश्रण ने भी इसी मत का समर्थन किया है। प.गौरीषंकर ओझा चैहानों को सूर्यवंशी मानते है तो कर्नल टाॅड ने इन्हें विदेषी (मध्य एशिया से आया हुआ) माना है पृथ्वीराज विजय, हम्मीद महाकाव्य, सुर्जन चरित आदि ग्रन्थों तथा चोहान प्रशस्ति पृथ्वीराज तृतीय का बेदला षिललेख आदि में भी चौहानों का सूर्य वंषी बताया गया हे। डा. दशरथ शर्मा बिजोलिया लेख के आधार पर चैहानो को ब्राह्यण वंश से उत्पत्र बताते है 1177 ई. हासी शिलालेख एवं माउण्ट आबू के चंद्रवती के चैहानों का अचलेष्वर मंदिर का लेख चैहानों को चंद्रवंशी बताया है । विलियन क्रुक ने अग्निकुण्ड से उत्पत्ति को किसी विदेशी जाती के लोंगों को यहा अग्निकुण्ड के समक्ष पवित्र कर हिन्दु जाति में शामिल करना बताया है। तभी इस संबंध मे काई एक मत प्रतिपादित नही हो पाया हैं।
वासुदेव चैहानः-
चैहानों का मूल स्थान जांगलेश में सांभर के आसपास सपादलक्ष को माना जाता हैं इनकी प्रांरभिक राजधानी अहिछत्रपुर (नागौर) थी। बिजोलिया शिलालेख के अनुसार सपालक्ष के चैहान वंश का संस्थापक वासुदेव चैहान नाकम व्यंक्ति था, जिसन 551 ई के आसपास इस वंश का प्रारंभ किया। बिजोलिाया शिलालेख के अनुसार सांभर झील का निर्माण भी इसी ने करवाया था। इसी के वंषज अजपाल ने 7वीं सांभर कस्बा बसाया तथा अजयमेरू दुर्ग की स्थापना की थी।
विग्रहराज द्वितीय:-
चैहान वंश के प्रारंभिक षासकों में सबसे प्रतापी राजा सिंहराज का पुत्र विग्रहराज-द्वितीय हुआ, जो लगभग 956 ई के आसपास सपालक्ष का षासक बना। इन्होने अन्हिलपाटन के चालुक्य षासक मूलराज प्रथम को हराकर कर देने कोे विवश किया तथा भड़ौच में अपनी कुलदेवी आशापुरा माता का मंदिर बनवाया। विग्रहराज के काल का विस्तृत वर्णन 973 ई. के हर्षनाथ के अभिलेख से प्राप्त होता है।
अजयराज:–
चैहान वंश का दूसरा शासक अलयराज हुआ, जिसने (पृथ्वीराज विजय के अनुसार) 1113 ई. के लगभग अजयमेरू (अलमेर) बसाकर उसे अपने राज्य की राजधानी बनाया। उन्होंने अन्हिलापाटन के चालुक्य शासक मूलराज प्रथम को हराया। उन्होनें श्री अजयदेव नाम से चादी के सिक्के चलाये। उनकी रानी सोमलेखा ने भी उने नाम के सिक्के जारी किये।
अर्णोराजः
अजयराज के बाद अर्णोंराज ने 1133 ई. के लगभग अजमेर का षासन संभाला । अर्णोराज ने तुर्क आक्रमणकारियों को बुरी तरह हराकर अजमेर मं आनासागर झील का निर्माण करवाया। चालुक्य षासक कुमरपाल ने आबू के निकट युद्ध में इसे हराया। इस युद्ध का वर्णन प्रबन्ध कोश में मिलता है। अर्णोराज स्वयं शैव होते हुए भी अन्य धर्मो के प्रति सहिष्णु था। उनके पुष्कर में वराह-मंदिर का निर्माण करवाया।
विग्रहराज चतुर्थ:-
विग्रहराज-चतुर्थ (बीसलदेव) 1153 ई. मंे लगभग अजमेर की गद्दी पर आसीन हुए। इन्होंने अपने राज्य की सीमा का अत्यधिक विस्थार किया। उन्होंने गजनी के शासक अमीर खुशरूशाह (हम्मीर) को हराया तथा दिल्ली के तोमर शासक को पराजित किया एवं दिल्ली को अपने राज्स में मिलाया।
एक अच्छा योद्धा एवं सेनानायक शासक होते हुए व विद्वानों के आश्रयदाता भी थे। उनके दरबार मे सोमदेव जैसे प्रकाण्ड विद्वान कवि थे। जिसने ‘ललित विग्रहराज‘ नाटक को रचना की । विग्रहराज विद्वानों के आश्रयदाता होने के कारण ‘कवि बान्धव‘ के नाम से जाने जाते थे। स्वयं विग्रहराज ने ‘हरिकेलि‘ नाटक लिखा । इनके अलावा उन्होंने अजमेर में एक संस्कृत पाठषाला बनवाई (अढ़ाई दिन के झोपड़े की सीढि़यों में मिले दो पाषाण अभिलेखों के अनुसार)। इसे मुहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने अढ़ाई दिन के झोपडे़ में परिवर्तित कर दिया या। वर्तमान टोंक\जिले मे बीसलपुर कस्बा एवं बीसलसागर बांध का निमार्ण भी बीसलदेव द्वारा करवाया गया। इनके काल को चोहन शासन का ‘स्वर्णयुग‘ भी कहा जाता है।
पृथ्वीराज-तृंतीय
चैहान वंश के अंतिम प्रतापी सम्राट पृथ्वीराज चैहान तृतीय का जन्म 1166 ई. (वि.सं. 1223) में अजमेर के चैहान षासन सोमेष्वर की रानी कर्पूरीदेवी (दिल्ली के शासक अनंगपाल तोमर की पुत्री ) को कोख से अन्हिलपाटन (गुजरात) में हुआ। अपने पिता का असमय देहावसान हो जाने के कारण मात्र 11 वर्ष की अत्पायु में पृथ्वीराज तृतीय अजमेर की गद्दी के स्वामी बने । उस समय कदम्बदास (कैमास) उनका सुयोग्य प्रधानमंत्री था पृथ्वीराज के सिंहासनावरूढ़ होने के समय अजमेर राज्य की सीमाए उत्तर में थानेष्वर से दक्षिण में जहाजपुर (मेवाड़) तक विस्तृत थी। उत्तरी सीमा पर कन्नौज एवं दक्षिणी सीमा पर गुजरात उसके समीपस्थ षत्रु थे उत्तर-पंिष्चमी सीमा पर मुस्लिम आक्रमणकारियों की गतिविधिया बढ़ती जा रही थी। ऐसे समय में बालक पृथ्वीराज की और से उसकी माता कर्पूरीदेवी ने बड़ी कुशलता एवं कूटनीति से शासन कार्य संभाला।परन्तु बहुत कम समय में ही पृथ्वीराज-तुतीय ने अपनी योग्यता एवं वीरता से समस्म षासन प्रबन्ध अपने हाथ में ले लिया। उसके बाद उसने अपने चारों ओर के षत्रुओं का एक-एक कर शनै-शनै खात्मा किया एव दलपंगुल (विष्व विजेता) की उपाधि धारण ही । सम्राट पृथ्वीराज ने तुर्क आक्रमणकारियों का प्रबल प्रतिरोध कर उन्हें बुरी तरह परास्त दुर्भाग्य से यह वीर सेनानायक एवं यौद्धा किन्ही कारणों से मुस्लिम आक्रांता मुहम्मद गौरी से तराइन के द्वितीय युद्ध में हार गया और देश में मुस्लिम शासन की नींव पड़ गई इसके बा लगभग 300 वर्षा तक राजपूताना में कोई ऐसा प्रतापी शासक नही हुआ जिसने मुस्लिम आक्रांताओं को देश बाहर निकालने हेतु अपनी भुजाओं के बल का प्रयोग किया हों।
पृथ्वीराज-तृतीय के प्रमुख सैनिक अभियान व विजयें
1. नागार्जुन एवं भण्डानकों का दमन – पृथ्वीराज के राजकाल संभालने के कुछ समय बा उसक चचेरे भाई नागार्जुन ने विद्रोह कर दिया। वह अजमेर का शासन प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था अतः पृथ्वीराज ने सर्वप्रथम अपने मंत्री कैमास की सहायता से सैन्य बल के साथ उसे पराजित कर गडापुरा (गुड़गाॅव) एवं आसपास का क्षेत्र अपने अधिकार में कर लिये। इसके बाद 1182 ई. में पृथ्वीराज ने भरतपुर-मथुरा क्षेत्र में भण्डानकों के विद्रोहों का अंत किया।
2. महोबा के चंदेलों पर विजयः- पृथ्वीराज ने 1182 ई. मे ही महोबा के चंदेल षासक परमाल (परमार्दी) देव को हराकर उसे संधि के लिए विवश किया एवं उसके कई गांव अपने अधिकार में ले लिए।
3. चालुक्यों पर विजय:- सन् 1184 के लगभग गुजरात के चालुक्य शासक भीमदेव-द्वितीय के प्रधानमंत्री जगदेश प्रतिहार एवं पृथ्वीराज की सेना के मध्य नागौर का युद्ध हआ जिसके बाद दोनों में संधि हो गई एवं चैहानों की चालुक्यों से लम्बी शत्रुता का अंत हुआ।
4. कन्नौज से संबंधः- पृथ्वीराज के समय कत्रौज पर गहड़वाल षासक जयचन्द का शासन था। जयचंद एवं पृथ्वीराज दोनों की राज्य विस्तार की महात्ताकांक्षाओं ने उनमें आपसी वैमनस्य उत्पत्र कर दिया था। उसके बाद उसकी पुत्री संयोंगिता को पृथ्वीराज द्वारा स्वयंवर से उठा ले जाने के कारण दोनों की शत्रुता और बढ़ गई थी इसी वजह से तराइन युद्ध में जयचंद ने पृथ्वीराज की सहायता न कर मुहम्मद गौरी की सहायता की।
पृथ्वीराज एवं मुहम्मद गौरीः-
पृथ्वीराज के समय भारत के उत्तर-पष्चिम में गौर प्रदेश पर शहाबुद्दीन गौरी का षासन था। उसने गजनी के षासक मुल्तान मलिक खुसरो को हराकर राजनवी द्वारा अधिकृत सभी क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया था। मुहम्मद गौरी घीरे-धीरे अपने राज्य का विस्तार करता जा रहा था । सन् 1178 में उसने पंजाब, मुल्तान एवं ंसिंध को जीतकर अपने अधीन कर लिया था
1. तराइन का प्रथम युद्ध (1191 ई.)ः-
पृथ्वीराज के दिल्ली, हाॅसी, सरस्वती एंव सरंहिंद के दुर्गो को जीतकर अपने अधिकार मे कर लेने के बाद 1190-91 में गौरी ने सरंिहद (तबरहिंद) पर अधिकार कर अपनी सेना वहा रख दी । पृथ्वीराज अपने क्षेत्र से आक्रांताओं को भगाने हेतु सरहिंद पर आक्रमण करने हेतु बढ़ा । मुहम्मद गौरी अपने विजित क्षेत्र को बचाने हेतु विशाल सेना सहित तराइन के मैदान (हरियाणा के करनाल एवं थानेष्वर के मध्य तराइन (तरावड़ी)) के मैदान मे आ डटा । पृथ्वीराज भी अपनी सेना लेकर वहा पहुॅचा। दोनों सेनाओं के मध्य 1191 ई. में तराइन का प्रथम युद्ध हुआ । जिसमे दिल्ली के गपर्नर गोविन्दराज ने मुहम्मद गौरी को घायल कर दिया। घायल गौरी युद्ध भूमि से बाहर निकल गया एवं कुछ ही समय मे गौरी की सेना भी मैदान छोड़कर भाग खड़ी हुई। पृथ्वीराज ने इस विजय के बाद भागती हुई मुस्लिम सेना का पीछा न कर मुहम्मद गौरी व उसकी सेना को जाने दिया। पृथ्वीराज ने ऐसा कर बड़ी भूल की जिसकी कीमत उसे अगले वर्ष ही तराइन के द्वितीय युद्ध में चुकानी पड़ी।
2. तराइन का द्वितीय युद्ध (1192 ई.) –
प्रथम युद्ध मे जीत के बाद पृथ्वीराज निष्चित हो आमोद प्रमोद में व्यस्त हो गया जबकि गौरी ने पूरे मनोयोग से विशाल सेना पुनः एकत्रित की एवं युद्ध की तैयारियों मे व्यस्त रहा। एक वर्ष बाद 1192 ई. में ही गौरी अपनी विशाल सेना के साथ पृथ्वीराज से अपनी हार का बदला लेने हेतु तराइन मे मैदान में पुनः आ धमका। पृथ्वीराज को समाचार मिलते ही वह भी सेना सहित युद्ध मे मैदान की और बढ़ा उसके साथ उसके बहनोई मेवाड़ शासक समरसिंह एवं दिल्ली के गवर्नर गोविंन्द राज भी थे दोनों सेनाओं के मध्य तराइन का द्वितीय युद्ध हुआ जिसमे साम-दाम-दण्ड-भेद की नीति से मुहम्मद गौरी की विजय हुई। अजमेर एवं दिल्ली पर उसका अधिकार हो गया । तराइन के युद्ध के बाद गौरी ने अजमेर का शासन भाइ कर के बदले पृथ्वीराज के पुत्र गोविन्द राज को दे दिया। परन्तुं कुछ समय बाद ही पृथ्वीराज के भाई हरिलाल ने उसे पदच्युत कर अजमेर पर अपना अधिकार कर लिया। तब गोविन्दराज ने रणथम्भौर में चैहानवंश के शासन की षुरूआत की । गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने झाँसी के निकट चैहान सेना को हरा दिया। इसके बाद मुहम्मद गौरी ने भारत मे विजित अपने क्षेत्रों का प्रशासन अपने दास सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक को संभला दिया एवं स्वयं लौट गया। ऐबक ने अजमेर में विग्रहराज चतुर्थ द्वारा निर्मित संस्कृत पाठाशाला को तुड़वाकर ढाई दिन के झोंपड़े (मस्जिद) में परिवर्तित करवा दिया।
तराइन का द्वितीय युद्ध भारतीय इतिहास की एक निर्णायक एवं युग परिवर्तनकारी घटना साबित हुआ। इससे भारत में स्थायी मुस्लिम साम्राज्य का प्रारंभ हुआ। मुहम्मद गौरी भारत में मुस्लिम साम्राज्य का संस्थापक बना । इसके बाद धीरे -धीरे गौरी ने कत्रौज, गुजरात, बिहार आदि क्षेत्रों को जीता और कुछ ही वर्षो में उत्तरी भारत पर मुस्लिम आक्रमणकारियो का शासन स्थापित हो गया। तराइन के दोनों युद्धोंका विस्तृत कवि चन्द्र बरदाई के ‘पृथ्वीराज रासों‘ हसन निजामी के ‘ताजुल मासिंर‘ एवं सिराज के तबकात-ए-नासिरी में मिलता है।
तराइन के युद्ध में पृथ्वीराज की पराजय का प्रमुख कारण गौरी की कुशल युद्ध नीति थी। इसके अलावा पृथ्वीराज का चारों ओर के राजाओं की अपना शात्रु बना लेना, उसमें दूरर्षिता का अभाव, युद्ध की तैयारी न कर आमोद-प्रमोद में व्यस्त रहना दुश्मन को कम कर आकना आदि अन्य कारण थे जिनकी वजह से पृथ्वीराज तृतीय का तुर्क प्रतिरोध असफल हो गया और देष अन्ततः सैकड़ो वर्षो तक गुलामी की जंजीर में जकड़ा रहा।
पृथ्वीराज चैहान-तृतीय एक कुशल सेनानायक एवं योद्धा के साथ-साथ साहित्यकारों का भी आदर करता था उसके दरबार में पृथ्वीराज विजय की लेखन ‘जयानक‘ पृथ्वीराज रासों के लेखन एवं उसके मित्र चंद्र बरदाई जनार्दन, वागीष्वर आदि विद्वानों की आश्रय प्राप्त था।
रणथम्भौर के चौहान
तराइन के द्वितीय युद्ध मं पृथ्वीराज की पराजय के बाद उसके पुत्र गोविंदराज ने कुछ समय बाद रणथम्भौर में चौहान वंश का शासन किया। उनके उत्तराधिकारी वल्हण को दिल्ली सुल्तान इल्तुतमिश ने पराजित कर दुर्ग पर अधिकार कर लिया था। इसी वंश के शासक वाग्भट्ट ने पुनः दुर्ग पर अधिकार कर चैहान वंश का शासन पुनः स्थापित किया। रणथम्भौर के सर्वाधि प्रतापी एवं अंतिम षासक हम्मीर देव विद्रोही सेनिक नेता मुहम्मदषाह को शरण दे दी अतः दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर पर आक्रमण किया। 1301 ई. में हुए अंतिम युद्ध में हम्मीर चौहान की पराजय हुई और दुर्ग में रानियों ने जौहर किया तथा सभी राजपूत योद्धा मारे गये। 11 जुलाई, 1301 को दुर्ग पर अलाउद्दीन खिलजी का कब्जा हो गया। इस युद्ध में अमीर खुसरो अलाउद्दीन केी सेना के साथ ही था।
जालौर के चौहान
जालोर दिल्ली से गुजरात व मालवा, जाने के मार्ग पर पड़ता था। वहाॅ 13 वी सदी मंे सोनगरा चौहानों का शासन था, जिसकी स्थापना नाडोल शाखा के कीर्तिपाल चौहान द्वारा की गई थी। जालौर का प्राचीन नाम जाबालीपुरा था तथा यहाॅ के किले को ‘सुवर्णगिरी‘ कहते है । सन् 1305 में यहाॅ के षासक कान्हड़दे चोहान बने। अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर पर अपना अधिकार करने हेतु योजना बनाई। जालौर के मार्ग में सिवाला का दूर्ग पड़ता हैं अतः पहले अलाउद्दीन खिलजी ने 1308 ई. मंे सिवाना दुर्ग पर आक्रमणकर उसे जीता और उसका नाम ‘खैराबाद‘ रख कमालुद्दीन गुर्ग को वहा का दुर्ग रक्षक नियुक्त कर दिया। बीर सातल और सेाम वीर गति को प्राप्त हुए सन् 1311ई. में अलाउद्दीन ने जालौर दुर्ग पर जालौर दुर्ग पर आक्रमण किया ओर कई दिनों के घेर के बाद अंतिम युद्ध मे अलाउद्दीन की विजय इुई और सभी राजपुत शहीद हुए। वीर कान्हड़देव सोनगरा और उसके पुत्र वीरमदेव युद्ध करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए । अलाउद्दीन ने इस जीत के बा जालौर में एक मस्जिद का निर्माण करवाया। इस युद्ध की जानकारी पद्मनाथ के ग्रन्थ कान्हड़दे तथा वीरमदेव सोनगरा की बात में मिलती है।
नाडोल के चैहान
चौहानो की इस शाखा का संस्थापक शाकम्भरी नरेश वाकपति का पुत्र लक्ष्मण चौहान था, जिसने 960 ई. के लगभग चावड़ा राजपूतों के अधिपत्य से अपने आपको स्वतंत्र कर चौहान वंश का शासन स्थापित किया। नाडोल शाखा के कीर्तिपाल चौहान ने 1177ई. के लगभग मेवाड़ षासक सामन्तंसिंह को पराजित कर मेवाड़ को अपने अधीन कर लिया था। 1205 ई. के लगभग नाडोल के चौहान जालौर की चौहान शाखा में मिल गये।
सिरोही के चैहान
सिरोही में चौहान की देवड़ा शाखा का शासन था, जिसकी स्थापना 1311 ई. के आसपास लुम्बा द्वारा की गई थी। इनकी राजधानी चन्द्रवती थी। बाद में बार-बार में मुस्लिम आक्रमणों के कारण इस वंश के सहासमल ने 1425 ई. में सिरोही नगर की स्थापना अपनी राजधानी बनाया। इसी के काल में महारणा कुंभा ने सिरोही को अपने अधीन कर लिया। 1823 ई. में यहा के शासक शिवसिंह ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि का राज्य की सुरक्षा का जिम्मा सोपा। स्वतंत्रता के बाद सिरोही राज्य राजस्थान में जनवरी, 1950 में मिला दिया गया।
हाड़ौती के चौहान –
हाड़ौती में वर्तमान बूंदी, कोटा, झालावाड एवं बांरा के क्षेत्र आते है। इस क्षेत्र में महाभारत के समय से मत्स्य (मीणा) जाति निवास करती थी। मध्यकाल में यहा मीणा जाति का ही राज्य स्थापित हो गया था। पूर्व में यह सम्पूर्ण क्षेत्र केवल बूंदी में ही आता था। 1342 ई. में यहा हाड़ा चौहान देवा ने मीणों को पराजित कर यहा चौहान वंश का शासन स्थापित किया। देवा नाडोल के चौहानों को ही वंशज था। बूंदी का यह नाम वहा के शासक बूंदा मीणा के पर पड़ा मेवाड़ नरेश क्षेत्रसिंत ने आक्रमण कर बूंदी को अपने अधीन कर लिया। तब से बूंदी का शासन मेवाड़ के अधीन ही चल रहा था। 1569 ई. में यहा के शासक सुरजन सिंह ने अकबर से संधि कर मुगल आधीनता स्वीकार कर ली और तब से बॅूदी मेवाड़ से मुक्त हो गया। 1631 ई. में मुगल बादशाह ने कोटा को बूंदी से स्वतंत्र कर बूंदी के शासक रतनसिंह के पुत्र माधोसिंह को यहा का शासक बना दिया मुगल बादषाह फर्रूखशियार के समय बूंदी नरेश् बुद्धसिंह के जयपुर नरेश जयसिंह के खिलाफ अभियान पर न जाने के करण बूंदी राज्य का नाम फर्रूखाबाद रख उसे कोटा नेरश को दे दिया परंतु कुछ समय बाद बुद्धसिंह को बूंदी का राज्य वापस मिल गया। बाद में बॅूदी के उत्तराधिकार के संबंध में बार-बार युद्ध होते रह, जिनमें मे मराठै, जयपुर नरेश सवाई जयसिंह एवं कोटा की दखलंदाजी रही। राजस्थान में मराठां का सर्वप्रथम प्रवेश बूंदी में हुआ, जब 1734ई. में यहा बुद्धसिंह की कछवाही रानी आनन्द (अमर) कुवरी ने अपने पुत्र उम्मेदसिंह के पक्ष में मराठा सरदार होल्फर व राणोजी को आमंत्रित किया।
1818ई. में बूंदी के शासक विष्णुसिंह ने मराठों से सुरक्षा हेतु ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि कर ली और बूंदी को सुरक्षा का भार अंग्रेजी सेना पर हो गया। देष की स्वाधीनता के बाद बूंदी का राजस्थान संघ मे विलय हो गया।