आमेर के कछवाहों का इतिहास

कछवाहों राजपूत स्वयं को भगवान रामचन्द्र के पुत्र कुष का वंषज बताते है। इनके प्राचीन इतिहास के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध नही है। इस वंष के नरवर के षासक सोढ़ा सिंह के पुत्र दुलहराय ने सन् 1137 के लगभग रामगढ़ (ढूढाड़) में मीणों को तथा बाद में दौसा के बड़गूजरों को हराकर कछवाहा वंश का राज्य स्थापित किया और रामगढ़ मे अपनी कुलदेवी जमुवाय माता का मंदिर बनाया। इन्हों के पीत्र कांकिल देव ने सन् 1207 में आमेर के मीणाओं को परास्त कर आमेर को अपने राज्य मे मिला लिया व उसे अपनी राजधानी बनाया । तभी से आमेर कछवाहों की राजधानी जयपुर निर्माण  तक बना रहा इसी वंष का षासक पृथ्वीराज मेवाड़ के महाराणा सांगा का सामन्त था जो खानवा के युद्ध में संगा की तरफ से लडा था। पृथ्वीराज गलता के रामानुज सम्प्रदाय के संत कृष्णदास पयहारी के अनुयायी थे । इन्हीं के पुत्र सांगा ने सांगानेर कस्बा बनाया।

राजा भारमल:-

(1547-1573 ई.)सांगा के भाई भारमल ने 1547 ई. में आमेर की गद्दी पर कब्जा कर लिया। इसने जनवरी, 1562 ई, में मुगल सम्राट अकबर से उसकी अजमेर यात्रा के दौरान चगताई खा की मदद से सांगानेर के निकट मुलाकात की तथा बाद में सांभर में जाकर अपनी पुत्री की षादी अकबर के साथ कर दी। यह बेगम मरियम उज्जमानी नाम से जानी जाती है। इसी ने बाद मे सलीम (जहागीर) को जन्म दिया। भारमल राजपुताना के पहले शासक थे जिन्होने अकबर की अधीनता स्वीकार कर उससे अपनी बेटी व्याही । इसके बाद भारमल के पुत्र भगतन्तदास एवं पोता मानसिंह अकबर की सेवा मे चले गये।

राजा भगवन्तदास (1573-1589 ई)ः-

राजा भारमल की मृत्यु के बाद उनके पुत्र भगवन्दास आमेर के सिंहासन बैठे और इन्होने भी अपनी पुत्री का विवाह शहजाद सलीम के साथ का दिया। 1589 ई. में इनकी लाहौर में मौत हो गई।

आमेर के राजा मानसिंह (1589-1614 ई)

राजपुतों का मुगलों के साथ सहयोग सन्1562 ई. में प्रारम्भ हुआ था। आमेर राजस्थान का प्रथम राज्य था जिसनें मुगलो के साथ सहयोग और सर्मपण की नीति अपनाई।

आमेर के कछावाहा षासक राजा भारमल ने 1562 ई. में अकबर की अजमेर यात्रा के दौरान वर्तमान साॅगानेर के निकट अकबर की अधीनता स्वीकार की तथा बाद में साभर में अपनी पुत्री जोधाबाई की शादी अकबर से कर वैवाहिक संमंधों के माघ्यम से मुगलों के साथ सहयोग की नीति का शुभारम्भ किया। भारतमल राजपूताने के पहले शासक थे जिन्होंने अकबर की अधीनता स्वीकार कर उससे अपनी बेटी व्याही । उनकी इस नीति का अनुसरण परवर्ती शासकों ने भी किया।

राजा भारमल के पौत्र तथा राजा भगवन्तदास के पुत्र कॅुवर मानसिंह का सम्राट अकबर से परिचय 1562 ई. में हुआ। मानसिंह का जन्म 2 दिसम्बर,1550 ई. को ग्राम मौजमाबाद में हुआ था। मानसिंह ने 1562 ई. से जीवनपर्यन्त (1614 ई तक) ंमुगल साम्राज्य की सेनानायक, सूबेदार एवं मनसबदार के रूप् में सेवा की थी । ये अकबर के सर्वाधिक विष्वस्त सेनानायक थे। मुगल सम्राट अकबर के समय जिन राजपुत शासकों ने मुगलों को सहयोग किया उनके मानसिंह का योगदान सर्वोपरि था। 1589 में इन्होंने आमेर का षासन सॅभाला । उनका अधिकांश समय मुगल साम्राज्य की सेवा में आमेर से बाहर ही बीता।

महाराजा प्रताप से भेंटः-

बादशाह अकबर द्वारा महाराणा प्रताप को अपनी अधीनता स्वीकार करने केी संधि करने हेतु जलाल खाॅ कोरची के बाद सन् 1573 मे कॅुवर मानसिंह को भेजा। परन्तु कॅुवर मानसिंह महाराणा प्रताप को संधि के लिए राजी करने में असफल रहें।

हल्दीघाटी का युद्ध (1576 ई.)ः-

महाराजा प्रताप को संधि करने हेतु राजी करने के सभी प्रयासों के विफल हो जाने पर सम्राट अकबर ने महाराणा प्रताप के विरूद्ध मानसिंह नेतृत्व में विशाल शाही सेना को 3 अप्रैल, 1576 को अजमेर से मेवाड़ के लिए रवाना किया। मानसिंह शाही सेना के साथ मध्य जून,1576 तक मांडलगढ़ में डेरा डाले रहे। उसके बाद मुगल सेना खमनोर पहुॅचा जहा हल्दी घाटी के पास ‘रक्ततलाई‘ में 18 जून, 1579 को प्रसिद्ध हल्दीघाटी का युद्ध हुआ।

काबुल विजय:-

काबुल में मिर्जा खा के विद्रोह को दबाने के लिए बादषाह अकबर ने मानसिंह व उनके पित भगवन्तदास के नेतृत्व में सेना भेजी। जू, 1581 में बादशाह स्वंय भी काबुल पहूचे तथा काबुल विजय की । इस विजय में कूवर मानसिंह का अपूर्ण नियुक्त किया। जहा उन्होंने विद्रोहो की समूल नष्ट किया।

अहमदनगर अभियान:-

अकबर की मृत्यु के बाद सम्राट जहाॅगीर  से मानंिसंह के संबध उतने अच्छे नही रहे 1611 ई. में मानसिंह को सम्राट जहागीर द्वारा दक्षिण में अहमदनगर अभियान पर भेजा गया। दक्षिण में रहते हुए एलिचपुर में 6 जुलाई, 1614 को राजा मानसिंह की मृत्यु हो गई ।

राजा मानसिंह-प् न केवल एक अच्छे  सेनानायक व षासक थे बल्कि एक विद्वान व वास्तुषिल्प के संरक्षक भी थे । इनके समय रायमुरारी दास ने ‘मानचरित्र‘ की रचना की थी तथा पुण्डकरी विट्ठल ने रागचन्द्रोदय, रागमंजारी नर्तन निर्णय आदि प्रसिद्ध ग्रंथों की रचना की । बिहार की सूबेदारी के समय मानसिंह ने रोहतासगढ़ में भव्य महल बनवाए, बिहार में मानपुर नगर तथा बंगाल में अकबर नगर (राजमहल) की स्थापना की । 1592 ई. मे राजा मानसिंह ने आमेर के भव्य महलों का निर्माण करवाया।

मिर्जा राजा जयसिंह (1621-1667 ई.)ः-

आमेर के शासक भावसिंह  की मृत्यु के बाद जयसिंह (महासिंह का पुत्र) 23 दिसम्बर, 1621 ई. को 11 वर्ष की आयु में आमेर के राजा बने । इनके लम्बे षासनकाल में इन्होंने तीन मुगल बादषाहों – जहाॅगीर, षाहजहाॅ एवं औरंगजेब के साथ कार्य किया। शाहजहा ने 1638 ई. में इन्हें मिर्जा राजा की पदवी से सम्मानित किया। जयपुर के कछवाहा वंश में इन्होने सर्वाधिक अवधि 46 वर्ष तक शासन किया।

पुरन्दर की संधि:-

मिर्जा राजा जयसिंह ने षिवाजी के विरूद्ध अभियान द्वारा षिवाजी की मुगल सम्राट से संधि करने के लिए विवष कर दिया तथा औरंगजेब की अधीनता स्वीकार करने के लिए राजी कर लिया। 11 जून 1665 को षिवाजी व जयसिंह के मध्य संधि हो गई, जिसे पुरंदर की संधि कहते हैं मिर्जा राजा जयसिंह एक अद्वितीय बौद्धा थे। अपनी योग्यता साहस एवं युद्ध कौषल की वजह से वे तीनों बादषाहों के सबसे विष्वस्त सेनापति थे। उनमें युद्ध कौषल के साथा कला एवं षिल्प के प्रति भी उतना ही अनुराग था। आमेर में उनके बनवाये हुए महल, जयगढ़ का दुर्ग आदि वास्तु के प्रति गहरी रूचि का उद्योतक है, जो उत्तर मुगल कालीन राजपूत-मुगल षैली के प्रतीक है। स्वयं विद्वान होने के साथ-साथ वह बिहारी जैसे विद्वान कवियों के आश्रयदाता भी थे। बिहारी ने बिहारी सतसई ग्रन्थ की तथा रामकवि ने ‘जयसिंह चरित्र‘ ग्रन्थ की रचना रचना इन्ही के समय में की थी। 8 सितम्बर, 1667 ई. को दक्षिण मे वापस आते समय बुरहानपुर में इनका देहान्त हो गया।

सवाई जयसिंह द्वितीय (1700-1743):-

महाराजा विष्णुसिंह (विशनसिंह) की सन् 1700 ई. में मृत्यु होने के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र विजयसिंह ‘सवाई जयसिंह‘ के नाम से आमेर के शासक  बनाये गये। इनका ‘सवाई जयसिंह‘ नाम औरंगजेब  ने ही रखा था। इन्होंने औरंगजैब, बाहदुरशाह प्रथम, फरूखसीयर तथा मुहम्मशाह नामक चार मुगल बादशाहों के काल में आमेर पर शासन किया। औरंगजेब की मृत्यु के बा उत्तराधिकार युद्ध मे सवाई जयसिंह ने शाहजहां आलम का पक्ष लिया परंन्तु युद्ध में मुअज्जम की विजय हुई और वह  बहादुरशाह के नाम से मुगल बादशाह बना। बादशाह ने सवाई जयसिंह को सबक सिखाने के लिए आमेर आकर 1707 ई. मे इनके छोटे भाई को आमेर का शासक घोषित कर दिया और आमेर का नाम मोमिनाबाद रख दिया। इससे नाराज होकर जयंसिंह ने मेवाड़ व जोधपुर की सहायता से पुनः प्राप्त करने हेतु प्रयास किया तथा मेवाड़ महाराणा अमरसिंह द्वितीय एवं जोधपुर के राजकुमार अजीत सिंह के साथ दोबारा समझौता किया था बाद में सवाई जयसिंह द्वारा जाटों का विद्रोह समाप्त कर दिये जाने से मुगल सम्राट मोहम्मद शाह ने  जयसिंह  को राज राजेष्वर, श्री राजाधिराज, सवाई, आदि उपाधियों से विभूषित किया था।

हुरड़ा सम्मेलन:-

सवाई जसंसिंह  ने बढ़ती हुई मराठा षक्ति के विरूद्ध राजपूतान के शासको को संगठित करने हेतु मेवाड़ के हुरड़ा नामक स्थान पर रियासती राजाओं का 17 जुलाई, 1734 ई. को सम्मेलन करवाया और इसमें आपसी सहायता करने का समझौता किया था। परंतु यह समझौता सही तरह से क्रियान्वित नही हो पाया। इसके बाद सवाई जयसिंह ने राजपूताना में अपना प्रभुत्व बढ़ाने  हेतु विभित्र रियासतों के आंतरिक  मामलों  में हस्तक्षेप करना प्रारंभ किया तथा अपने राज्य का अधिकाधिक  विस्तार किया। सवाई जयसिंह  की मृत्यु 1सितम्बर, 1743 ई. को हो गई।

महाराजा सवाई जयसिंह कूटनीतिज्ञ, प्रतिद्ध यौद्धा, संस्कृत एवं फारसी का प्रकाण्ड विद्वान होने के साथ की गणित और ज्योतिष का भी अच्छा ज्ञाता विद्यानुरागी होने के अलावा वह वास्तु-शील्प के प्रति भी गहन रूचि रखता था। 1727 ई. में उसने  जयनगर (वर्तमान जयपुर) की स्थापना की । नगर का नक्षा पं. विद्याधर भट्टाचार्य (बंगाल निवासी) नाम प्रसिद्ध वास्तुविद् की देखरेख मे बनवाया गया। 1725 ई. में उसने  नक्षत्रों की षुद्ध सारणी, जीज मुहम्म्द षाही  बनवाई तथा ‘जयसिंह कारिका‘ नामक ज्योतिष ग्रन्थ की रचना की। पुण्डीरीक रत्नाकर ने जयंसिंह कल्पद्रम‘ ग्रथ लिखा। 1734 ई. मे उसने जयपुर मे एक बड़ी वेधशाला ‘जन्तर – मन्तर‘ का निर्माण करवाया तथा ऐसी ही चार और वेधशालाए दिल्ली, उज्जैन, बनारस एवं मथुरा मे बनवाई। जयपुर के चन्द्रमहल (सिटी पैलेस) एवं ंजलमहल का निर्माण इन्ही ने करवाया था। सवाई जयसिंह  अंतिम हिन्दू  नरेष थे जिन्होने जयपुर मे ंअष्वमेघ यज्ञ (1740 ई.) सम्पत्र करवाया जिसका पुरोहित पुण्डरीक  रत्नाकार था। इन्होने  अपने राज्य का इतना अधिक विस्तार कर लिया था जो पूर्ण मे कभी नही हो पाया था। परन्तु सवाई सवाई जयसिंह  की एक सबसे बड़ी भूल  यह रही कि उन्होनें बुन्दी के उत्तराधिकार के झगड़े मे पड़कर तथा मुगल सम्राट पर अपना प्रभाव जमाने  के लिए राजस्थान में मराठों को आमंत्रित कर लिया जिसके बाद में भयंकर परिणाम निकले । इन्ही के काल में 20 मार्च, 1739 को दिल्ली पर नादिरशाह का आक्रमण हुआ।

सवाई ईष्वरी सिंह:-

(1743-1750 ई.) महाराजा सवाई जयसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र ईष्वरीसिंह ने राजकाल संभाला। परंतु उनके भाई माधोसिह ने राज्य प्राप्त करने हेतु मराठों एवं कोटा-बूदी  की संयुक्त सेना के साथ जयपुर पर आक्रमण कर दिया। बनास नदी के पास 1747 ई. में राजमहल (टोंक) स्थान पर हुए युद्ध मे ईष्वरीसिंह की विजय हुई, जिसके उपलक्ष्य मे उन्होंने  जयपुर के त्रिपोलिया बाजार में एक ऊॅची मीनार ‘ईसरलाट‘ (वर्तमान सारगासूली) का निर्माण कराया। 1750 ई. में मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर ने पुनः जयपुर पर आक्रमण किया। तब सवाई ईष्वरीसिंह ने आत्महत्या कर ली।

महाराजा सवाई माधोसिंह -प्रथम

(1750-1768 ई.) -जयपुर महाराजा ईष्वरीसिंह द्वारा आत्महत्या कर लेने पर माधोसिंह  की गद्दी पर बैठे। माधोसिंह के राजा बनने के बाद मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर एवं जय अप्पा सिंधिया ने इससे भारी रकम की मांग की, जिसके न चुकाने पर मराठा सैनिको ने जयपुर में उपद्रव मचाया फलस्वरूप नागरिको ने  विद्रोह कर मराठा सैनिकों का कत्लेआम कर दिया। महाराजा माधोसिंह ने मुगल बादशाह  अहमदशाह एवं जाट महाराजा सूरजमल (भरतपुर) एवं  अवध नवाब  सफदरजंग के मध्य समझौता करवाया। इसके परिणामस्वरूप बादशाह  ने रणथम्भौर किला माधोसिंह को दे दिया। इससे नाराज हो कोटा महाराजा शत्रुसाल ने जयपुर पर आक्रमण कर नवम्बर 1761 ई. में भटवाड़ा के युद्ध में जयपुर की सेना को हराया।1763 ई में इनकी मृत्यु हो गई इन्होंने जयपुर मे मोती डूगरी पर महलों का निर्माण करवाया।

सवाई प्रतापसिंह:-

(1778-1803 ई.) महाराजा पृथ्वीराज की मृत्यु होने पर उनके छोटे भाई प्रतापसिंह ने 1778 ई. मे जयपुर का षासन संभाला। इनके काल मे अंग्रेज सेनापति जार्जथोमस  ने जयपुर पर आक्रमण किया। मराठा सेनापति महादजी सिंधिया को भी जयपुर राज्य की सेना ने जोधपुर नरेष महाराणा विजयसिंह के सहयोग मे जुलाई,1787 में तुंगा के मैदान मे बुरी तरह पराजित किया। प्रतापसिंह जीवन भर युद्धों मे उलझे रह फिर भी उनके काल में कला एवं साहित्य में अत्यधिक उत्रति हुई। वे विद्वानों एंव संगीतज्ञों  के आश्रयदाता होने के सथ-साथ स्वयं भी ब्रजनिधि नाम से कावय रचना करते थे। उन्होने जयपुर में एक संगीत सम्मेलन करवाकर राधागाविंद संगीत सार ग्रन्थ की रचना करवाई। प्रतापसिंह  की मृत्यु के बाद उनके पुत्र जगतसिंह द्वितीय गद्दी पर बैठे। इनके समय जयपुर राज्य एवं जोधपुर की सेना ने जोधपुर  की सेना की मार्च, 1807 में गंगोली के निकट युद्ध मे हराया अंततः कृष्णाकुमारी के जहर खा कर मर जाने के बाद ही विवाद समाप्त हुआ 1818 ई. मे मराठों एंव पिंडारियों से राज्य की रक्षा करने हेतु जगतसिंह द्वितीय ने ईस्ट इंडिया कम्पनी से संधि का राज्य की सुरक्षा का भार कम्पनी पर डाल दिया 21 दिसम्बर,1818 को जगतसिंह द्वितीय का देहान्त हो गया। 

महाराजा रामसिंह-द्वितीय:-

(1835-1880 ई.)- महाराजा रामसिंह को नाबालिग होने के कारण ब्रिटिष सरकार ने अपने संरक्षण में ले लिया।इनके समय मेजर जान लुडालो ने जनवरी,1843 ई. में जयपुर का प्रशासन संभाला तथा उन्होनें सतीप्रथा,दास प्रथा एवं कन्या वध, देहज प्रथा आदि पर रोक लगाने के आदेष जारी किये । महाराजा रामसिंह को वयस्क होने के बाद षासक के समस्त अधिकार दिये गये। 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन में महाराजा रामसिंह ने अॅग्रेजी की भरपुर सहायता की । अंग्रेजी सरकार ने इन्हें सितार-ए-हिन्द की उपाधि प्रदान की ।

1870 ई. में गवर्नर जनरल एवं वायसराय लार्ड मेयो ने जयपुर एवं अजमेर की यात्रा की । दिसम्बर,1875 ई. में गवर्नर जनरल लार्ड नार्थब्रुक तथा फरवरी , 1876 ई. में प्रिंस  आफ वेल्स प्रिंस अल्बर्ट ने जयपुर की यात्रा की। उनकी यात्रा की स्मृति में जयपुर में ‘अल्बर्ट हाल‘ (म्यूजियम) का शिलान्यास प्रिंस अल्बर्ट के हाथों करवाया गया। इनके समय सन् 1845 में जयपुर में महाराजा काॅलेज तथा संस्कृत कालेज का निर्माण हुआ। महाराजा रामसिंह के काल में जयपुर की काफी तरक्की हुई। 1980 इ. मे इनका निधन हो गया।

महाराजा माधोसिंह -द्वितीय:-

(1880-1922 ई.) सवाई रामसिंह के निःसंतान मर जाने से उनके गोद लिए हुए श्री माधोसिह जी-द्वितीय जयपुर के सिंहासन पर बैठे। इनके काल में रियासत की सभी तरह की उत्रति हुई। यं 1902 में ब्रिटिष सम्राट के राज्यभिषेक समारोह में षामिल होने इंग्लैण्ड गये। माधोसिंह जी ने  पंडित मदनमोहन मालवीय का जयपुर मंे भव्य स्वागत कर बनारस हिन्दु विष्वविद्यालय के लिए 5 लाख रूपये दिये थे।1922 ई. में इनकी मृत्यु हो गई। इसके बाद इनके दत्तक पुत्र महाराजा मानंसिंह-द्वितीय जयपुर की गद्दी पर आसीन हुए जो स्वतंत्रता प्राप्ति तक यहा के शासक रहे । ये जयपुर के अंतिम महाराजा थे। 30 मार्च,1949 को वृहत् राजस्थान के गठन के बाद इन्हें राज्य का प्रथम राजप्रमुख बनाया गया । इस पद पर इन्होंने 1 नवम्बर, 1956 को राज्यपाल की नियुक्ति तक कार्य किया।

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