वेशभूषा
भोजन की ही भाँति परिधान भी जीवन – क्रम का एक अति महत्वपूर्ण अंग है। विभिन्न क्षेत्रों के निवासियों की वेश – भूषा तत्क्षेत्रीय जलवायु और उपलब्ध पदार्थों से सम्बन्धित होती है। वह संस्कृति का भी द्योतक है, क्योंकि उसमें एकरुपता और मौलिकता के ऐसे तत्वों का समावेश था जो कि विदेशी सम्पर्क या आदान – प्रदान की प्रक्रिया की संभावना बने रहने पर भी उसके मूल तत्व नष्ट नहीं होते। या यूँ कहें कि उनके सुदृढ़ प्रारुप ने बाह्य प्रभावों को अपने रंग में सराबोर कर दिया। राजस्थान की वेश – भूषा का सांस्कृतिक पक्ष इतना प्रबल है कि सदियों के गु जाने पर और विदेशी प्रभाव होते रहने पर भी यहाँ की वेश – भूषा अपनी विशेषताओं को स्थिर रखने में सफल रही है।
पुरुष परिधान
कालीबंगा और आहड़ सभ्यता के युग से ही राजस्थान में सूती वस्रों का प्रयोग मिलता है। रुई कातने के चक्र और तकली, जो उत्खनन से प्राप्त हुए हैं; इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि उस युग के लोग रुई के वस्रों का प्रयोग करते थे। बैराठ व रंगमहल में भी इसके प्रमाण मिलते हैं जिनसे स्पष्ट है कि साधारण लोग अधोवस्र (धोती) तथा उत्तरीय वस्र, जो कंधे के ऊपर से होकर दाहिने हाथ के नीचे से जाता था, प्रयुक्त करते थे। यहाँ के खिलौनों को देखने से पता चलता है कि छोटे बच्चे प्राय: नग्न रहते थे। जंगली जातियाँ बहुत कम वस्रों का प्रयोग करती थीं। वे ठंड से बचने के लिए पशुओं के चर्म का प्रयोग करते थे। इसी का उपयोग साधुओं के लिए भी होता था। इन वस्रों के उपयोग की यह सारी परिपाटी आज भी राजस्थान के प्रत्येक गाँव में देखी जा सकती है जहाँ बहुधा धोती व ऊपर ओढ़ने के "पछेवड़े" के सिवाय अन्य वस्रों का प्रयोग कम किया जाता है। सर्दी में अंगरखी का पहनना भी प्राचीन परम्परा के अनुकूल है जिसमें कपड़े के बटन व आगे से बंद करने की "कसें" होती हैं जो बंधन का सीधा – सादा ढ़ंग है।
इस युग में आगे बढ़ने पर मंदिरों की वेटिकाएँ मिलती हैं जो गुप्तकाल से लेकर १५ वीं सदी तक की हैं, पुरुषों की वेशभूषा पर प्रकाश ड़ालती हैं। गुप्तोत्तर काल की कल्याणपुर की मूर्तियाँ तथा चित्तौड़ के कीर्तीस्तम्भ की मूर्तियाँ वेश – भूषा में अनेक परिवर्तन की कहानी प्रस्तुत करती हैं। पुरुषों में छपे हुए तथा काम वाले वस्रों को पहनने का चाव था। सिर पर गोलाकार मोटी पगड़ी पल्लों को लटका कर पहनी जाती थी। धोती घुटने तक और अंगरखी जाँधों तक होती थी। मूर्तियों में ऊनी वस्रों की मोटाई से एवं बारीक कपड़ो को तथा रेशमी वस्रों को बारीकि से बतलाया गया है। विवध व्यवसाय करने वालों के पहनावों में भेद भी था, जैसे शिकारी केवल धोती पहने हुए हैं तो किसान व श्रमिक केवल लंगोटी के ढ़ंग की ऊँची बाँधवाली धोती और चादर काम में लाते थे। व्यापारियों में धोती, लंबा अंगरखा, पहनने का रिवाज था। सैनिक जाँघिया या छोटी धोती, छोटी पगड़ी और कमरबन्द का प्रयोग करते थे। मल्ल केवल कच्छा पहनते थे तो सन्यासी उत्तरीय और कौपीन।
समकालीन देवताओं की मूर्तियों से संभ्रान्त परिवार एवं राजा – महाराजाओं के पहनावे को जाना जा सकता है। दिलवाड़ा के मंदिर अथवा सास – बहू के मंदिर एवं कीर्तीस्तम्भ की देवताओं की मूर्तियों में कामदार धोती और दोनों किनारों से झूलता हुआ बारीक दुपट्टे का अंकन है जो राजपरिवार के परिधान के ढ़ंग का द्योतक है। युद्ध में जाने वाले उच्च वर्ग के लोग शरीर को लंबी अंगरक्षी से सुशोभित करते थे और सिर पर चमकीली मोटी और मुकुट वाली पगड़ी पहनते थे। राजस्थान में चित्रित कई कल्पसूत्र वहाँ के साधारण व्यक्ति से लेकर राजा – महाराजाओं के परिधानों को इंगित करते हैं। इनमें राजाओं के मुकुट और पल्ले वाली पगड़ियाँ, दुपट्टे, कसीदा की गई धोतियाँ और मोटे अंगरखे बड़े रोचक प्रतीत होते हैं।
इन परिधानों में विविधता एवं परिवर्तन मुगलों के सम्पर्क से आया, विशेष रुप से उच्च वर्ग में। कुछ साहित्य ग्रन्थों, परवानों तथा चित्रित ग्रन्थों से इस बात का अच्छा परिज्ञान मिलता है। पगड़ियों में कई शैलियो की पगड़ियाँ देखने को मिलती हैं जिनमें अटपटी, अमरशाही, उदेहशाही, खंजरशाही, शाहजहाँशाही मुख्य हैं। विविध पेशे के लोगों में पगड़ी के पेंच और आकार में परिवर्तन आता जो प्रत्येत व्यक्ति की जाति का बोधक होता था। सुनार आँटे वाली पगड़ी पहनते थे तो बनजारे मोटी पट्टेदार पगड़ी काम में लाते थे। ॠतु के अनुकूल रंगीन पगड़ियाँ पहनने का रिवाज था। मोठड़े की पगड़ी विवाहोत्सव पर पहनी जाती थी तो लहरिया श्रावण में चाव से काम में लाया जाता था। दशहरे के अवसर पर मदील बाँधी जाती थी। फूल – पत्ती की छपाई वाली पगड़ी होली पर काम में लाते थे। पगड़ी को चमकीला बनाने के लिए तुर्रे, सरपेच, बालाबन्दी , धुगधुगी, गोसपेच, पछेवड़ी, लटकन, फतेपेच आदि का प्रयोग होता था। ये पगड़ियाँ प्राय: तंजेब, डोरिया और मलमल की होती थीं। चीरा और फेंटा भी उच्च वर्ग के लोग बाँधते थे। वस्रों में पगड़ी का महत्वपूर्ण स्थान था। अपने गौरव की रक्षा के लिए आज भी राजस्थान में यह कहावत प्रचलित है कि "पगडी की लाज रखना" इसी तरह पगड़ी को उतार कर फेंक देना यहाँ अपमान का सूचक माना जाता है। अत: आज भी प्राचीन संस्कृति के वाहक नंगे सिर घर के बाहर कभी नहीं निकलते। इसी तरह पगड़ी को ढ़ँग से बाँधकर बाहर निकलना शिष्टता के अन्तर्गत आता है। राजस्थान में इसका प्रयोग धूप – ताप से सिर की रक्षा के साथ – साथ व्यक्ति की सामाजिक स्थिति और धार्मिक भावना को व्यक्त करने के लिए भी किया जाता है। राजस्थानी नरेशों और मुगलों (शासकों) के बीच होने वाले आदान – प्रदान में पगड़ी का मुख्य स्थान था। आज भी राजस्थान में पगड़ी द्वारा विवाहादि में सम्मान देने की व्यवस्था है।
पगड़ी की भाँति "अंगरक्षी" जो साधारण लोग भी पहनते थे; में समयानुकूल परिवर्तन आया और उसे विविध नामों से पुकारा जाने लगा। यह परिवर्तन भी मुगलों के दरबार से आदान – प्रदान का ही परिणाम था। यहाँ के अनेक राजा, महाराजा, राजकुमार, सैनिक अधिकारी और साहूकार मुगल दरबार और राज्य में जाते थे या इनकी छावनियों में रहते थे, वे मुगल परिधानों का प्रयोग करने लगे। इस अभिजात वर्ग की वेश – भूषा को कुछ अंशों में साधारण स्तर के व्यक्तियों ने भी अपना लिया, क्योंकि यह प्रतिष्ठासूचक मानी जाने लगी। "अंगरक्षी" को विविध ढ़ंग से तथा आकार से बनाया जाने लगा जिन्हें तनसुख, दुतई, गाबा, गदर, मिरजाई, डोढी, कानो, डगला आदि कहते थे। सर्दी के मौसम में इनमें रुई भी डाली जाती थी। इनको चमकीला बनाने के लिए इन पर गोटा – किनारी व कसीदे तथा छपाई का भी प्रयोग होता था। अनेक प्रकार के रंगीन कपड़ों से इन्हें बनाया जाता था। ये कुछ घुटने तक और कुछ घुटने के नीचे तक घेरदार होते थे। कुछ वस्र चुस्त और कुछ ढ़ीले सीये जाते थे। इन वस्रों पर गोट लगाकर अलंकृत करने की परम्परा थी। जाली के वस्र गर्मियों में पहनते थे। मलमल की पोशाक शरीर की झलक दिखाने में आकर्षक लगती थी जिसे सम्पन्न व्यक्ति पहनते थे। वक्ष – स्थल के कुछ भाग को खुला रखा जाता था जो शिष्टाचार के विरुद्ध नहीं समझा जाता था। रंग – बिरंगे फूँदनों से इन परिधानों को बाँधना अच्छा समझा जाता था। रुमाल भी रंग – बिरंगे तथा कसीदे या छपाई वाले होते थे जिन्हें गले में बाँधा जाता था। कटिबन्ध भी अनेक प्रकार की लम्बाई – चौड़ाई के होते थे जो लगभग २ फूट से लेकर १० हाथ लम्बे एवं एक फूट चौड़े होते थे। इनमें कटार, बरछा, तथा कभी – कभी खाद्य सामग्री तथा रुपये – पैसे रख दिए जाते थे। कंधों पर शरद ॠतु में खेस, शाल, पामड़ी डाल दिये जाते थे। इन पर भी कलावस्तुु एवं कसीदे का काम रहता था। आभिजात्यवर्ग लंबी अंगरखी पर पाजामा पहनते थे और साधारण मुसलमान भी इसको दैनिक प्रयोग में लाते थे।
स्री परिधान
कालीबंगा या आहड़ आदि स्थानों की प्रागैतिहासिक युग की वेश – भूषा, जिसका प्रयोग स्रियाँ करती थीं; बड़ी साधारण थीं। यहाँ की खुदाई से प्राप्त मिट्टी के खिलौने, "जंतर" पर बनी मूर्तियों से प्रमाणित होता है कि उस काल में स्रियाँ केवल अधोभाग को ढ़ँकने के लिए छोटी साड़ी का प्रयोग करती थीं। आर्यों के राजस्थान प्रवेश ने इस प्रकार के पहनावे में कुछ परिवर्तन किया जो शुंग – कालीन तथा गुप्त तथा गुप्तोत्तर काल की मूर्तियों से स्पष्ट है। इनमें स्रियाँ साड़ी को कर्धनी से बाँधती थीं और ऊपर तक सिर को ढ्ँकती थीं। स्तनों को कपड़े से ढ़ँक कर उसे पीठ से बाँध लिया करती थीं। कई यक्षी मूर्तियाँ स्री वेश – भूषा को स्पष्ट करती हैं जिनमें ओढ़नी से सिर ढ़ँका मिलता है और साड़ी घुटने तक चली जाती है। आगे चलकर स्री परिधान में साड़ी को नीचे तक लटकाकर ऊपर कंधों तक ले जाया जाता था और स्तनों को छोटी कंचुकी से ढ़ँका जाता था। प्रारम्भिक मध्यकाल में स्रियाँ प्राय: लहँगे का प्रयोग करने लगीं जो राजस्थान में "घाघरा" के नाम से प्रसिद्ध है। स्रियों की वेश – भूषा में अलंकरण, छपाई और कसीदे का काम भी पूर्व मध्यकाल में प्रचलित हो गया था। इसका स्वरुप आज भी हम घुमक्कड़ जाति के स्रियों में और आदिवासियों की महिलाओं में देखते हैं। यही ढ़ंग हमें मथुरा से मिली मूर्तियों में देखने को मिलती है, इनमें स्रियों के परिधान में साड़ी, ओढनी, लहँगा तथा कंचुकी या चोली सम्मिलित हैं। सांस्कृतिक दृष्टि से यह काल बड़े महत्व का है। साड़ी पहनने तथा सिर को ओढ़नी से ढ़ँकने तथा कपड़ों की सजावट में मूल स्थानीय तत्व हैं और बाह्य से कुछ विदेशी प्रभाव भी हैं। इन परिधानों के सांस्कृतिक नाम कुवलयमाला, धर्मबिन्दु, उपमितिभाव, प्रपंचक तथा कथाकोष में भी मिलते हैं।
विजय – स्तम्भ, कुंभश्याम मंदिर, जगदीश मंदिर तथा अनेक समकालीन साहित्य और इतिहास के ग्रन्थ मध्यकालीन स्रियों के वेश – भूषा के अध्ययन के अच्छे साधन हैं। तब स्रियों के परिधानों में डिजायन एवं भड़कीलापन अधिक था। विजयस्तम्भ की मूर्तियों को देखने से लगता है कि कंचुकी वैकल्पिक थी। कुछ मूर्तियाँ बिना कंचुकी के भी हैं और कुछ में वक्षस्थल ढ़ँकने के लिए एक लम्बे वस्र का प्रयोग हुआ है। ज्यों – ज्यों समय बीतते जाता है, कंचुकी तथा काँचली का स्वरुप बदल जाता है और वह लम्बी आस्तीनों वाली उदर के नीचे तक बढ़ जाती है जिसे कुर्ती कहते हैं। इनमें तंजेब, कसीदा, गोटा – किनारी, मगजी, गोट आदि का काम रहता है। कुछ चमकीले वस्र की और कुछ छपाई व रंगाई की कंचुकियाँ होती हैं। आज भी मारवाड़ में ऐसी लंबी कुर्तियों का खूब प्रचलन है। कल्पसूत्र के चित्रों में स्रियों को अधोवस्र और ओढ़नी से ढ़ँका बतलाया गया है। ओढ़नियों के पल्लु कई डिजायन के बनते थे जिनको दोनों ओर कंधे से लटकाया जाता था। कुछ सती स्तम्भों में उत्कीर्ण मूर्तियाँ एक लंबी साड़ी में देखी जाती हैं जो नीचे से ऊपर तक शरीर को ढ़ँकती हैं। ऐसी साड़ियाँ घूँघट निकालने में सुविधाजनक रहती हैं। आज भी राजस्थान मे घूँघट का रिवाज प्रचलित है। अधोवस्र प्रारम्भ में कमर से लपेटा जाता था जो परिवर्किद्धत होकर घाघरा तथा घेरदार कलियों का घाघरा बन गया। इसका छोटा रुप लहंगा कहलाता है। इन तीनों प्रकार के परिधानों पर सुनहरी व रुपहरी छपाई होती ती जिसे गोटा – किनारा तथा सलमे के काम से आकर्षक बनाया जाता था। राजस्थान में आज भी कपड़ों पर इस प्रकार का काम बड़ी कारीगरी से होता है। साड़ियों के विविध नाम प्रचलित थे जिन्हें चोल, निचोल, पट, दुकूल, अंसुक, वसन, चीर – पटोरी, चोरसो, ओड़नी, चूँदड़ी, धोरीवाला, साड़ी आदि कहते हैं।
कुछ चित्रित ग्रन्थों तथा मूर्तियों से साधारण स्तर की स्रियों की वेश – भूषा का पता चलता है। विजयस्तम्भ में शबरी केवल छोटी घघरी में उत्कीर्ण है, अन्य वस्रों का प्रयोग नहीं है। ऐसा ही रागिनी चित्र में भीलनी का अंकन है। आर्षरामायण में शूपंनखा को भद्दी व मोटी साड़ी और छोटे घाघरे में चित्रित किया गया है। कादम्बरी में पत्रवाहक स्री के केवल गागरा और कंचुकी में तथा विधवा को भूरी साड़ी और काला लहंगा एवं कत्थई चोसी में चित्रित किया गया है। भक्तमाल में मीरा को पीली भोती से चित्रित किया गया है। राजपूतों के हरम में कुछ दासियां लम्बा कुरता व सलवार व पाजामे का भी प्रयोग करती थीं जो मुगलों का ही अनुकरण था।
स्रियों के परिधानों के लिए प्रचलित कपड़ों में जामदानी, किमखाब, टसर, छींट मलमल, मखमल, पारचा, मसरु, चिक, इलायची, महमूदी चिक, मीर – ए – बादला, नौरंगशाही, बहादुरशाही, फरुखशाही छींट, बाफ्टा, मोमजामा, गंगाजली, आदि प्रमुख थे। उच्चवर्गीय स्रियाँ अपने चयन में इन कपड़ों को वरीयता देती थीं, परन्तु साधारण वर्ग की स्रियाँ लट्ठे व छींट के वस्रों से ही संतोष कर लेती थीं। ॠतु और अवसरानुकूल रंग – बिरंगे व चटकीले परिधानों के चाव स्रियों में अवश्य था जो अपनी – अपनी हैसियत के अनुसार बढिया और घटिया कि के कपड़े बनवाते थे। चूँदड़ी और लहरिया राजस्थान की प्रमुख साड़ी रही है जिसका प्रयोग हर स्तर की स्रियाँ आज भी करती हैं – गोया उच्चवर्ग में आधुनिक कपड़े अधिक प्रिय हो रहे हैं।
लहरिया (शगुन और संस्कृति के रंग लिए लहरिया)
राजस्थान या राजस्थानी संस्कृति से जुङे लोगों के लिए लहरिया सिर्फ कपङे पर उकेरा गया डिजाइन या स्टाइल भर नहीं है। ये रंग बिरंगी धारियां शगुन और संस्कृति के वो सारे रंग समेटे हैं जो वहां के जन जीवन का अटूट हिस्सा हैं। यहां सावन में लहरिया पहनना शुभ माना जाता है। आज भी गांव ही नहीं शहरी संस्कृति में भी लहरिया के रंग बिरंगे परिधान अपनी जगह बनाये हुए है। लहरिया की ओढनी या साङी आज भी महिलाओं के मन को खूब भाती है।
राजस्थान के उल्लासमय लोक सांस्कृतिक पर्व तीज के अवसर पर धारण किया जाने वाला सतरंगी परिधान लहरिया खुशनुमा जीवन का प्रतीक है। सावन में पहने जाने वाले लहरिये में हरा रंग होना शुभ माना जाता है । जो कि प्रेरित है प्रकृति के उल्लास और सावन में हरियाली की चादर ओढे धरती माँ के हरित श्रृंगार से ।
लहरिया राजस्थान का पारंपरिक पहनावा है । सावन के महीने में महिलाएं इसे जरूर पहनती हैं। शादी के बाद पहले सावन में तो बहू-बेटियों को बहुत मान-मनुहार के साथ लहरिया लाकर दिया जाता है। आज भी राजसी घरानों से लेकर आम परिवारों तक लोक संस्कृति की पहचान लहरिया के रंग बिखरे हुए है।
कहते हैं कि प्रकृति ने मरूप्रदेश को कुछ कम रंग दिए तो यहां लोगों ने अपने पहनावे में ही सात रंग भर लिए, लहरिया उसी का प्रतीक है। रेगिस्तान में बसे लोगों के सृजनशील मन ने तीज के त्योंहार और लहरिया के सतरंगी परिधान को जीवन का हिस्सा बना प्रकृति और रंगों से नाता जोड़ लिया | तभी तो राजस्थान के अनूठे लोक जीवन की रंग बिरंगी संस्कृति के द्योतक लहरिया पर कई लोकगीत भी बने है।
हमारी संस्कृति के परिचायक कई रीति रिवाज हैं जो यह बताते है कि हमारे परिवारों में बहू-बेटियों की मान मनुहार के अर्थ कितने गहरे हैं ? सावन के महीने में तीज के मौके पर मायके या ससुराल में बहू-बेटियों को लहरिया ला देने की परंपरा भी इसी सांस्कृतिक विरासत का हिस्सा रही है और आज भी है । यह त्योंहार यह बताने का अवसर है कि बहू-बेटियों के जीवन का सतरंगी उल्लास ही हमारे घर आंगन का इंद्रधनुष है।