मारवाड़ का इतिहास

राजस्थान की  अरावली पर्वतमाला के पष्चिमी भाग को ‘मारवाड़‘ के नाम से जाना जाता है, जिसमें मुख्यतः जोधपुर, बीकानेर, जालौर, नागौर, पाली, एवं आसपास के क्षेत्र शामिल होते हैं । इस भू-विभित्र काल – खण्डों  में अलग – अलग लोगो का शासन रहा। यहा के इतिहास की विश्वसनीय जानकारी छठी शताब्दी से उपलब्ध होती है। यहा प्रमुख राजवंषों का संक्षिप्त-अध्ययन निम्र प्रकार है।

गुर्जर – प्रतिहार:-

1.    उत्तरी – पष्चिमी भारत मे गुर्जर प्रतिहार वंष का षासन मुख्यतः आठवी से 10वीं सदी तक रहा। प्रारंभ मंे इनकी षक्ति का मुख्य केंद्र मारवाड़ था। उस समय राजपूताना का यह क्षेत्र गुर्जरात्रा (गुर्जर प्रदेष) कहलाता था। गुर्जर क्षेत्र के स्वामी होने  के कारण प्रतिहारों को गुर्जर-प्रतिहार कहा जाने लगा था। इसी कारण तत्कालीन मंदिर-स्थापत्य की प्रमुख कला षैली को गुर्जर-प्रतिहार शैली की संज्ञा दी गई है।

2.    आठवीं से दसवीं सी तक राजस्थान के गुर्जर-प्रतिहारों की तुलना में कोई प्रभावी  राजपुत वंष नही था। इनका आधिपत्य न केवल राजस्थान के पर्याप्त भू-भाग पर था बल्कि सुदूर ‘कन्नौज‘ नगर पर अधिकार हेतु 100 वर्षो तक गुर्जर प्रतिहारों, बंगाल के पालों एंव दक्षिण राष्ट्र कूटों के मध्यय अनवरत संघर्ष (त्रिपक्षीय संघर्ष) चलता रहा जिसमें अंततः विजयश्री गुर्जर प्रतिहारों को ही मिली है।

राजस्थान में गुर्जर-प्रतिहार की दो शाखाओं का अस्तित्व था-

1.मंडोर शाखा   2.भीनमाल (जालौर) शाखा

राजस्थान मे  गुर्जर-प्रतिहार की प्रारंभिक राजधानी मेडोर (जोधपुर) थंी। प्रतिहार षासन नागभट्ट प्रथम ने  आठवी शताब्दी में भीनमाल पर अधिकार कर उसे अपनी राजधानी बनाया ।बाद में इन्होने उज्जैन को अपने अधिकार में कर लिया एवं उज्जैन इनकी षक्ति का पुमुख केन्द्र हो गया । नागभट्ट प्रथम के उत्तराधिकारी कक्कुक एंव देवराज थे, परन्तु इनका षासनकाल महत्वपूर्ण नहीं था।

 वत्सराज (778-781 ई,):-

1.    देवराज का पुत्र वत्सराज गुर्जर-प्रतिहार वंष का प्रतापी शासन हुआ। उसने माण्डी वंष की पराजित किया तथा बंगाल के धर्मपाल को भी पराजित कियां। वत्सराज को ‘रणहस्तिन्‘  कहा गया है।

 नागभट्ट  द्वितीय (815 -833 ई.)

1.    वत्सराज का उत्तराधिकारी  उसकी पुत्र नागभट्ट द्वितीय सन् 815 मंे गद्दी पर बैठा। उसने 816 ई. मंे कत्रौज पर  आक्रमण पर चक्रायुद्ध (धर्मपाल द्वारा नामजाद षासक) को पराजित किया तथा। कत्रौज को प्रतिहार वंष की राजधानी बनाया तथा 100 वर्षाे से चले आ रहे त्रिपक्षीय संघर्ष को समाप्त किया। उसने बंगाल के पाल षासक धर्मराज  को पराजित कर मुंगेर पर अधिकार कर लिया । उसके समय प्रतिहाार उत्तरी भारत की सबसे षक्तिषाली राज्य बन चुका था। नागभट्ट द्वितीय ने अरब आक्रमणों को रोके रखने में महत्त्वपुर्ण भूमिका निभाई । उसने सन् 833 ई.  गंगा  में जल समाधि ली । नागभट्ट द्वितीय के समय प्रतिहार साम्राज्य का विस्तार राजपूताना के एक बडे़ भाग, आधुनिक उत्तर  प्रदेष के वृहत् क्षेत्र, मध्य भारत, उत्तरी काठियावाड़ एवं आसपास के क्षेत्रों तक हो गया था। नागभट्ट द्वितीय के बाद उसके पुत्र रामभद्र ने 833 ई. में षासन की बागडोर संभाली। परन्तु उसके अल्प षासनकाल (3 वर्ष) में कोई उल्लेखनीय कार्य नही हुआ प्रतिहारों की क्षति क्षीण हुई।

मिहिर भोज (836 – 885 ई.):

रामभद्र के उत्तराधिकारी मिहिर भोज (या मिहिर) के षासनकाल में प्रतिहारों की षक्ति अपने चरमोत्कर्ष पर पहुॅची। उसने बुन्देलखण्ड तक अपने वंश का राज्य पुनः स्थापित किया। इसका षासन पूर्वी पंजाब, अधिकांश राजपुताना उत्तर प्रदेश का अधिकांष भाग, सालवा, सौराष्ट्र एवं ग्वालियर तक विस्तृत हो गया ता। अरब यात्री ‘सुलेमान‘ ने (851 ई.) मिहिर भोज के कुषल प्रषासन एवं षक्तिषाली सेना की प्रशंसा की है राष्ट्रकूट षासक ध्रुव के मिहिर भोज के दक्षिणी क्षेत्रों में विजय अभियान पर रोक लगाई। परन्तु बाद में भोज ने राष्ट्रकूट षासन कृष्णा तृतीय को पराजित कार मालवा पर अधिकार कर लिया था । मिहिरभोज ने आदिवराह, प्रभास आदि विरूद धारण किये।

महेन्द्रपाल प्रथम: (885 – 910 ई.)

महेन्द्रपाल प्रथम के बाद षासन पर अधिकार हेतु संधर्ष छिड़ गया। महिपाल ने षासन की बागडोर संभाली। लेकिन तंब तक राष्ट्रकूट नरेष इन्द्र तृतीय ने प्रतिहारो को हराकर कत्रौज को नष्ट कर दिया उसके समय अरब यात्री ‘अल मसूदी‘ उसके राज्य में यात्रा पर आया था।

अंतिम प्रतिहार षासकों में एक षासक राज्यपाल था जिसके षासनकाल मंे सन् 1018 ई. मंे महमूद गजनवी ने  कन्नौज पर आक्रमण किया परन्तु राज्यपाल  मुकाबला करने के स्थान पर क़त्रौज छोड़कर सुरक्षित स्थान पर क़त्रौज  छौड़कर सुरक्षित स्थान पर अन्यत्र चला गया। उसके इस कायरतापुर्ण कार्य के फलस्वरूप चन्देल राजा गंड तथा उसके पुत्र विद्याधर ने उस पर आक्रमण कर उसे मार डाला। अन्ततः 11वीं सदी के पूर्वार्द्ध मंे ही गहड़वालों ने कत्रौज पर अधिकार कर अपना षासन स्थापित कियां। सन् 1036 ई. के एक अभिलेख में उल्लिखित यषपाल देव संभवतः अंतिम गुर्जर प्रतिहार षासन था। प्रारंभिक प्रतिहार षासकों की जानकारी भोज प्रतिहार की ग्वालियर प्रषस्ति, उद्योतन सूरी रचित ‘कुवलयमाला‘ पुरातन प्रबंध संग्रह एवं हरिवंष पुराण से मिलती है।

प्रतिहारों की मंडोर षाखा के एक षासक ने मेड़ता (मेड़न्तक) को अपनी राजधानी बनाया था इसी षाखा के षासक कक्क ने कत्रौज के प्रतिहार षासन नागभट्ट द्वितीय की और से बंगाल (गौड़ क्षेत्र) के षासक धर्मपाल के विरूद्ध युद्ध

आबू के परमार

परमार वंश का षासन राजस्थान माउन्टआबू एवं उसके आसपास के क्षेंत्रों पर था। इस वंश मूल पुरूष धुंधक था। इसी वंश के राजा धुंधक ने आबू का दण्डपति महाजन विमलषाह को बनाया, जिसने दिलवाड़ा के प्रसिद्ध आदिनाथ जैन मंदिर (विमलशाही) का निर्माण 1031 ई. में करवाया।

आबू के अलावा जालौर, वागड़ तथा मालवा पर भी परमारों के षासन का उल्लेख मिलता है वागड़ में इनकी राजधानी आर्थूणा थी, यहा इन्होंने कई मंदिर का निर्माण करवाया जो आज भी इनके वैभव की कहानी कहते है। मालवा का राजा भोज परमार एक प्रतापी षासक हुआ है जिसने स्वयं अनेक ग्रथों की रचना की एंव साहित्य तथा संगीत के उत्थान मंे योगदान दिया। 13वीं सदी के अंत तक परमार षासन का अंत हो गया था।

राठौड़ वंश:-

राजस्थान के राठौड़ों की उत्पत्ति के संबंध मं विभित्र मत हैं। मुणोत ने इन्हें कत्रौज के शासक जयचन्द गड़हवाल का वंषज माना है दयालदास की बीकानेर रा राठौड़ौ री ख्यात, जोधपुर की ख्यात, पृथ्वीराज रासौ आदि में भी इसी मत का समर्थन किया गया है जबकि पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा इन्हें  बदायु के राठोडों का वंषज मानते है। कुछ इतिहासकार इन्द्र दक्षिण  के राष्ट्रकूटों से उत्पन्न मानते है। परन्तु अधिकांष इतिहासकार मुहणात नैणसी के मत के पक्षधर है । इनके अनुसार जब मुहम्मद गौरी ने 1193 ई. मे कत्रौज पर आक्रमण कर राठौड़ जयचन्द गहड़वाल  को हराकर उसका राज समाप्त कर दिया तक कुछ वर्षाे बाद जयचन्द्र के पौत्र सीहाजी अपने कुछ राठौड़ सरादारों के साथ 13वीं सदी में राजस्थान का गये और पाली के उत्तर-पश्चिम में अपना छोटा सा राज्य स्थापित किया। सीहा के  उत्तराधिकारियों ने धीर-धीरे अपने का विस्तार किया। इस प्रकार राव सीहा मारवाड़ के राठौड़ वंश  के संस्थापक एवं आदि पुरूष थे।

राव चूडा :

राव सीहा के वंषज वीरमदेव का पुत्र राव चूडा इस वंष का प्रथम प्रतापी षासक हुआ, जिसने  माॅडू के सूबेदार से मंडोर दुर्ग छीनकर उसे अपनी राजधानी बनाया। उसने अपना राज्य विस्तार नाडौल, डीडवाना, नागौर आदि क्षेत्रों तक कर लिया। राव चूॅडा द्वारा अपने ज्येष्ट पुत्र को अपना उत्तराधिकारी न बनाये जाने पर उनका ज्येष्ट पुत्र रणमल मेवाड़ नरेष महाराणा लाखा की सेवा मंे चला गया । वहा उसने  अपनी बहन हंसाबाई का विवाह राणा लाखा से इस षर्त पर किया की उसने उत्पत्र पुत्र ही मेवाड़ का उत्तराधिकारी होगा।कुछ समय पष्चात रणमल ने मेवाड़ की सेना लेकर मंडोर पर आक्रमण किया और सन् 1426 में उसे अपने अधिकार में ले लिया । महाराणा लाखा के बाद उनके पुत्र मोकल तथा उनके बाद महाराणा कुंभा के अल्पवयस्क काल तक मेवाड़ के षासन की देखरेख रणमल के हाथों में ही रही। परंतु कुछ सरदारों के बहकावे में आकर महाराणा कुंभा ने सत् 1438 ई. में रणमल की हत्या करवा दी ।

राव जोधा (1438-1489 ई.)

अपने पिता रणमल की हत्या हो जाने के तुरंत बाद उनके पुत्र राव रोधा चुपचाप मेवाड़ से निकल भगा परंतु मेंवाड़ की सेना ने स्व. महाराणा मोकल के ज्येष्ठ भ्राता रावत चूॅडा के नेतृत्त्व में उनका पीछा किया औश्र मंडोर के किले पर मेवाड़ का अधिकार कर लिया। राव जोधा ने सन् 1453 ई. मे पुनः मडोर एवं आसपास के क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। सन् 1459 में राव जोधा चिडि़याटूॅक महाड़ी पर जोधपुर दुर्ग (मेहरानगढ़) का निर्माण करवाया और इसके पास वर्तमान जोधपुर षहर बसाया। उनके समय जोधपुर राज्य का अत्यधिक विस्तार हो चुका था। 1489 में राव जोधा की मृत्यु हो गई।

राव मालदेव (1531-1562):

अपने पिता राव गांगाजी की मृत्यु के बाद राव मालदेव 5 जून, 1531 को जोधपुर को सिंहासन पर बिठाने में पूरी सहायता  प्रदाान की । उन्होने सन्् 1541 में बीकानेर नरेष राव जैतसी को हरा बीकानेर पर अधिकार कर लिया। मुगल बादषाह हूमायॅॅू षेरषाह सूरी से हारने के बाद इनकी सहायता लेने के उद्देष्य से 1542 ई. में मारवाड़ आया था। राव मालदेव ने उसका उचित सत्कार कर सहायता का वचन दिय परंतु बाद में हुमायूॅ अमरकोट की तरफ चला गया।

गिरि सुमेल युद्ध -1543

1543 ई. में दिल्ली के अफगान बादषाह षेरषाह सूरी  ने मालदेव पर चढ़ाई की। जैतारण जिला पाली के निकट गिरि-सुमेल नामक स्थान पर जनवरी, 1544 में दानों  की सेनाओं के मध्य युद्ध हुआ जिसमें षेरषाह सूरी की बड़ी कठिनाई से विजय हुई। तब उसने कहा था कि ‘‘मुट्टी भर बाजरी के लिए मैनंे हिन्दुस्तान की बादषाहत खो दी होती ।‘‘ इस युद्ध मंे मालदेव के सबसे विष्वसस्त वीर सेनानायक जैता एंव कूॅपा मारे गए थे । इसके बाद षेरषाह के दुर्ग पर आक्रमण कर अपना अधिकार कर लिया तथा वहाॅ का प्रबन्ध खवास खाॅ को संभला दिया। मालदेव ने कुछ समय बाद पुनः समस्त क्षेत्र पर अपना अधिकार लिया था। 7 नवम्बर, 1562 को उसकी मृत्यु हो गई। मालेव न केवल  एक योद्धा एवं प्रतापी षासक ही था बल्कि एक भवन निर्माता भी था। उसने पोकरण का किला, कालकोट किला (मेड़ता), सोजत, सारन, रीया आदि किलों का निर्माण करवाया।

राव चन्द्रसेन  (1562-1581 ई.)

राव चन्द्रसेन मारवाड नरेश राव मालव के छठे पुत्र थे। इनका जन्म 16 जलाई, 1541 को हुआ। राव मालदेव के देहान्त के बाद उन्हों की इच्छानुसार उनका कनिष्ठ पुत्र राव चन्द्रसेन 1562 में जोधपुर की गद्दी पर बैठा। उस समय राव चंद्रसेन के तीनों बडे़ भाइयों  में सबसे बडे़ भाई  रामसिंह  अपनी जागीर गूॅदोच में, दूसरे रायमल्ल सिवाना में और तीसरे उदयसिंह फलोदी में थे। इस राज्यारोहण से असंतुष्ट सामंतों ने राव चंद्रसेन के भाइयों मंे कलह उत्पत्र कर दी । सन् 1563 में राव चन्द्रसेन ने  अपने  भाई रामंसिह  पर चढ़ाई  की । राम अपनी विजय की आषा न देखकर नागौर के षाही हाकिम हुसैन कुली बेग के पास चला गया और सहायता मांगी ।राव चंद्रसेन व उनके भाइयों की कलह का लाभ मुगल बादषाह  अकबर न उठाया। अकबर ने नागौर में अपने हाकिम हुसैनकुली बेग को राव चंद्रसेन पर चढ़ाई कर  जोधपुर का किला छीनने का आदेश दिया। युद्ध के दौरान राव चंद्रसेन परिवार सहित महल से चले गए 1564 ई. मं जोधपुर किले पर मुगल सेना का अधिकार हो गया।

नागौर दरबार:-

नवम्बर, 1570 ई.  में अकबर अजमेर से नागोर पहुॅचा और वहा कुछ समय तक अपना दरबार लगाया। राजस्थान के कई राजपूत  राजा उसकी सेवा में वहाॅ उपस्थित हुए और अकबर  की अधीकता स्वीकार की जिनमें जैसलमेर नरेष रावल हरराय जी, बीकानेर  नेरष कल्याण मल जी व उनके पुत्र रायसिंह जी तथा राव चंद्रसेन के बड़े भाई उदयसिंह जी प्रमुख थे। राव चंद्रसेन जी भी भाद्रजूण से नागौर दरबार में आये  थे परंतु अन्य राजाओं की तरह उन्होने अकबर की गुलामी स्वीकार नहीं की एवं चुपचाप वहा से भाद्राजूण चले गये । इस पर अकबर उनसे नाराज हो गए और उनको अपने अधीन करने के लिए सन् 1574 ई. में जलाल खाॅ व 1576-77 में षाहबाज खाॅ के नेतृत्व में अपनी सेनाएॅ भाद्राजूण भेजी। भाद्राजूण पर अकबर की सेना का अधिकार हो गया और राव चंद्रसेन वहाॅ से सिवाणा की तरफ निकल गये। इस प्रकार ‘नागौर दरबार‘ मारवाड़ की परतंत्रता की कड़ी मंे महत्त्वपूर्ण कड़ी साबित हुआ। अकबर ने इस दरबार के बाद जोधपुर का षासन बीकानेर के राजकुमार रायसिंह को संभला दिया।अकबर ने 30 अक्टूबर, 1572 ई. मंे बीकानेर के षासन कल्याणमल के पुत्र कुॅवर रायसिंह को जोधपुर का सूबेदार नियुक्त किया। अकबर ने सिवाणा पर भी एक मजबूत सेना भेज दी । इसमें षाहकुली खाॅ आदि मुसलमान  सेनानायाकांे के साथ ही  बीकानेर के राव रायसिंह जी, केषवदास मेड़तिया (जयमल का पुत्र,) जगतराय आदि हिन्दू नरेष और समंत थे। बादषाह की बड़ी इच्छा थी कि किसी तरह  राव चन्द्रसेन षाही  अधीनता  स्वीकार कर ले । यह सेना पहले  सोजत की तरफ गई और वहा पर इसने चन्द्रसेनजी के भतीजे कल्ला को हराया इसके बााद षाही सेना ने सीवाणा की तरफ प्रयाण किया। राव चन्द्रसेन अपने सेनापति  राठौड़ पत्ता को किले की रक्षा का भार सौपकर पीपलोद व काणूजा  पहाडि़यों  की तरफ  निकल गए। षाही सेना असफल रही । इसके बाद चन्द्रसेन जी को दबाने  के लिए 1574 इ. में जलाल खा को सिवाना भेजा गया लेकिन चन्द्रसेन के हाथों  वह मारा गया । फिर 1576-77 में षाहबाज खा के नेतृत्व में षाही सेना भेजी गई लेकिन चन्द्रसेन को पकड़ने में वह भी असफल रही।

राव चन्द्रसेन ने अंत में सारण के पर्वतों (सोजत) में अपना निवास कायम किया। यही पर सचियाप में 11 जनवरी 1581 को इनका अचानक स्वर्गवास  हो गया । सारण में जिस स्थान पर इनकी  दाह क्रिया की गई थी उस जगह इनकी संगमरमर की एक राव चन्द्रसेन की घोड़े पर सवार प्रतिमा अब तक विद्यमान है और उसके आगे 5 स्त्रियाॅ खड़ी है। इससे प्रकट होता है। कि उनके पीछे 5 सतिया हुई थी । राव चन्द्रसेनजी  ही अकबर कालीन राजस्थान के प्रथम मनस्वी वीर और स्वतंत्र प्रकृति के नरेष थे और  महाराणा प्रताप ने इन्हीं के दिखलाए मार्ग का अनुसरण किया था । वास्तव में उस समय राजपूताने  मे महाराणा प्रताप और राव  चन्द्रसेन यही दौ स्वाभिमानी  वीर  अकबर की आंखों के  कांटे बने थे।

राव चन्द्रसेन ऐसे प्रथम राजपूत षासक थे जिन्हों ने  रणनींंित में दूर्ग के स्थान पर जंगल और पहाड़ी क्षेत्र को अधिक महत्त्व दिया था। खुले युद्ध के स्थाप पर छापामार युद्ध प्रणाली  का महत्त्व स्थापित करने में राणा उदयसिंह के बाद वे दूसरे शासक थे। इस प्रणाली  का अनुसरण प्रताप ने किया था।

मोटाराजा राव उदयसिंह (1583-1595):-

राव चन्द्रसेन  के बडे़ भ्राता उदयसिंह नागौर दंरबार में अकबर की सेवा कर आ चुके थे, अतः इनकी वीरता व सेवा से प्रसन्न हो अकबर  ने उन्हें 4 अगस्त, 1583 को जोधपुर का षासक बना । दिया राव उदयसिंह  जोधपुर के प्रथम षासक थे जिन्होने मुगल  अधीनता स्वीकार कर अपनी पूत्री मानीबााई का विवाह षाहजादा सलीम से कर ंमुगलो से वैवाहिक संबंध स्थापित किये। राव उदयसिंह  ने अकबर  को अनेक युद्धों में विजय दिलवाई  और अन्ततः 1595 में लाहौर  में इनका   स्वर्गवास हुआ। मोटा राजा उदयसिंह ने मालदेव के समय प्रारंभ हुई सतत युद्ध की स्थिति को समाप्त कर जोधपुर  रियासत  को सुख शांति से जीने  का अवसर उपलब्ध कराया।

राव उदयसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र षूरसिंह  जी सन् 1595 में जोधपुर के सिंहासन पर आसीन हुए। बादषाह अकबर ने षूरसिह  जी की वीरता से प्रसत्र हो 1604 ई. में इन्हेें ‘सवाई राजा‘ की उपाधि से सम्मानित किया। षाहजाा खुर्रम के मेवाड़ अभियान में षूरसिंह जी ने  उसका पूरा साथ दिया था। षूरसिंह  जी बड़े प्रतापी व बुद्धिमान राजा थे। राव मालदेव  के बाद इन्होने की मारवाड़ राज्य की वास्तविक उन्नति की । षूरसिंह के बाद उनके पुत्र राव राजसिंह को उपाधि दी एवं इनके घोडो को शाही  दाग से मुक्त कर दिया। सन् 1638 में आगरे में इनका देहान्त हो गया। वही यमुना किनारे इनकी अन्त्येष्टि की गई।

महाराजा जसवंतसिंह (1638-1678 ई.)ः-

महाराजा गजसिंह के बाद उनके प्रिय पुत्र जसवंतसिह जोधपुर के षासक बने तथा इनका राजतिलक किया गया। षाहजहाॅ ने इन्हें ‘महाराजा‘ की उपाधि देकर सम्मानित किया। 1656 ई. में षाहजहाॅ के बीमार हो जाने  पर उनके चारो पुत्र में उत्तराधिकार का संघर्ष हुआ। महाराजा  जसवंतसिंह ने षाहजहाॅ  के बड़े पुत्र दाराषिकोह का साथ दिया और औरंगजेब को हराने  के लिए उज्जैन  की तरफ सेना लेकर गए।

महाराजा जसवंसिंह को बाद  में औरंगजेब  ने षिवाजी  के विरूद्ध दक्षिण में भेजा, जहा इन्होने शिवाजी को मुगलों से संधि करने हेतु राजी किया तथा षिवाजी के पुत्र षम्भाजी को शहजादा मुअज्जम के पास  लाये और दोनों के मध्य षांति संधि करवाई । इन्होनें औरंगाबाद के निकट जसवंतपुरा नामक कस्बा बसाया था। 28 नवम्बर, सन् 1678 में महाराजा का जमरूद (अफगानिस्तान) में देहान्त हो गया। इनके मंत्री मुहणोत नेणसी ने ‘नैणसी री ख्यात‘ एवं  ‘मारवाड़ का परगना री विगत‘ नामक दो महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक ग्रंथ लिखे थे, परन्तु अंतिम दिनों में महाराजा से अनबन हो जाने के कारण नेणसी को कैदखाने  में डाल दिया गया, जहा उसने आत्महत्या कर ली।

महाराजा जसवंतसिंह की मृत्यु के समय इनकी रानी गर्भवती थी परंतु जीवित उत्तराधिकारी के अभाव में औरंगजेब ने जोधपुर राज्य को मुगल साम्राज्य में मिला लिया। जसवंतसिंह की मृत्यु पर औरंगजेब ने कहा था कि ‘‘आज कुफ्र (धर्म विरोध) का दरवाजा टूट गया हैं।

महाराजा अजीत सिंहं:-

 महाराजा जसवत सिंह  की गर्भवती  रानी ने राजकुमार अजीतसिंह  को 19 फरवरी, 1679 को लाहौर में जन्म दिया। जौधपुर के राठौड़ सरदार वीर दुर्गादास एवं अन्य सरदारों ने मिलकर औरंगजेब से राजकुुमार अजीतंिसंह को जोधपुर का षासक घोषित करने की मांग की थी पंरतु औरंगजैब ने राजकुमार एवं रानियों की परवरिष हेतु दिल्ली दिल्ली अपने पास बुला लिया। इन्हें वहाँ रूपसिंह राठौड़ की हवेली में रखा गया । उसके मन में पाप आ गया था और वह राजकुमार को समाप्त कर जोधपुर  राज्य को हमेषा के लिए हड़पना चाहता था। वीर दुर्गादास औरंगजब की चालाकी को समझ गये और वे अन्य सरदारों के साथ मिलकर चालाकी से राजकुमार अजीतसिंह एवं  रानियों को ‘बाघेली‘ नामक महिला की मदद से औरंगजेब  के चंगुल से बाहर निकाल लाये और गुप्त रूप से सिरोही के कालिन्दी स्थान पर जयदेव नामक ब्राह्यण के घर पर उनकी परवरिष की । दिल्ली  में एक अन्य बालक की नकली अजीतसिंह के रूप में रखा। बादषाह औरंगजेब ने बालक को असली अजीतसिंह समझते हुए उसका नाम ‘मोहम्मदीराज‘ रखा। मारवाड़ में भी अजीतसिंह को सुरक्षित न देखकर वीर राठौड़ दुर्गादास ने मेवाड़ में षरण ली । मेवाड़ महाराणा राजसिंह ने अजीतसिंह के निर्वाह के लिए दुर्गादास को केवला की जागीर‘प्रादान की ।

देबारी समझौता:-

राजकुमार अजीत सिंह कच्छवाहा ,राजा सवाई जयसिंह व मेवाड़ महाराणा अमरसिंह द्वितीय के मघ्य समझौता देबारी स्थान पर हुआ ,समझौता जिसके अनुसार अजीतसिंह की मारवाड़ में, सवाई जयसिंह को आमेर मे पदस्थापित करने तथा महाराणा अमरसिंह द्वितीय की पुत्री का विवाह सुवाई जयसिंह से करने एवं इस विवाह से उत्पन्न पुत्र की सवाई जयसिंह का उत्तराधिकारी घाषित करने पर सहमति हुई।

औरंगजेब की मृत्यु के बाद महाराजा अजीतसिंह ने वीर दुर्गादास व अन्य सैनिको की मदद से जोधपुर पर अधिकार कर लिया और 12 मार्च, 1707 को उन्होंने अपने पैतृक षहर जोधपुर में प्रवेष दिया। बाद में गलत लोंगों के बहकावे में आकर महाराजा अजीतसिंह ने वीर दुर्गादास जैसे स्वामीभक्त वीर  को अपने राज्य से निर्वासित कर दिया, जहाॅ से वीर दुर्गादास दुःखी मन से मेवाड़ कीी सेवा में चले गये । महाराजा अजीतसिंह ने मुगल बादषाह फरूखषियर(Farukhsiyar) के साथ संधि कर ली और अपनी उनकी इन्द्र कुमारी का विवाह बादषाह से कर दिया। 23 जून, 1724 को महाराजा अजीतसिंह की इनके छोटे पुत्र बख्तसिंह सोते हुए में हत्या कर दी।

वीर दुर्गादास राठौड़:-

जन्म 13 अगस्त, 1638 को महाराजा जसवंसिंह प्रथम के मंत्री आसकरण के यहाँ मारवाड़ा के सालवा गाॅव में हुआ। महाराजा जसंवतसिंह के देहान्त के बाद राजकुमार अजीतसिंह की रक्षा व उन्हें जोधपुर को राज्य पुनः दिलाने में वीर दुर्गादास राठौड़ का महती योगदान रहा। इन्होंने अनेक कष्ट सहते हुए भी कुंवर अजीत सिंह की परवरिश की एवं अंत में उन्हें जोधपुर का षासन दिलवाया।

राजस्थान के इतिहास में मेवाड़ की पन्नाधय के पष्चात् दुर्गादास दूसरे व्यक्ति है। जिनकी स्वामिभक्ति अनुकरणीय है। उन्होंने जीवन भर अपने स्वामी मारवाड़ के महाराजाओं की सेवा की । ऐसे साहसी, वीर और कूटनीतिज्ञ के कारण ही मारवाड़ का राज्य स्थाई रूप से मुगल साम्राज्य का अंग नहीं बन सका।

वीर दुर्गादास की मृत्यु उज्जैन में 22 नवम्बर, 1718 को हुई। यहाँ शिप्रा नदी के तट पर इनकी छतरी बनी हुई है । दुर्गादास के लिए कहा जाता है कि- ‘मायड एडो पूत जण, जाडो दुर्गादास ! ‘

महाराजा मानंसिंह:-

(1803-1843 ईः) 1803 में उत्तराधिकार युद्ध के बाद मानसिंह जोधपुर सिंहासन पर बैठे जब मानसिंह जालौर में मारवाड़ की सेना से धिरे हुए थे, तब गोरखनाथ सम्प्रदाय के गुरू आयस देवनाथ ने भविष्यवाणी की, कि मानसिंह षीघ्र ही जोधपुर के राजा बनेंगे। अतः राजा बनते ही मानसिंह ने देवनाथ को जोधपुर बुलाकर अपना गुरू बनाया तथा वहाॅ नाथ सम्प्रदाय के ‘महामंदिर‘ का निमार्ण करवाया।

गिंगोली का युद्ध:-

मेवाड़ महाराजा भीमंिसंह की राजकुमारी कृष्णा कुमारी के विवाह के विवाद में जयपुर राज्य के महाराजा जगतसिंह की सेना, पिंडारियों व अन्य सेनाओं ने संयुक्त रूप से जोधपुर पर मार्च 1807 में आक्रमण राज्य कर दिया तथा अधिकांष हिस्से पर कब्जा कर लिया।परंतु षीघ्र ही मानसिंह ने पुनः सभी इलाको पर अपना कब्जा कर लिया।

सन् 1817 में मानसिंह को षासन का कार्यभार अपने पुत्र छत्रंिसंह को सौंपना पड़ा। परंतु छत्रसिंह की जल्दी ही मृत्यु हो गई। सन् 1818 में 16 मारवाड़ ने अंग्रेजों से संधि कर मारवाड़ की सुरक्षा का भार ईस्ट इंडिया कम्पनी को सौप दिया।

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