लोक सन्त

राजस्थान के पुरूष लोक सन्त

1. रामस्नेही सम्प्रदाय – इसके प्रवर्तक संत रामचरण दास जी थे। इनका जन्म टोंक जिले के सोड़ा गाँव में हुआ था। इनके मूल गाँव का नाम बनवेडा था। इनके पिता बखाराम व माता देऊजी थी तथा वैश्य जाति के थे। इन्होंने यहाँ जयपुर महाराज के यहाँ मंत्री पद पर कार्य किया था। इसका मूल रामकिशन था। दातंडा (मेवाड़) के गुरू कृपाराम से दीक्षा ली थी। इनके द्वारा रचित ग्रन्थ अर्ण वाणी है। इनकी मृत्यु शाहपुरा (भीलवाड़ा) में हुई थी। जहाँ इस सम्प्रदाय की मुख्यपीठ है। पूजा स्थल रामद्वारा कहलाते हैं तथा इनके पुजारी गुलाबी की धोती पहनते हैं। ढाढी-मूंछ व सिर पर बाल नहीं रखते है। मूर्तिपुजा नहीं करते थे। इसके 12 प्रधान शिष्य थे जिन्होंने सम्प्रदायक प्रचार व प्रसार किया।

रामस्नेही सम्प्रदाय की अन्य तीन पीठ
1. सिंहथल बीकानेर, प्रवर्तक – हरिदास जी
2. रैण (नागौर) प्रवर्तक – दरियाआब जी (दरियापथ)
3. खेडापा (जोधपुर) प्रवर्तक संतरामदासजी

2. दादू सम्प्रदाय – प्रवर्तक – दादूदयाल, जन्म गुजरात के अहमदाबाद में, शिक्षा – भिक्षा – संत बुद्धाराम से, 19 वर्ष की आयु में राजस्थान में प्रवेश राज्य में सिरोही, कल्याणपुर, अजमेर, सांभर व आमेर में भ्रमण करते हुए नरैणा (नारायण) स्थान पर पहुँचे जहाँ उनकी भेंट अकबर से हुई थी। इसी स्थान पर इनके चरणों का मन्दिर बना हुआ है। कविता के रूप में संकलित इनके ग्रन्थ दादूबाडी तथा दादूदयाल जी दुहा कहे जाते हैं। इनके प्रमुख सिद्धान्त मूर्तिपुजा का विरोध, हिन्दू मुस्लिम एकता शव को न जलाना व दफनाना तथा उसे जंगली जानवरों के लिए खुला छोड़ देना, निर्गुण ब्रह्मा उपासक है। दादूजी के शव को भी भराणा नामक स्थान पर खुला छोड़ दिया गया था। गुरू को बहुत अधिक महत्व देते हैं। तीर्थ यात्राओं को ढकोसला मानते हैं।

(अ) खालसा – नारायण के शिष्य परम्परा को मानने वाले खालसा कहलाते थे। इसके प्रवर्तक गरीबदास जी थे।
(ब) विखत – घूम-घूम कर दादू जी के उपदेशों को गृहस्थ जीवन तक पहुँचाने वाले।
(स) उतरादेय – बनवारी दास द्वारा हरियाणा अर्थात् उत्तर दिशा में जाने के कारण उतरादेय कहलाये।
(द) खारवी – शरीर पर व लम्बी-लम्बी जटाएँ तथा छोटी-छोटी टुकडि़यों में घूमने वाले।
(य) नागा – सुन्दरदास जी के शिष्य नागा कहलाये।

दादू जी के प्रमुख शिष्य –

1. बखना जी – इनका जन्म नारायणा में हुआ था। ये संगीत विद्या में निपुण थे। इनको हिन्दू व मुसलमान दोनों मानते थे। इनके पद व दोहे बरचना जी के वाणी में संकलित थे।
2. रज्जब जी – जाति – पठान, जन्म – सांगानेर, दादू जी से भेंट आमेर में तथा उनके शिष्य बनकर विवाह ना करने की कसम खाई। दादू की मृत्यु पर अपनी आखें बद कर ली व स्वयं के मरने तक आँखें नहीं खोली। ग्रन्थ वाणी व सर्ववंगी।
3. गरीबदास जी – दादू जी ज्येष्ठ पुत्र तथा उत्तराधिकारी।
4. जगन्नाथ – कायस्थ जाति के, इनके ग्रन्थ वाणी व गुण गंजनाम।
5. सुन्दरदास जी – दौसा में जन्मे, खण्डेलवाल वैश्य जाति के थे। 8 वर्ष की आयु में दादू जी के शिष्य बने व आजीवन रहे।
6. रामानन्दी सम्प्रदाय – ये वैष्णव सम्प्रदाय से संबंधित है। इसकी प्रथा पीठ गलता (जयपुर) में है। इसे उतरतोदादरी भी कहा जा। इसके प्रवर्तक रामानन्द जी थे जिनके कबीर शिष्य थे इनके शिष्य कृष्णचन्द प्यहारी (आमेर) थे जिन्होंने इस क्षेत्र में नाथ सम्प्रदाय के प्रभाव को कम कर रामानुज सम्प्रदाय का प्रभाव स्थापित किया। गलता तीर्थ में राम-सीता को जुगल सरकार के रूप में आर्धुय भाव में पूजा जाता है इसमें राम को सर्गुण रूप से पूजा जाता था।
7. जसनाथी सम्प्रदाय – प्रवर्तक संत जसनाथ जी थे जो महान पर्यावरणविद्ध भी थे इनका जन्म कतरियासर (बीकानेर) में हुआ। ये नाथ सम्प्रदाय के प्रवर्तक थे। इनका जन्म हमीर जाट के यहाँ हुआ था। इनके अधिकांश अनुयायी जाट जाति के लोग है जो बीकानेर गंगानगर, नागौर, चुरू आदि जिलो में थे। ये गले में काली उन का धाना बांधते हैं। इनके प्रमुख ग्रन्थ सिंह भूदना तथा कोण्डों थे। इन्होंने अपने अनुयायियों को 36 नियमों का पालन करने को कहा था। ये अत्यन्त प्रकृति प्रेमी थे। इनके अनुयायी रात्रि जागरण, अग्नि नृत्य करते हैं तथा निर्गुण भ्रम की उपासना करते थे। जीव हत्या का विरोध, तथा जीव भ्रम एकता का समर्थन किया। कतरियासर में प्रतिवर्ष अश्विन शुक्ल सप्तमी में मेला भरता है।
8. जाम्भो जी सम्प्रदाय – पंवार राजपूत जाम्भो जी का जन्म नागौर जिले के पीपासर गाँव में हुआ था। इनके पिता लोहट व माता हँसा देवी थी। ये बाल्यावस्था में मननशील व कम बोलने वाली थी। अत्यन्त कम आयु में घर त्याग बीकानेर के समराथल चल गये। वही शेष जीवन व्यतीत किया। इनके मुख से बोला गया प्रथम शब्द गुरू मुख धर्म बखानी था। इन्होंने विश्नोई सम्प्रदाय की समराथल में स्थापना की। तथा 2019-29 नियमों की स्थापना की थी। इनमें जीव हत्या, प्रकृति से प्रेम, छूआछूत का विरोध, जीवों में प्रति दया आदि थे इन्होंने प्रमुख का अत्यधिक महत्व दिया तथा तालवा मुकाम नामक स्थान पर अपना शरीर त्यागा। यही पर इनकी समाधि तथा विश्नोई सम्प्रदाय का मन्दिर है। यह आजीवन ब्रह्मचारी रहे। इन्होंने विष्णु नाम पर अत्यधिक जोर दिया तथा जम्भसागर ग्रन्थ की रचना की। इनसे प्रभावित होकर बीकानेर नरेश ने अपने राज्यवृ़क्ष में खेजड़े को स्थान दिया।
इनके नियम – नीला वस्त्र नहीं धारण करना, तम्बाकू, भांग व अफीम का सेवन नहीं करना, हरे वृक्ष नहीं काटना।
9. लालदास जी सम्प्रदाय – प्रवर्तक लालदास जी, जाति – मेव, जन्म धोली धूप, अलवर। पिता – चादलमल, माता सन्दा थी। निर्गुण भ्रम के उपासक, व हिन्दू मुस्लिम एकता पर जोर। मृत्यु नगला (भरतपुर) में हुई। इनका शिष्य निरंकारी होना चाहिए तथा उसे काला मुँह करके गधे पर बिठाकर पूरे समाज में घुमाया जाता है तथा उसके बाद मीठा वाणी बोलने के लिए शरबत मिलाया जाता है। लालदास जी का प्रमुख ग्रन्थ वाणी कहलाता है। इन्हें शेरपुर (रामगढ़) गाँव में समाधि दी गई थी। प्रतिवर्ष अश्विन शुक्ल ग्यारह व माघ शुक्ल पूर्णिमा को इनके समाधि स्थल पर मेला भरता है। इनके अनुयायी मेव जाति में विवाह करते हैं।
10. रामदेव जी – नाथ सम्प्रदाय को महाराज की अनुग्रह से इनका जीवन वैभवपूर्ण होता था और राजव्यवस्था में प्रभाव होता है। निम्बार्क उपनाम – हंस, सनकादिक, नारद। प्रवर्तक – निम्बार्काचार्य। उपासना – राधाकृष्ण के युगल स्वरूप की। निम्बार्काचार्य के बचपन का नाम – भास्कर तेलगंन ब्राह्मण थे, जन्म आन्ध्रप्रदेश भारत में मुख्य पीठ – वृन्दावन, राजस्थान में मुख्य पीठ – सलेमाबाद अजमेर। अन्य पीठ – उदयपुर, जयपुर। सलेमाबाद पीठ की स्थापना पशुराम देवाचार्य ठिठारिया (सीकर)  इनके अनुयायी तुलसी की लकड़ी की कंठी तथा आकार तिलक लगाते हैं।
11. गौण्डिय सम्प्रदाय – प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभु, जन्म – पश्चिम बंगाल प्रधान पीठ – राधेगोविन्द मन्दिर (जयपुर), चार कृष्ण प्रतिमाएँ पूज्य हैं (1) जीव गोस्वामी – राधागोविन्द (जयपुर) (2) लोकनाथ स्वामी – राधादामोदर (जयपुर) (3) मधुपण्डित – गोपीनाथ (जयपुर) (4) सनातन गोस्वामी – मदनमोहन (करौली)
12. वैष्णव सम्प्रदाय – विष्णु के उपासक, प्रधान गद्दी – नाथद्वारा, कोटा, रामानुज, रामानन्दी, निम्बार्क, वल्लभ सम्प्रदायों का उपसम्प्रदाय है तथा अवतारवाद में विश्वास करता है।
13. निरंजन सम्प्रदाय – प्रवर्तक हरिदास निरंजनी जम्न – कापडोद, नागौर, सांखला राजपूत थे। प्रमुख पीठ – गाडा (नागौर)। डकैती को छोड़कर भक्ति मार्ग को अपनाया। राजस्थान के वाल्मिकी। इनके शिष्य घर बारी व विहंग। प्रमुख ग्रन्थ भक्त, विरदावली, भृर्तहरि संवाद, साखी।
उदयपुर घराना शैव मत को मानना प्रमुख
14. परनामी सम्प्रदाय – प्रवर्तक प्राणनाथ जी। जन्म – जामनगर, गुजरात। प्रधान पीठ – पन्ना, मध्यप्रदेश में, प्रमुख ग्रन्थ – कुलजनम स्वरूप। राजस्थान में प्रमुख मन्दिर आदर्श नगर, जयपुर में है। मुख्य आराध्य देव कृष्ण थे।
15. वल्लभ सम्प्रदाय – इसके प्रवर्तक वल्लभ आचार्य थे। जन्म चंपारन, मध्यप्रदेश में। उपागम पुष्टिमार्ग, उपासना कृष्ण, बालस्वरूप, गोवर्धन पर्वत पर श्रीनाथ जी मन्दिर निर्माण करवाया। जोधपुर के महाराज जसवन्त सिंह प्रथम के काल में कन्दमखण्डी ( ) में श्रीनाथ जी की मूर्ति स्थापित की। दामोदर पुजारी द्वारा। औरंगजेब के आक्रमण के समय श्रीनाथ जी मन्दिर मूर्ति लेकर मेवाड़ के नाथद्वारा में ठहरा। तब से यह वल्लभ सम्प्रदाय का प्रधान केन्द्र बन गया।
16. नाथ सम्प्रदाय – प्रवर्तक नाथ मुनि, वैष्णव व शैव सम्प्रदाय का संगम। चार प्रमुख गुरू मतसेन्द्र नाथ, गौरखनाथ, जालन्धरनाथ, कन्नीपाव। गौरखनाथ ने इसमें हठ योग प्रारम्भ। प्रधान मन्दिर/पीठ – महामन्दिर (जोधपुर)। इसकी तीन शाखाएँ है – (1) जोगी – योग क्रिया द्वारा आकाश में उड़ना, पानी पर चलना आदि। (2) मसानी जोगी – यह चिडि़यानाथ के शिष्य थे। इन्हें जोधपुर महाराज द्वारा विशेष अनुदान प्राप्त होता था। इसलिए इनको तात्रिक क्रियाएँ करने के लिए शवों के आधे कफन का अधिकार प्राप्त हुआ। इनका गुरू आसन प्लासनी जोधपुर। (3) कलाबेलिया जोगी – यह कानीपाव के शिष्य है तथा साँप – बिच्छुओं के जहर को उतारना का काम करते हैं। कालबेलिया कहलाये।
17. सन्त पीपा – इनका जन्म पींपासर (नागौर) में हुआ। मूल नाम – प्रताप सिंह। यह गागराने की खींची चैहान शासक थे। रामानन्द के शिष्य। दर्जी समाज के आराध्य देव। समदण्डी बाड़मेर में इनका मन्दिर है। इनका अन्तिम समय टोडाग्राम (टोंक) में हुआ था जहाँ इनकी गुफा है इनके अन्य मन्दिर मसूरिया (जोधपुर व गागरोन)
18. संत धन्ना – इनका जन्म धुवन (टोंक) में हुआ। शिष्य रहे रामानन्द के। राजस्थान के भक्ति आन्दोलन का श्री गणेश किया।
19. संतमावसी/भावजी – जन्म – साँवला (डूंगरपुर) बणेश्वर धामें संस्थापक श्री कृष्ण के निष्कंलग के अवतार, वाणी – चैपड़ा, पुत्रवधु जनकुमारी द्वारा बणेश्वर में सवधर्म समन्वयधारी मंदिर की स्थापना करवायी गयी।
20. संत चरणदास – जन्म डेरा मेवात, चरणदासी सम्प्रदाय के प्रवर्तक मेला – बंसत पंचमी घर दिल्ली में, प्रमुख ग्रन्थ – भक्तिसागर भ्रमचरित, भ्रमज्ञानसागर। इनके 52 शिष्य थे।
21. भक्त कवि दुर्लभ – जन्म – बांगड क्षेत्र में, कृष्ण भक्ति के उपदेशक, राजस्थान के नृसिंह रहे हैं।
22. संत रेदास/रविदास – कबीर के समकालीन, जन्म – बनास रामानन्द के शिष्य। वाणी – रेदास की पर्ची, राजस्थान में चित्तौड़गढ़ में मीरा की छतरी के सामने इनकी छतरी है।
23. बालनन्दचार्य – बचपन का नाम – बलवन्त शर्मा गौड, गुरू – बिरजानन्द महाराज झून्झूनु के लौहार मल तीर्थ में मालकेतु पर्वत पर हनुमान जी की आराधना की तथा पीठ की स्थापना कर रघुनाथ जी का मन्दिर बनवाया। मुस्लिमों से धर्म की रक्षा हेतु साधुओं का सैन्य संगठन लश्कर (लश्करी संत) बनाया।

राजस्थान के महिला लोक सन्त

1. करमेती बाई – यह खण्डेला के राज पुरोहित पशुराम काथडिया की बेटी थी। विवाह के पश्चात् विदा होने से पूर्व रात्रि में कृष्ण भक्ति में लीन होने के कारण वृन्दावन चली गई। घुड़सवारों से बचने के लिए मृतक ऊँट के पेट के खोल में जा छिपी। वृन्दावन के ब्रह्मकुण्ड में आजीवन कृष्ण की भक्ति करती है। खण्डेला के ठाकुर ने इनकी स्मृति में ठाकुर बिहारी मन्दिर का निर्माण करवाया।
2. सहजो बाई – संत चरणदास की शिष्या सहजो बाई ने सहज प्रकाश सोलह तिथी शब्दवाणी आदि की रचना की। यह शिक्षित थी।
3. करमा बाई – अलवर के गढीसामोर की विधवा ने आजीवन कृष्ण भक्ति में सिद्धा अवस्था प्राप्त की।
4. फूली बाई – जोधपुर के मानजवास गाँव की आजीवन विवाह नहीं किया। जोधपुर महाराज जसवन्त सिंह की समकालीन थी। स्त्री शिक्षा व उदार में विशेष योगदान दिया।
5. समान बाई – अलवर के माहुन्द गाँव की निवासी थी। भक्त रामनाथ की पुत्री थी। इन्होंने आजीवन अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर रखी तथा अन्य किसी को देखना नही चाहती थी। इन्होंने राधा-कृष्ण के मुक्तक पद्यों की रचना की।
6. भोली गुर्जरी – करौली जिले के बुग्डार गाँव की निवासी, कृष्ण के मदन मोहन स्वरूप की उपासक थी। दूध बेचकर जीवनयापन करती थी। कृष्ण भक्ति से चमत्कार करती थी।
7. दया बाई – यह कोटकासिम के डेहरा गाँव की निवासी थी। संत चरणदास के चाचा केशव की पुत्री थी। यह माँ से कथा सुनने के बाद कृष्ण भक्ति में लीन होती गई। और विवाह ना करके संत चरणदास की शरण में चली गई। इन्होंने ‘‘दयाबोध’’ नामक ग्रन्थ की रचना की। इनकी मृत्यु बिठुर में हुई थी।
8. कर्मठी बाई – बांगड क्षेत्र के पुरोहितपुर के काथरिया पुरूषोत्तम की पुत्री थी। यह गोस्वामी हित हरिवंश की शिष्या तथा अकबर की समकालीन थी। इन्होंने अपना अधिकांश समय वृन्दावन में बिताया।
9. ताज बेगम – फतेहपुर में कायमखानी नवाब कदम खाँ की शहजादी कृष्ण उपासिका थी।
10. महात्मा भूरी बाई – सरदारगढ़ (उदयपुर) की निवासी थी। इनका 13 वर्ष की अल्पायु में नाथद्वारा के धनी व 23 वर्ष फतेहलाल से विवाह हुआ था, रोगी पति की सेवा करते-करते बैरागी होती चली गई। देवगढ़ की मुस्लिम नूरा बाई से मिलने पर इन्होंने वैराग्य ले लिया। इनका कपासन के सूफी सन्त दीवान शाह से काफी सम्पर्क रहा।
11. ज्ञानमती बाई – यह चरणदास की शिष्य आत्माराम इकंगी की शिष्या थी। इनका कार्यक्षेत्र जयपुर का गणगौरी मोहल्ला था।
12. जनखुशाती – यह चरणदास जी के शिष्य अरखेराम की शिष्या थी। इन्होंने साधु महिमा तथा बधुविलास नामक ग्रन्थों की रचना की थी।
13. गंगाबाई – गोस्वामी विट्ठलदास की शिष्या थी। कृष्ण वात्सल्य भाव को भक्ति में प्रधानता दी। गोस्वामी हरिराय के पश्चात् गंगा बेटी का नाम कृष्ण भक्ति में प्रसिद्ध है।
14. राणा बाई – हरनावा गाँव के जालिम जाट की पुत्री थीं पालडी के संत चर्तुदास की शिष्या थी। इन्होंने जीवित समाधि ली थी।
15. गवरी बाई – इनका जन्म नागर ब्राह्मण परिवार मंे डूंगरपुर में हुआ था। इनका 5-6 वर्ष की आयु में विवाह हो गया था। इन्होंने इनके लिए बालमुकुन्द मन्दिर का निर्माण करवाया। इनको मीरा का अवतार माना जाता था। जन्म 1815। राजस्थान की दूसरी मीरा।
16. मीराबाई – इनका जन्म मेड़ता ठिकाने के कुडकी गाँव में हुआ था। इनका जन्म का नाम प्रेमल था। इनके पिता राठौड़ वंश के रत्नसिंह और माता वीरकुंवरी थी। इनकी माता की मृत्यु के पश्चात् दादा रावदुदा मेड़ता लेकर चले गये। इनको प. गजाधर ने शिक्षित किया था। इनका विवाह राणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज से हुआ था। ये कर्मावती हाड़ी के पुत्र थे। देवर विक्रमादित्य द्वारा पति व श्वसुर की मृत्यु के बाद अनेक कष्ट दिये। मीरा पुष्कर होते हुए वृन्दावन की गई जहाँ उन्होंने रूप गोस्वामी के सानिध्य में कृष्ण भक्ति की। किवदन्ती के अनुसार 1540 में द्वारका स्थित रद्दोड़ की मूर्ति में लीन हो गई। इनके द्वारा प्रमुख ग्रन्थ – गीत गोविन्द टीका, नरसी जी का मायरा, रूकमणी हरण, मीरा की गरीबी, राग गोविन्द आदि है। मीरा के स्फुट पद वर्तमान में मीरा पदावली के नाम से जाने जाते हैं। मीरा के दादा ने मेड़ता में मीरा के लिए चारभुजा नाथ जी का मन्दिर बनवाया था। इनके श्वसुर ने कुभशाह मन्दिर के पास कुंवरपदे महल बनवाया था।
17. रानी रूपा देवी – राजमहलों से बनी महिला सन्त यह बालबदरा की पुत्री थी तथा धार्मिक संस्कारों में पली थी। यह मालानी के राव भाटी की शिष्या थी तथा निर्गुण सन्त परम्परा में प्रमुख थी। इन्होंने अलख को अपना पति माना था तथा ईश्वर के निराकार रूप की स्तुति की। इन्होंने बाल सखा धारू मेघवाल के साथ समाज के अछूत वर्ग मेघवाल में भक्ति की व जागृति फैलाई। यह मीरा दादू व कबीर की प्ररवीति थी। यह तोरल जेसल देवी के रूप में पूजी जाती है।
18. रानी रत्नावती – आमेर नरेश राजा मानसिंह के अनुज भानगढ़ नरेश राजा माधोसिंह की पत्नी थी। यह कृष्ण पे्रम उपासिका थी। इनका पुत्र पे्रमसिंह (छत्रसिंह) नृसिंह अवतार के रूप मंे शिव का उपासक था।
19. रानी अनूप कंवरी – किशनगढ़ नरेश कल्याण सिंह की बुआ, सलेमाबाद के ब्रज शरणाचार्य निम्बार्क सम्प्रदाय के पीठाधिकारी की समकालीन थी। आजीवन वृन्दावन में रही। इन्होंने ब्रज व राजस्थानी भाषाओं में कृष्ण श्रृंगार व लीला पर अनेक पदों की रचना की। यह कृष्ण के बंशीधर व नटनागर की उपासक थी।
प्रताह सिंह की रानी फतेह कुंवरी भी वृन्दावन भी रही।

 

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