राजस्थान में किसान व राजनितिक आन्दोलन

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान राजस्थान के शासकों ने अंग्रेजों का तन – मन – धन से सहायता की थी युद्ध की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने यह अनुभव किया कि देशी राज्यों और रजवाड़ों को विश्वास में लेकर स्वराज की बढ़ती माँग के विरुद्ध एक अवरोध खड़ा किया जाए। इसलिए मान्टेग्यु चेम्सफोर्ड सुधारों के अन्तर्गत देशी राज्यों के' नरेन्द्र मण्डल' की स्थापना की गयी। इस समय भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व महात्मा गाँधी कर रहे थे, उन्होंने आन्दोलन को एक नई दिशा दी। इस समय राजस्थान से दो नये समाचार पत्र निकलने लगे। 'एक राजस्थान केसरी' नामक समाचार पत्र था, जिसके सम्पादक विजयसिंह दीपक थे। उनको रामनारायण चौधरी, हरि भाई किंकर और कन्हैयालाल कलयंत्री का सहयोग प्राप्त था। 15 मार्च, 1921 ई० को अजमेर में 'राजस्थान पोलिटीकल काँग्रेस' का अधिवेशन हुआ। इसके अध्यक्ष मोतीलाल नेहरु थे। इस अधिवेशन में यह निश्चित किया गया कि असहयोग आन्दोलन के समर्थन में विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार किया जाए। इस समय अंग्रेज सरकार द्वारा राजनीतिक बन्दियों को क्षमादान दिया जा चुका था। इसलिये अर्जुनलाल सेटी, केसरीसिंह बारहठ और गोपालसिंह जेल से रिहा कर दिये गए थे, अजमेर में असहयोग आन्दोलन आरम्भ हो गया और पूरा प्रदेश पुन: राजनीतिक हलचल का केन्द्र बन गया। मार्च 1920 में 'राजस्थान – मध्य भारत सभा' की स्थापना हुई। इस सभा के अध्यक्ष जमनालाल बजाज थे। इसके पूर्व 1919 में वर्धा में 'राजस्थान सेवा संघ' की स्थापना हो चुकी, जिसे 1920 में अजमेर में स्थानान्तरित कर दिया गया। जोधपुर, जयपुर, कोटा एवं बून्दी में भी सेवा संघ की शाखाएँ खोली गईं। सेवा संघ का मुख्य उद्देश्य जनता में राजनीतिक चेतना जागृत करना और उनकी कठिनाइयों को दूर करना था। चूँकि संघ के पदाधिकारियों में मतभेद था, जिसके कारण 1928के अन्त तक सेवा संघ प्राय: समाप्त हो चुका था। 1920 में नागपुर में काँग्रेस के अधिवेशन के साथ ही 'राजस्थान -मध्य भारत सभा' का अधिवेशन हुआ। राजस्थान – मध्य भारत सभा के अधिवेशन में देशी रियासतों की जनता पर होनेवाले अत्याचारों, जनता की गरीबी और अशिक्षा को दर्शाया गया था। इस समय काँग्रेस से अनुरोध किया कि वह देशी रियासतों की जनता की कठिनाइयों की ओर ध्यान दे। जोधपुर में जयनारायण व्यास के नेतृत्व में 'मारवाड़ हिताकारिणी सभा' की स्थापना हुई जो आगे चलकर जोधपुर में राजनीतिक आन्दोलन का आधार बनी। इसी बीच विजयसिंह पथिक के नेतृत्व में राजस्थान में बिजौलिया किसान आन्दोलन हो गया।

बिजौलिया का कृषक आन्दोलन व विजय सिंह पथिक विजयसिंह पथिक का वास्तविक नाम भूपसिंह था। उनका जन्म बुलन्दशहर जिले के गुढ़वाली ग्राम में एक गुर्जर परिवार में हुआ था। वह अपने जीवन के प्रारम्भ से ही क्रान्तिकारी था। उत्तर प्रदेश के क्रान्तिकारियों ने उन्हें राजस्थान में शस्र संग्रह के लिए नियुक्त किया गया था। पथिक ने भीलों, मीणों और किसानों में राजनैतिक चेतना जागृत की।1913 में उदयपुर राज्य की जागीर बिजौलिया ठिकाने के भयंकर अत्याचारों से त्रस्त किसानों ने साधु सीताराम के नेतृत्व में किसान आन्दोलन आरम्भ किया था। 1914 में इस आन्दोलन का नेतृत्व विजयसिंह पथिक ने संभाल लिया था। इस समय जागीरदारों द्वारा बिजौलिया के लोगों पर भारी कर लगाये गये थे और उनसे बलात् बेगार ली जाती थी। बिजौलिया आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य इन अत्याचारों के विरुद्ध आवाज उठाना था।1913 में साधु सीताराम के नेतृत्व में बिजौलिया के किसानों ने अपना विरोध प्रकट करने के लिये भूमि कर देने से इन्कार कर दिया और एक वर्ष के लिये खेती करना स्थगित कर दिया। इसके बाद 1915 ई० में साधु सीताराम चित्तौड़गढ़ गये। वहाँ उन्होंने विजयसिंह पथिक से सम्पर्क किया और उनसे बिजौलिया के जागीरदार द्वारा जनता पर किये जाने वाले अत्याचारों की कहानी सुनाते हुआ आन्दोलन का नेतृत्व संभालने का अनुरोध किया। पथिक ने बिजौलिया आन्दोलन का नेतृत्व करना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार बिजौलिया आन्दोलन को एक उत्साही और साहसी नेता मिल गया। 1916 में किसानों ने अन्याय और शोषण के विरुद्ध 'किसान पंच बोर्ड' की स्थापना की, जिसका अध्यक्ष साधु सीताराम को बनाया गया। इस समय किसानों ने विजयसिंह पथिक के आह्मवान पर युद्ध ॠण देने से इन्कार कर दिया। बिजौलिया आन्दोलन इतना उग्र हो गया था कि ब्रिटिश सरकार को इस आन्दोलन में रुस के बोल्शेविक आन्दोलन की प्रतिछाया दिखाई देने लगी। परिणामस्वरुप ब्रिटिश सरकार ने महाराणा और बिजौलिया के ठाकुर को आदेश दिया कि वे आन्दोलन को कुचल दें। इस पर बिजौलिया के ठाकुर ने इस आन्दोलन को कुचलने के लिए दमनकारी नीतियों का सहारा लिया। हजारों किसानों और उनके प्रतिनिधियों को जेलों में ठूंस दिया गया, जिनमें साधु सीतारामदास, रामनारायण चौधरी एवं माणिक्यलाल वर्मा भी शामिल थे। इस समय पथिक भागकर कोटा राज्य की सीमो में चला गया और वहीं से आन्दोलन का नेतृत्व एवं संचालन करता रहा। बिजौलिया के ठाकुर ने आन्दोलन को निर्ममतापूर्वक कुचलने का प्रयास किया, किन्तु किसानों ने समपंण करने से इन्कार कर दिया। रामनारायण चौधरी ने अपनी डायरी में लिखा है कि बिजौलिया आन्दोलन राष्ट्रीय भावना से प्रेरित था और प्रत्येक स्थान पर वन्दे मातरम् की आवाज सुनाई देती थी। इस आन्दोलन का समाचार सारे संसार में फैल गया। महात्मा गाँधी और तिलक जैसे नेताओं ने दमन नीति की निन्दा की। जब आन्दोलन ने उग्र रुप ले लिया, तब राजस्थान में ए० जी० सर हालैण्ड एवं मेवाड़ रेजीडेन्ट विलकिन्सन बिजौलिया पहुँचे, ताकि समस्या का समाधान निकाला जा सके। मेवाड़ राज्य के प्रतिनिधियों, बिजौलिया ठिकानों के प्रतिनिधियों ने वार्ता में भाग लिया। परिणामस्वरुप बिजौलिया के ठाकुर और वहाँ के किसानों के बीच एक समझौता हो गया। किसानों की अनेक मांगें स्वीकार कर ली गईं, उनमें बेगार प्रथा भी शामिल थी, बिजौलिया के किसानों का यह आन्दोलन सन् 1922 में वन्दे मातरम् के नारों के बीच समाप्त हुआ। बिजौलिया के किसानों की यह अभूतपूर्व विजय थी । इससे राजस्थान में सेवा संघ का प्रभाव बढ़ गया।

बेंगू का किसान आन्दोलन

बिजौलिया के बाद मेवाड़ के एक अन्य ठिकाने बेगूँ के किसानों ने वहाँ के ठाकुर के अत्याचारों के विरुद्ध 1921 में आन्दोलन आरम्भ कर दिया। बेगूँ के ठाकुर ने हिंसात्मक साधनों से आन्दोलन को कुचलने का प्रयास किया। ट्रेन्च ने बेगूँ पहुँचकर किसानों पर गोली चलवा दी तथा सिपाहियों ने घरों में घुसकर स्रियों का सतीत्व लूटा। परिणामस्वरुप आन्दोलन ने उग्र रुप धारण कर लिया। इसी बीच पथिक ने बेगूँ पहुँचकर आन्दोलन का संचालन किया। पथिक जी के मेवाड़ आने पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। अत: जब वे बेगूँ पहुँचे, तो उन्हें गिरफ्तार कर मुकदमा चलाया गया। पथिक जी के बयान से प्रभावित होकर न्यायालय ने उनको छोड़ दिया, परन्तु सरकार ने उन्हें नहीं छोड़ा। मेवाड़ सरकार ने अपनी विशेष शक्तियों का प्रयोग कर उन्हें पाँच वर्ष की कारावास की सजा दे दी। 1928 में पथिक को रिहा कर दिया गया तथा मेवाड़ से निष्कासित कर दिया गया। बेगूँ सत्याग्रह के सामने ठाकुर को झुकना पड़ और सत्याग्रहियों की मांगें स्वीकार करनी पड़ीं।

भोमट का भील आन्दोलन

मेवाड़ के एक भाग में भील बहुत संख्या में रहते हैं ।यह भाग भोमर के नाम से प्रसिद्ध है। भील स्वभाव से साहसी एवं स्वतंत्रताप्रिय जाति है। ये जाति अपनी परम्पराओं एवं रीतिरिवाजों में कानूनी हस्तक्षेप पसन्द नहीं करती है।1928 में भीलों के मद्यपान पर नियन्त्रण एवं अन्धविश्वास को दूर करने के लिए कुछ सुधार लागू किये गए। इसे भीलों ने अपनी परम्पराओं को उल्लंघन समझा और विद्रोह कर दिया। भीलों ने न केवल सरकारी अधिकारियों को मौत के घाट उतारा, अपितु महाजनों की दुकानों को भी आग लगा दी। अन्त में मेवाड़ के महाराणा के हस्तक्षेप करने पर भीलों के साथ सुलह हो गयी जिसमें उनकी समस्त माँगें स्वीकार कर ली गईं। फिर भी शान्ति स्थापित नहीं हो सकी। भीलों ने एक साथ विद्रोह नहीं किया था और उनके पास योग्य नेता का अभाव था। अत: सरकार ने सैनिक शक्ति से विद्रोह का दमन कर दिया। 1921-22 में मोतीलाल तेजावत के नेतृत्व में ईडर, डूंगरपुर, सिरोही एवं दाता आदि स्थानों में भील आन्दोलन पुन: प्रारम्भ हो गया। भीलों ने सम्पूर्ण भील क्षेत्र में एक ही पद्धति से भू – राज एकत्रित करने की माँग की, मोतीलाल तेजावत ने पहली बार मेवाड़, सिरोही, डूंगरपुर एवं ईडर के भीलों को संगठित किया। इस भील आन्दोलन को ब्रिटिश सरकार ने अपनी सत्ता को चुनौती समझा। ईडर के महाराणा ने मोतीलाल तेजावत के ईडर राज्य की सीमा में प्रवेश करने पर कानूनी प्रतिबन्ध लगा दिया। राजा ने भीलों के आन्दोलन को शक्ति से कुचलने का निश्चय किया। दो भील गाँवों को आग लगा दी, जिससे उन गरीबों का हजारों रुपयों का नुकसान हुआ और कई जानवर भी जलकर भ हो गये। इतना ही नहीं, शान्त भीलों पर गोलियों की बौछार की गयी। सरकार के इन अत्याचारों के कारण आन्दोलन पहले से अधिक तेज हो गया। ईडर की पुलिस ने भीलों के नेता तेजावत को गिरफ्तार कर मेवाड़ राज्य को सौंप दिया। मेवाड़ सरकार ने एक वर्ष तेजावत को जेल में बन्द रखा। मणीलाल कोठारी ने तेजावत को जेल से रिहा करवाने के प्रयास किये। जब मेवाड़ सरकार ने यह घोषणा कर दी कि तेजावत ने कोई अपराध नहीं किया है, तो तेजावत ने मेवाड़ सरकार राज्य विरोधी कार्य न करने तथा मेवाड़ राज्य के बाहर न जाने का वचन दिया। 1942में जब भारत छोड़ो आन्दोलन आरम्भ हुआ, तो तेजावत को पुन: गिरफ्तार कर लिया और फरवरी,1947 को रिहा कर दिया गया। भीलों में सर्वप्रथम मोतीलाल तेजावत ने राजनीतिक चेतना जागृत की। इसके बाद भीलों की आर्थिक स्थिति को सुधारने तथा उनके अन्ध – विश्वासों को दूर करने के लिए बनवासी संघ की स्थापना की गई।

मारवाड़ में किसान आन्दोलन

मारवाड़ में भी किसानों पर बहुत अत्याचार होता था। 1923 ई० में जयनारायण व्यास ने 'मारवाड़ हितकारी सभा' का गठन किया और किसानों को आन्दोलन करने हेतु प्रेरित किया, परन्तु सरकार ने 'मारवाड़ हितकारी सभा' को गैर – कानूनी संस्था घोषित कर दिया। अब कियान आन्दोलन का नेतृत्व मारवाड़ लोक परिषद ने अपने हाथों में ले लिया। इस संस्था ने किसानों को आन्दोलन हेतु प्रोत्साहित किया।

सरकार ने किसान आन्दोलन को ध्यान में रखते हुए मारवाड़ किसान सभा नामक संस्था का गठन किया, परन्तु उसे सफलता प्राप्त नहीं हुई। अब सरकार ने आन्दोलन का दमन करने हेतु दमन की नीती का सहारा लिया, परन्तु उससे भी कोई लाभ नहीं हुआ। चण्डावल तथा निमाज नामक गाँवों के किसानों पर निर्ममता पूर्वक अत्याचार किये गये तथा डाबरा में अनेक किसानों को निर्दयता पूर्वक मार दिया गया। इससे सम्पूर्ण देश में उत्तेजना की लहर फैल गई, किन्तु सरकार ने इसके लिए किसानों को उत्तरदायी ठहराया। आजादी के बाद भी जागीरदार कुछ समय तक किसानों पर अत्याचार करते रहे, परन्तु राज्य में लोकप्रिय सरकार के गठन के बाद किसानों को खातेदारी के अधिकार मिल गये।

नीमचूणा आन्दोलन 1925 में अलवर राज्य की दो तहसीलों – बानसूर व गाजी का थाना में आन्दोलन आरम्भ हो गया, यह आन्दोलन सरकार द्वारा लागू किये गये नये करों के विरोध में था। राज्य की सेनाओं ने इस आन्दोलन को कुचलने के लिए दोनों गाँवों को घेर लिया और गोलीबारी आरम्भ कर दी। परिमामस्वरुप15 व्यक्ति मारे गये और 250 से अधिक घायल हुए। सरकार की दमन नीति के फलस्वरुप राज्य में भय का वातावरण उत्पन्न हो गया। इसके बाद 1932 में मेव -मुसलमानों के आन्दोलन आरम्भ हो गया। मेवों ने मांग की कि राज्य में कुरान की शिक्षा पर प्रतिबन्ध न हो और शिक्षा का माध्यम उर्दू को बनाया जाए। धीरे – धीरे यह धीरे राज्य की सीमा से बाहर भी फैल गया। अन्त में अलवर महाराजा ने 1933 में ब्रिटिश सेनाओं के द्वारा इस आन्दोलन को कुचल दिया गया और इस क्षेत्र में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित की।1935 में राज्य के ठाकुर और किसानों ने लगान वृद्धि के विरोध में आन्दोलन आरम्भ कर दिया। इस आन्दोलन को कुचलने के लिए राज्य की फौज ने नीमचूणा गाँव में एक सभा में बैठे लोगों को चारों ओर से घेरकर पौन घण्टे तक गोलियाँ चलाई, जिससे सैकड़ो लोग मारे गये। सरकार की दमन नीति के फलस्वरुप राज्य में आतंक फैल गया। नीमचूणा गांव की घटना से राज्य में असंतोष फैल गया। अत: अक्टुबर1937 में अलवर महाराज के इंग्लैण्ड से लौटने पर लोकप्रिय सरकार की स्थापना की माँग को लेकर आन्दोलन आरम्भ हो गया।1938 में अलवर प्रजा मण्डल की स्थापना हुई। राज्य सरकार ने अनेक व्यक्तियों को गिरफ्तार कर कारावास की सजा दी। राज्य में स्थिति तनावपूर्ण हो गई, परन्तु 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के आरम्भ हो जाने से वातावरण कुछ ठण्डा हुआ।

जयपुर का आन्दोलन

जयपुर महाराज के निरंकुश शासन के विरुद्ध 1927 में आन्दोलन आरम्भ हो गया।1931 ई० में जयपुर में प्रजा मण्डल की स्थापना हुई, जिसका मुख्य उद्देश्य उत्तरदायी सरकार की मांग करना तथा नागरिकों को अधिकार दिलाना था। इस आन्दोलन के मुख्य नेता पण्डित हीरालाल शास्री एवं सेठ जमनालाल बजाज आदि थे। सरकार ने शक्ति से इस आन्दोलन को कुचलने का प्रयास किया। परिणामस्वरुप जनता ने सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ कर दिया। राज्य सरकार ने अत्याचार प्रजा मण्डल को मान्यता नहीं दी और लोगों पर अमानवीय अत्याचार किये। इस समय 500 व्यक्ति गिरफ्तार किये गये, जिनमें सेठ जमनालाल बजाज और हीरालाल शास्री आदि शामिल थे। अन्त में 9 मार्च 1939 ई० में राज्य सरकार ने विवश होकर सभी गिरफ्तार व्यक्तियों को रिहा कर दिया गया और प्रजा मण्डल को मान्यता दे दी। इसी प्रकार भरतपुर में महाराजा के निरंकुश शासन के विरुद्ध आन्दोलन छिड़ गया।1929 में भरतपुर पीपुल्स एसोसियेशन की स्थापना हुई, जिसने राज्य में सविनय अवज्ञा आन्दोलन का संचालन किया। राज्य सरकार ने दमन नीति का सहारा लिया। अन्त में विवश होकर 1939 में प्रजा मण्डल को मान्यता देना स्वीकार कर लिया। बीकानेर में महाराजा के निरंकुश शासन के विरुद्ध आन्दोलन छिड़ गया। पंचायत बोर्ड के सरपंच रामनारायण के नेतृत्व में उत्तदायी सरकार की मांग की गई, परन्तु राज्य की पुलिस ने उसे निर्ममतापूर्वक पीटा। इतना ही नहीं महात्मा गाँधी की जय व जयहिन्द के नारों पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया गया।

जोधपुर में आन्दोलन

जोधपुर में जयनारायण व्यास ने हितकारिणी सभा की स्थापना की। इसके बाद उन्होंने आन्दोलन आरम्भ कर दिया। इस समय' पीपाबाई की पोल 'नामक पुस्तक प्रकाशित हुई थी, जिसमें प्रशासन की कटु आलोचना की गई थी।19 सितम्बर, 1929 ई ० में जयनारायण व्यास और आनन्द राज सुराणा ने सार्वजनिक सभा को सम्बोधित करने के बाद लोगों में यह पुस्तक वितरित की। परिणामस्वरुप जयनारायण व्यास और आनन्द राज सुराणा एवं भंवरलाल सर्राफ को गिरफ्तार कर लिया गया तथा उन्हें तीन वर्ष के कारावास की सजा दी गई। जनता द्वारा विरोध करने पर पुलिस ने लाठीचार्ज किया तथा अनेक आंदोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया जिनमें कुछ विद्यार्थी भी थे।1931 में सरकार ने जयनारायण व्यास तथा उनके साथियों को जेल से रिहा कर दिया गया। इस समय जोधपुर में सविनय अवज्ञा आन्दोलन आरम्भ हो गया। अत: जयनारायण व्यास एवं उनके साथियों को पुन: गिरफ्तार कर लिया गया। इतना ही नहीं, सरकार ने मारवाड़ हितकारिणी सभा को गैर कानूनी घोषित कर दिया। सरकार ने आन्दोलन का दमन करने के लिए अनेक दमनकारी कानून लागू किये। फिर भी1934 में मारवाड़ प्रजामण्डल नामक संस्था की स्थापना हुई। सरकार ने प्रजामण्डल को भी गैरकानूनी घोषित कर दिया तो, नागरिक अधिकार रक्षक सभा की स्थापना की गई। परन्तु सरकार तो आंदोलन को कुचलने पर तुली हुई थी, अत: सितम्बर1936 को आंदोलनकारी नेताओं को बन्दी बनाकर परबतसर के किले में नजरबन्द कर दिया। अब अचलेश्वर प्रसाद शर्मा ने आन्दोलन का नेतृत्व सम्भाला, 1937 में उन्हें भी गिरफ्तार कर लिया गया। मारवाड़ प्रजामण्डल और नागरिक अधिकार रक्षक सभा गैरकानूनी घोषित हो चुके थे। अत: 1938 में 'मारवाड़ लोक परिषद' नामक संस्था की स्थापना की गई, जिसने 1940 में उत्तरदायी सरकार की स्थापना के लिए आन्दोलन किया।

उदयपुर में आन्दोलन

उदयपुर महाराणा के निरंकुश शासन के विरुद्ध जनता में घोर असंतोष व्याप्त था। बिजौलिया के किसानों ने ठाकुर के विरुद्ध आन्दोलन आरम्भ कर दिया था। अन्त में ठाकुर को किसानों की माँगें स्वीकार करनी पड़ी थीं।जुलाई, 1932 में महाराणा ने कुछ नये कर लगाये, जिनका विरोध करने के लिए उदयपुर के नागरिक पीपलीघाट में एकत्रित हुए। 4 अप्रेल,1935 को रामसिंह ने अजमेर में इन्सपैक्टर खलीलउद्दीन की हत्या करने का असफल प्रयास किया। पुलिस ने खोजबीन के बाद रामसिंह को गिरफ्तार कर लिया। रामसिंह ने पुलिस को बताया कि हत्या की यह योजना ज्वालाप्रसाद ने बनाई थी और रिवाल्वर भी उसी ने दिया था। परिणामस्वरुप पुलिस ने 29 , अप्रैल 1935 ई० को ज्वालाप्रसाद को गिरफ्तार कर लिया। जेल में उन्होंने सी० आई० डी० पुलिस अधीक्षक मुमताज हुसैन को एक धमकी भरा पत्र लिखा, जिसमें कहा कि यदि उन्होंने समस्त क्रान्तिकारियों को जेल से रिहा नहीं किया, तो उनकी भी हत्या कर दी जाएगी। इस पत्र के बाद ज्वालाप्रसाद को दिल्ली की जेल में भेज दिया गया। ब्रिटिश सरकार ज्वालाप्रसाद को सशर्त रिहा करने को तैयार थी, परन्तु ज्वालाप्रसाद ने सशर्त रिहा होने से इन्कार कर दिया। अन्त में 19 मार्च, 1939 ई० को महात्मा गाँधी ने उन्हें रिहा करवाया। जेल से रिहा होने के बाद ज्वालाप्रसाद 22 मार्च को अजमेर पहुँचे, तो उनका भव्य स्वागत किया गया। इसके बाद जयनारायण व्यास की अध्यक्षता में एक सभा हुई। सभा में नृसिंह एवं कुमारानन्द आदि वक्ताओं ने भाषण दिये। उन्होंने अपने भाषण में कहा कि भारतीयों को जर्मनी तथा इटली में शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए तथा ज्वालाप्रसाद के पदचिन्हों पर चलना चाहिए।

 

Leave a Reply