वर्तमान काल में पूर्व लिखे अथवा लिखवाये गये राजकीय, अर्द्ध राजकीय अथवा लोक लिखित साधन पुरालेख सामग्री के अन्तर्गत आते हैं।

पुरालेखा का वर्गीकरण : पुरालेखा सामग्री, संस्थागत अवस्थापन की दृष्टि से पुरातत्व रिकार्ड, प्राच्च विद्या रिकार्ड, तथा अभिलेख रिकार्ड में वर्गीकृत हैं।

सामग्री के अनुसार : शिलालेख और ताम्रपत्र पुरातत्वालय में संग्रहित किये जाते हैं।

प्राच्च विद्या संस्थानों में प्राचीन हस्तलिखित ग्रन्थ, ताड़-पत्र और चर्म-पणाç के लेख, कलम-चित्र, नक्शे आदि संग्रह किये जाते हैं।

वहां अभिलेखागारों में राज्य पुरालेखा सामग्री, अन्य संस्थागत पुरालेखा सामग्री तथा लोक लिखित पुरालेखा सामग्री संकलित की जाती है।

राजस्थान में पुरालेखा स्रोत का विशाल संग्रह राज्य अभिलेखागार बीकानेर और उसके अधीन विभिन्न वृत अथवा जिला अभिलेखागारों में सुरक्षित है।

सम्पूर्ण अभिलेख सामग्री को राजकीय संग्रह तथा संस्थागत या निजी सामग्री को व्यक्तिगत संग्रह के रुप में विभाजित करते हुए फारसी, उर्दू, राजस्थानी और अंग्रेजी भाषा लिखित पुरालेखा साधन में उपवर्गीकृत किया जा सकता है –

  • फारसी/उर्दू भाषा लिखित पुरालेखा सामग्री जिसमें फरमान  मूसूर, रुक्का, निशान, अर्जदाश्त, हस्बुलहुक्म, रम्ज, अहकाम, सनद, इन्शा, रुकाइयत, वकील रिपोर्ट और अखबारात प्राप्त होते हैं।
  • राजस्थानी/हिन्दी भाषा में पट्टे-परवानें, बहियां, खरीते, खतत्, अर्जियां, हकीकत, याददाश्त, रोजनामचे, गांवों के नक्शे, हाले-हवाले, चिट्ठिया, पानडी अखबार बाकीबात डायरी आदि मुख्य हैं।
  • अंग्रेजी भाषा में लिखी अथवा छपी गई पुरालेखा में राजपूताना एजेन्सी रिकॉर्ड, रिकॉर्डस् आॅफ फॉरेन एण्ड पोलीटिकल डिपार्टमेन्ट, ट्यूर रिपोर्ट मेमाईस तथा पत्रादि संकलन के साथ-साथ मेवाड़ और मारवाड़ प्रेसींज के रुप में संकलित सामग्री उपलब्ध है।

उपर्युक्त सामग्री क्षेत्र अथवा प्राचीन रजवाड़ों के सम्बन्धानुसार निम्न रुप में भी जानी जाती है –

  • जोधपुर रिकॉर्ड, बीकानेर रिकॉर्ड अथवा मारवाड़ रिकॉर्डस्
  • जयपुर रिकॉर्ड
  • कोटा रिकॉर्ड अथवा हाड़ौती रिकॉर्डस
  • उदयपुर रिकॉर्ड अथवा मेवाड़ रिकॉर्डस

पुरालेखा संग्रह का काल

भारत में पुरालेख संग्रह का काल वस्तुत: मुस्लिम शासकों की देन है। केन्द्रीय शासन का प्रान्तों और जिलों से तथा जिला इकाईयों का प्रांतीय प्रशासन और केन्द्र से पत्र व्यवहार, प्रशासनिक रिकॉर्ड, अभिदानों का वर्णन आदि हमें १३वीं शताब्दी से मिलने लगते हैं, किन्तु व्यवस्थित रुप में पुरालेखा सामग्री मुगलकाल और उसके पश्चात प्राप्त होती है। ब्रिटिश काल तो प्रशासनिक कार्यालयों पर आधारित था। अत: इस काल का रिकॉर्ड प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। राजस्थान में मुगल शासकों के प्रभाव तथा उनसे प्रशासनिक सम्बन्धों के कारण १६वीं शताब्दी के पश्चात् विभिन्न राज्यों में राजकीय पत्रों और कार्यवाहियों को सुरक्षित रखने का कार्य प्रारम्भ हुआ। मालदेव, मारवाड़ राज्य का प्रथम प्रशासक था, सम्भवत: जिसने मुगल बादशाह हुमायुं के पुस्तकलाध्यक्ष मुल्ला सुर्ख को रिका�र्ड संग्रह अथवा पुस्तक संग्रह हेतु अपने राज्य में नियुक्त किया था। १५६२ ईं. से आमेर के राजघराने और १५१० ई. तक राजस्थान के अधिकांश शासकों ने मुगल शासक अकबर के समक्ष समपंण कर दिया था। उसके पश्चात वे मुगल प्रशासन में मनसबदार, जागीरदार आदि बनाये गये। इस प्रकार राजस्थान के राजघरानों में उनके और मुगल शासन के मध्य प्रशासनिक कार्यवाहियों का नियमित रिकॉर्ड रखा जाने लगा। ऐसे ही राज्यों और उनके जागीरदारों के मध्य भी रिकॉर्ड जमा हुआ। यह रिकॉर्ड यद्यपि १८-१९वीं शताब्दी में मराठा अतिक्रमणों, पिंडारियी की लूट-खसोट में नष्ट भी हुआ, किन्तु १९वीं शताब्दी के उतरार्द्ध से रियासतों के राजस्थान राज्य में विलय होने तक का रिकॉर्ड प्रचुर मात्रा में मिलता है। इसे रियासतों द्वारा राजस्थान सरकार को राज्य अभिलेखागार हेतु समर्पित कर दिया गया, फिर भी जागीरों के रिकॉर्ड तथा अन्य लोकोपयोगी पुरालेखा सामग्री भूतपूर्व राजाओं के पास अभी भी पड़ी हुई है।

सल्तनत कालीन स्रोत
जियाउद्दीन बरनी
मुगल कालीन स्रोत
परिवर्तिकालीन स्रोत

राजस्थान के इतिहास को जानने, राजस्थान के शिलालेखों, ऐतिहासिक काव्य ग्रंथों, कथा साहित्य आदि के ऐतिहासिक विवरणों के क्रम बद्ध करने सत्यापित करने अथवा तथ्यों को लिखने के लिए ऐतिहासिक साहित्य के रुप में फारसी तवारिखें एक महत्वपूर्ण और विश्वसनीय स्थान रखती हैं।

यह तवारिखें दो प्रकार की हैं :

(1) प्रथम – स्वामी की आज्ञा द्वारा लिखी गई
(2) द्वितीय – आत्म-प्रेरणा युक्त लिखी गई।

प्रथम प्रकार की सभी तवारिखें परोक्ष अथवा उपरोक्ष रुप में राजस्थान के इतिहास पर प्रकाश डालती हैं और द्वितीय प्रकार तवारिखें – क्षेत्रीय तवारिखे हैं।

अलबेरुनी का “तहकीक-ए-हिन्दू’ नामक इतिहास १०-११वीं शताब्दी के भारत वर्ष की राजनीति का सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक दशाओं का विस्तृत वर्णन करता है। इस संदर्भ में यह ग्रन्थ गुजरात और मालवा के सोलंकी और परमार शासकों का हवाला प्रदान करता है। १०-११वीं शताब्दी का राजस्थान-राजनीतिक दृष्टि से दोनों राजवंशों के प्रभाव क्षेत्र में था अत: राजस्थान की सामाजिक, आर्थिक दशा को जानने हेतु अलबेरुनी का ग्रन्थ सहायक है। यह ग्रन्थ १०४३ ई. में पूर्ण किया गया था।

महमूद गजनवी और मोहम्मद गौरी के राजस्थान सम्बन्धित अन्य तवारिखों में अबू सईद बिन अब्दुल हई कृत “किताब जैनुल अखबार’, अलउतबी की “तारीख-ए-यामीनी’ राजपूत गजनवी संघर्ष पर प्रकाश डालती है। इसके पश्चात् मिनहाज-उ-सिराज की “तबकात-ए-नासिरी’ भी उपयोगी है, चौहान-गौरी संघर्ष और अजमेर, रणथम्भौर, नागौर, जालोर और मेवातियों पर मुस्लिम अधिशासन अथवा सैनिक कार्यवाहियों हेतु इसका प्रयोग किया जाता रहा है। १२ शताब्दी से राजस्थान मुस्लिम सम्बन्धों और राजस्थान के विविध वर्णनों को उल्लेखित करने वाले फारसी-स्रोत अध्धयन की दृष्टि से तीन काल-क्रमों में वर्गीकृत किये जा सकते हैं :-

(1) सल्तनत कालीन स्रोत
(2) मुगल कालीन स्रोत
(3) परवर्ती स्रोत

(1) सल्तनत कालीन स्रोत

उल्लेखित ऐतिहासिक फारसी साहित्य के ग्रन्थों में सर्वप्रथम सदरउद्दीन हसन निजामी द्वारा लिखी फारसी तवारिख “ताज उल मासिर’ का महत्वपूर्ण स्थान है। यद्यपि इस तवारिख की भाषा बड़ी अलंकारिक है फिर भी यह भारतीय इतिहास के गौरी आक्रमण, कुतुबुद्दीन के राजस्थान से सम्बन्ध तथा सुल्तान इल्तुमिश की राजस्थान में की गई सैन्य कार्यवाहियों का हवाला प्रदान करती हैं।

अमीर खुसरों : पूर्व मध्यकालीन राजस्थान के इतिहास हेतु अमीर खुसरों द्वारा लिखित ऐतिहासिक मसनबीयां उल्लेखनीय है। यह कवि जहां फारसी का विद्वान था वहां हिन्दी का भी लेखक था। १२५२ ई. में पटियाली (उ.प्र.) नामक स्थान पर खुसरों का जन्म हुआ और १३२५ ई. में इसकी दिल्ली में मृत्यु हुई थी। ७३ वर्ष के जीवनकाल में वह सुल्तान बलबन से गयासुद्दीन तुगलक तक के इतिहास का स्वयं साक्षी रहा था। इस समय को राजस्थान से सम्बन्धित घटनाओं में खुसरों द्वारा उल्लेखित खलजी कालीन अभियान मुक्य है। “मिफताहुल फुतूह’ नामक मसनवी (१२९१ ई.) में खुसरों ने सुल्तान जलालुद्दीन खलजी के राजस्थान अभियानों में झाईन और रणथंभोर की असफलताओं का वर्णन किया है। १३११ ई. में खुसरों द्वारा लिखी कृति “खजाइनुल फूतुह’ (विजयों का कोष) में सुल्तान अलाउद्दीन खलजी की विजयों का वर्णन है। इस ग्रन्थ में राजस्थान के रणथंभोर, चित्तोड़, जालोर, सीवाना आदि पर आक्रमणों का हवाला दिया हुआ है। चित्तोड़ अभियान में वह सुल्तान के साथ था। इन अभियानों का वर्णन १३१६ ई. में लिखित अन्य खुसरों कृति “देवल-रानी खिज खाँ’ और १३२० ई. में रचित “तुगलक नामा’ में गयासुद्दीन तुगलक के द्वारा रणथंभोर का वर्णन हे। अत: खुसरों की यह कृतियां राजस्थान के संदर्भ में अत्यंत महत्वपूर्ण हैं।

जियाउद्दीन बरनी :-

जियाउद्दीन बरनी का जन्म १२८५ ई. में बलवन के शासनकाल में हुआ और मृत्यु सुल्तान फिरोज तुगलक के काल १३५७ ई. में हुई थी। इस प्रकार बरनी भी गुलाम वंश, खलजी वंश तथा तुगलक वंश के सुल्तानों की कार्यवाहियों का अच्छा गवाह था। जियाउद्दीन बरनी ने फारसी में “तवारीख-ए-फिरोज शाही’ और “तबकात-ए-नासीरी’ (१२६० ई.) में लिखी, जो कि राजस्थान के इतिहास हेतु आधार स्रोत के रुप में अपना महत्व रखती हैं।

तुगलक कालीन एक अन्य इतिहासकार “एसामी’ ने अपने ग्रंथ “फुतूहुर-सलातीन’ अथवा शाहनामा हिन्दी में खलजी-सुल्तान एवं राजस्थान के मध्य राजनीतिक सम्बन्धों का विवरण दिया है। तैमूर काल तथा उसके पश्चात् सैयद वंश कालीन राजस्थान के इतिहास को बतलाने वाले फारसी संदर्भों के लिए “तुजुक-ए-तिमुरी’ अथवा “मुलफुजत-ई-तिमुरी’ और शरफुद्दीन अली याजदी का “जफरनामा’ (१४२४-२५ ई. कृत) उल्लेखनीय है। लोदी कालीन राजस्थान हेतु १५८१ ई. में लिखा गया “वाकयात-ए-मुश्ताकी’ नामक ग्रंथ शेख रिज्कुल्लाह मुश्ताकी द्वारा लिखी गई कहानियों का संग्रह होते हुए भी बहुत उपयोगी सिद्ध हुए हैं।

अफगान-राजस्थान के समबन्धों को व्यक्त करने वाले फारसी ग्रंथों में अब्दुल्लाह कृत “तवारीख-ए-खानेजहां’ जो कि “मखजन-ए-अफगानी’ और जहांगीर के काल की “तवारीख-ए-दाऊदी’ (१५७२-७६ ई.) तथा अहमद यादगार रचित “तवारीख-ए-शाही’ अथवा “तवारीख-ए-सलातीन-ए-अफगान’ मुख्य हैं।

शेरखाह की राजस्थान में की गई कार्यवाहियों को लेखा देने वाला ग्रंथ अब्बास खाँ सरवानी का “तावारिख-ए-शेरशाही’ है। इस ग्रंथ की रचना १५८८ ई. के पश्चात् हुई थी। इसमें मेवाड़ के उदय सिंह, मारवाड़ के मालदेव आदि के शेरशाह से समबन्धों का विवरण प्राप्त होता है।

(2) मुगल कालीन स्रोत :-

१५६२ ई. के पश्चात् मुगल सम्राट बाबर का राणा सांगा से सम्पर्क (फरवरी १५२७ ई.) राजस्थान के खानवा मैदान में हुआ था। इसके पश्चात् उसके उत्तराधिकाराओं में हुमायूं, अकबर, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजैब, बहादुरशाह, फर्रुखशीयर, मुहम्मदशाह आदि राजस्थान की राजनीति में हस्तक्षेप अथवा शासन करते रहे थे। मुगल कालीन स्रोत में जहीरुद्दीन बाबर द्वारा लिखा गया आत्मचरित्र “बाबरनामा’ राजस्थान के राजनीतिक जीवन के साथ-साथ भौगोलिक वर्णन, सामाजिक आर्थिक परिस्थितियों को जानने, उसके काल के महत्वपूर्ण चरित्रों, व्यक्तियों और जीवनियों को समझने के लिए महत्वपूर्ण ग्रंथ है। उसने अपने ग्रंथ को दैनन्दिनी और वार्षिकी के आधार पर तैयार किया था अत: तथ्य जानने के लिए यह ग्रंथ सल्तनत और मुगलकालीन लिखे गए सभी फारसी-संदर्भ ग्रंथों से अधिक स्पष्ट और तिथीवार है।

बाबरकाल की घटनाओं की सूचना देने वाले फारसी स्रोतों में “नफ़ायसूल मआसिर’ नामक ग्रंथ अलाउद्दौला द्वारा १५६५-१५६६ ई. में प्रारम्भ हुआ तथा १५८९ ई. ९० ई. में समाप्त किया गया। यद्यपि यह कृति अकबर के काल में लिखी गई थी किन्तु उसने अपने कवित्व वर्णन में पूर्व की कृतियों का संदर्भ के रुप में प्रयोग किया अत: उसका वर्णन इस दृष्टि से वैज्ञानिक है।

हुमायूं और अकबर कालीन फारसी इतिहास ग्रंथकारों में बाबर की पुत्री और हुमायूं की बहिन गुलबदन लिखित “हुमायूंनामा’ भी राजस्थानी इतिहास जानने का अच्छा साधन है।

अकबर के काल में लिखे गए महत्वपूर्ण फारसी स्रोतों में राजकुमार से सम्बन्धित इतिहास पर विस्तृत प्रकाश डालने वाले ग्रंथों में दो मुख्य है :

(1) अबुल फजल कृत “अकबरनामा’ तीन भागों में (अन्तिम भाग “आईन-ए-अकबरी’ के नाम से प्रसिद्ध है)
(2) मुहम्मद कासिम हिन्दूशाह फरिश्ता कृत “तवारीख-ए-फरिश्ता’

प्रथम ग्रंथ अकबर के दरबारी इतिहासकार के रुप में तथा दूसरा प्रान्तीय इतिहासकार के रुप में बीजापुर में लिखा गया।

“अकबरनामा’ के संदर्भ इतिहास के रुप में और महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि इसे लिखवाने के पूर्व अकबर जो स्रोत कराये, उनमें राजस्थानी चारण-भाटों और ख्यातों बहियों, शिलालेखों आदि की सूचनाएं भी सम्मिलित थी। इनमें से कई स्रोंत कालक्षय हो चुके हें अत: अबुल फजल के वर्णन राजस्थान के लिए भी उपयोगी हैं।

जहांगीर के काल में लिखी गई और तत्कालीक कालावलोकन हेतु स्वयं जहांगीर द्वारा लिखित आत्मचरित्र “तुजुक-ए-जहांगीरी’ या “तवारीख-ए-सलीमशाही’, “कारनामा-ए-जहांगीरी’, “वाकेयात-ए-जहांगीरी’, “इकबाल नामा’, “जहांगीर नामा’ आदि नामों से पुकारी जाने वाली कृति मुक्य है। इसमें जहांगीर के सिंहासन पर बैठने (१६०५ ई.) से १२वे वर्ष तक का इतिहास जहांगीर और उसके पश्चात् ७ वर्ष तक का हाल मुतमिद खाँ द्वारा इकबालनामा जहांगीर की आज्ञा से लिखा गया है। मुहम्मदशाह के काल में मुहम्मदहादी द्वारा पुन: सम्पादित कर बादशाह के पूर्ण शासन का हाल लिखा गया जो कि जहांगीर की जीवनी के रुप में विद्यमान है। ख्वाजा कामगार की “मसीर-ए-जहांगीरी’ में सलीम (जहांगीर) तथा खुर्रम (शाहजहां) के मेवाड़ अभियान पर प्रकाश डालती हैं। जहांगीर के शासन काल में लिखी गई एक अन्य प्रान्तीय कृति “मीरात-ए-सिकंदरी’ (१६११ ई.) में राणा सांगा और गुजरात के संबन्धों की व्याख्या प्राप्त होती है।

शाहजहां के काल में लिखी गई तवारीखी से काजविनी कृत “पादशाहनामा’, अब्दुलहमीद लाहोरी कृत “पादशाहनामा’, मुहम्मद वारीस कृत “पादशाहनामा’, शाहजहां के शासन के १०, २० वर्ष तक शेष काल का हवाला है। तीनों इतिहासकार राजकीय सेवा में गटनाक्रमों को लिखने हेतु नियुक्त थे। अत: इनका वर्णन शाहजहां राजपूत सम्बन्धों के लिए ही नहीं अपितु इनमें उदृत आर्थिक-सामाजिक दशा हेतु भी उपयोगी है। इसी क्रम में १६५७-८८ई. में तैयार किया गया ग्रंथ इनायत खाँ का “शाहजहांनामा’ सरल भाषा में लिका शाहजहां कालीन स्रोतों का पूरक है।

औरंगजेब काल में इतिहास लिखने पर मनाही थी, फिर भी कुछ, लेखक छिपेतौर पर घटनाक्रमों को लिखते रहे थे, उनमें खाफी खाँ का “मुन्तखब-उल-तुवाब’ मुख्य है। प्रथम भाग में शाहजहां तक तथा दूसरे भाग में औरंगजेब से मुहम्मदशाह तक विभाजित मुन्तखब का दूसरा भाग लेखक की गवाही के रुप में अधिक उपयोगी है। मिर्जा मुहम्मद कासीम कृत “आलमगीरनामा’ औरंगजैब के प्रारंभिक १० वर्ष का (१६५८-१६६८ ई.) इतिहास तथा प्रान्तीय इतिहासकार के रुप में ईश्वरदास नागर का “फुतूहात-इ-आलमगीरी’ मूलत: राठौड़-मुगल सम्बन्धों के लिए महत्वपूर्ण स्रोत है। ईश्वरदास नागर जोधपुर में मुगल अधिकारी था अत: राजस्थान के वर्णन में उसका लेखन प्रत्यक्ष गवाह के रुप प्रयुक्त किया जा सकता है। इस काल की राजस्थान की राजनीति पर प्रकाश डालने वाले ग्रंथों में भीमसेन बुरहारानपुरी कृत “नुस्ख-इ-दिलकुश’ १६७० से १७०७ ई. तक दक्षिणी वृतान्तों को स्पष्ट करता है। शाहनवाज खाँ लिखित संदर्भ ग्रंथ “मासीर-उल-उमरा’ ३ भागों में बाबर से औरंगजैब काल के २२ वर्ष तक मुगल सामन्तों का परिचय है। राजपूत-मुगल सामंतों के चित्रण हेतु यह ग्रंथ राजस्थान के इतिहास का उपयोगी स्रोत है।

औरंगजेब के पश्चात् उनके उत्तराधिकारियों और राजस्थान के संबन्धों को व्यक्त करने वाली कृतियों में दानिशमन्द खाँ का “पादशाह नामा’ अथवा “बहादुरशाह नामा’ बहादुरशाह के प्रथम दो वर्षों का वर्णन करती है। इरादत खाँ की “तवारीख-ए-इरादतखान’ औरंगजेब की मृत्यु और उत्तराधिकार युद्ध में राजपूतों के व्यवहार, मुहम्मद शफी वारीद के “मीरात-उल-वारदात’ या तवारीख-ए-चगताई में फर्रुखशीयर के काल तक का इतिहास है। सवाई जयसिंह और मराठाओं के सम्बन्ध तथा फर्रुखशीयर – अजीत सिंह सम्बन्धों पर यह कृति अच्छा विवरण प्रदान करती है।

(3) परिवर्तिकालीन स्रोत :- 

मराठों के अभ्युदय और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण के पश्चात् मुगल बादशाह और राजपूतों के सम्बन्ध को बतलाने वाले फारसी स्रोंतो में खेरुद्दीन इलाहबादी का “इबरतनामा’ शाहआलम द्वितीय (१७५९-१८०६ ई.) मुगल मराठा राजपूत सम्बन्धो और “तवारीख-ई-मुज्जफरी’ मुहम्मद अली खाँ अंसारी द्वारा लिखा गया मुगलकाल के प्रारम्भ से शाह आलम (आलमगीर द्वितीय) तक का इतिहास है।

“बालमुकन्दनामा’ – बालमुकन्दकृत में शाहआलम का वर्णन मिलता है। हरचरनदास की “चहर गुलजार-ए-शुजाई’ (१७८४ ई. में पर्ण) मराठों के राजस्थान का वर्णन करती है। “मुर्सलात-इ-अहमदशाह’ में राजपूतों द्वारा अत्पाली से किए गए पत्र व्यवहारों का हाल है, वहां “तवारीख-ए-अहमदशाही’ से बादशाह (१७४८-५६ ई.) और राजपूतों के सम्बन्धों का हाल ज्ञात होता है। “वाकये अजमेर वा रणथंभोर’ में ६७८ से १६८० ई. के मध्य के स्थानीय हालों का विवरण प्राप्त होता है। कालीराम कायस्थ का “तवारीख-ए-राजस्थान’ में तथा मौलवी मुहम्मद उबेदुल्लाह फरहती लिखित “तवारीख-तुहुफ-ए-राजस्थान’ में राजस्थान के इतिहास पर लिखा गया है। अत: यह सभी स्रोत फारसी। उर्दू के राजस्थानी इतिहास को जानने में उपयोगी आधार हैं।

 

 फरमान और मन्सूर

बादशाह (शासक) द्वारा अपने सामन्तों, शहजादों, शासकों या प्रजा के स्वयं अथवा अन्य से लिखवाकर भेजा जाता था। इन पत्रों पर तुगरा या राजा का पंजा (हथेली का चिन्ह) लगा रहता था।

 निशान

निशान नामक पत्र शहजादी या बेगमों द्वारा बादशाह के अतिरिक्त अन्य से लिखे गये पत्र कहलाते थे। जहाँगीर के शासनकाल में नूरजहां द्वारा भेजे गए निशानों पर जहाँगीर का नाम होता था, किन्तु उस पर नूरजहां की मुद्रा अंकित होती थी। इसको बेगम की मोहर कहा जाता था।

अर्जदाश्त

यह प्रजा द्वारा शासकों या शहजादों द्वारा बादशाह को लिखे जाने वाले पत्र थे। यदि ऐसी अर्जदाश्तों में विजय के संदेश प्रेषित होते तो इन्हें फतेहनामा कहा जाता था।

हस्बुलहुक्म

बादशाह की आज्ञा से बादशाही आज्ञा की सूचना देने के लिए मंत्री (वजीर) अपनी ओर से लिखता था।

रम्ज और अहकाम

बादशाहों द्वारा अपने सचिव को लिखवाई गयी कुछ टिप्पणियां विशेष कहलाते थे, जिनके आधार पर सचिव पूरा पत्र तैयार करता था।

 सनद

पत्र नियुक्ति अथवा अधिकार हेतु प्रदान किया जाता था।

 परवाना

अपने से छोटे अधिकारी को लिखा गया प्रशासनिक पत्र था।

 रुक्का

निजी पत्र की संज्ञा थी, परवर्ती काल में राजा की ओर से प्राप्त पत्र को खास रुक्का कहा जाने लगा था।

 दस्तक

के आधार पर लोग सामान एक स्थान से दूसरे स्थान पर ला-लेजा सकते थे, दरबार अथवा शिविर प्रवेश के लिए भी दस्तक एक प्रकार से आधुनिक “परमिट’ या “पास’ था।

 वकील रिपोर्ट

प्रत्येक राज्यों से बादशाही दरबार में वकील नियुक्त होते थे, यह अपने शासकों के हितों की रक्षा तथा सूचना भेजते थे। इसके द्वारा लिखी सूचनाएं वकील रिपोर्ट कहलाती है।

 अखबारात

इसी प्रकार राज्य और दरबार की कार्यवाहियों की प्रेसिडिस को अखबारात कहा जाता था।

(3) परिवर्तिकालीन स्रोत

मराठों के अभ्युदय और अहमदशाह अब्दाली के आक्रमण के पश्चात् मुगल बादशाह और राजपूतों के सम्बन्ध को बतलाने वाले फारसी स्रोंतो में खेरुद्दीन इलाहबादी का “इबरतनामा’ शाहआलम द्वितीय (१७५९-१८०६ ई.) मुगल मराठा राजपूत सम्बन्धो और “तवारीख-ई-मुज्जफरी’ मुहम्मद अली खाँ अंसारी द्वारा लिखा गया मुगलकाल के प्रारम्भ से शाह आलम (आलमगीर द्वितीय) तक का इतिहास है।

“बालमुकन्दनामा’ – बालमुकन्दकृत में शाहआलम का वर्णन मिलता है। हरचरनदास की “चहर गुलजार-ए-शुजाई’ (१७८४ ई. में पर्ण) मराठों के राजस्थान का वर्णन करती है। “मुर्सलात-इ-अहमदशाह’ में राजपूतों द्वारा अत्पाली से किए गए पत्र व्यवहारों का हाल है, वहां “तवारीख-ए-अहमदशाही’ से बादशाह (१७४८-५६ ई.) और राजपूतों के सम्बन्धों का हाल ज्ञात होता है। “वाकये अजमेर वा रणथंभोर’ में ६७८ से १६८० ई. के मध्य के स्थानीय हालों का विवरण प्राप्त होता है। कालीराम कायस्थ का “तवारीख-ए-राजस्थान’ में तथा मौलवी मुहम्मद उबेदुल्लाह फरहती लिखित “तवारीख-तुहुफ-ए-राजस्थान’ में राजस्थान के इतिहास पर लिखा गया है। अत: यह सभी स्रोत फारसी। उर्दू के राजस्थानी इतिहास को जानने में उपयोगी आधार हैं

 राजस्थानी भाषा लिखित पुरालेख सामग्री

राजस्थानी भाषा लिखित पुरालेख सामग्री में महाजनी, मोड़ी हाडौती, मेवाड़ी आदि लिपि में लिखित राजस्थानी भाषा के परवाने खरीते, अर्जियां, चिट्ठियां, पानड़ी ऐसे फुटकर पत्र है, जिनमें राजस्थान के शासकों, अधिकारियों, ग्राम कर्मचारियों आदि का पारस्परिक व्यवहार स्पष्ट होता है। इस व्यवहारगत अध्ययन से इतिहास विषयक सामग्री भी प्राप्त होती है।

राजस्थानी भाषा में लिखित अन्य प्रमुक इतिहास स्रोत विभिन्न राजपूत राज्यों में लिखी गई बहियां हैं, इन बहियों को लिखने की प्रथा कबसे आरंभ हुई इसका सही समय बतलाना कठिन है, किंतु सबसे प्राचीन बही जो प्राप्त होती है वह राणा राजसिंह (१६५२-१६८० ई.) के समय की है, इसके पश्चात् दूसरी प्राचीन महत्वपूर्ण बही “”जोधपुर हुकुमत री बही” है।

प्रथम बही राणा राजसिंह के काल में मेवाड़ राज्य के परगनों की स्थिति। उनकी वार्षिक आमदनी तथा अन्य प्रकार के हिसाब-किताब की है, दूसरी बही मुगल बादशाह शाहजहां की बीमारी से ओरंगजेब की मृत्यु तक महाराजा जसवंतसिह के संदर्भ में कई राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक स्थितियों का उल्लेख करती है। इस प्रकार १७वीं शताब्दी के राजस्थान को जानने में दोनों बहियां अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं।

पट्टा, पट्टा का अर्थ होता है “घृति’  जो प्रदत्त की हुई हो और ऐसी प्रदत्त जागीर, जमीन, खेत, दृव्य, रुपया-पैसा अथवा राज्य इच्छानुसार भवन किराया, राज्य चुंगी दाण और लागत का अंश आदि होती थी। यह प्रदत्तियां पत्राधिकार अथवा ताम्रपत्र द्वारा प्रदान की जाती थी। इनकी प्रतिलिपियां पट्टा बहियों में अंकित होती थी। इस तरह पट्टा और पट्टा बहियों से राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक स्थितियों पर विस्तृत प्रकाश पड़ता है।

बहियों का विषय विभाजन का कार्य वैज्ञानिक रुप से पूर्ण नही हो पाया है, फिर भी शोधार्थियों द्वारा प्रयुक्त तथा निजी या राज्य अभिलेखागार में रखी गई बहियों के वर्गीकरण के आधार पर बहियों को निम्नलिखित प्रकार से प्रस्तुत कर सकते हैं-

  • कोटा राज्य के रिकॉर्ड
  • बीकानेर राज्य के रिकॉर्ड
  • जयपुर राज्य के रिकॉर्ड
  • जोधपुर के दस्री रिकॉर्ड
  • अन्य

कोटा राज्य के रिकॉर्ड

यह रिकॉर्ड १७वीं शताब्दी से २०वीं शताब्दी तक की राजकीय गतिविधियों का विवरण प्रदान करती हैं। इनमें मेहमानी बही वि.सं. १८४१-४४, मिजलिस खर्च बही वि.सं. १७३०, मामलिक खर्च इत्यादि बहियां, कपड़ो की किस्म, उनके मूल्य, कोटा के दरवाजों के निर्माण तथा मरम्मत और महलों व बागों के रख-रखाव निर्माण का हिसाब बतलाती है। इसके अतिरिक्त कोटा के शासकों का मुगल और मराठाओं से राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक सम्बन्धों का विस्तृत वर्णन भी उपलब्ध होता है।

बीकानेर राज्य के रिकॉर्ड

बीकानेर राज्य के रिकॉर्ड “पटाका बहियां’ वि.सं. १६२४ से १८०० तक राज्य के राज का हिसाब बतलाती है। इसीक्रम में आर्थिक विवरण प्रस्तुत करने वाली बहियों में पट्टा बही, रोकड़ बही, ॠण बही, हॉसल बही, ब्याज बही, कमठाणा बही आदि मुख्य है। इन बहियों से राज्य की आर्थिक स्थिति के साथ-साथ मुद्रा-मूल्याकंन, कृषि की दशा, प्रजा की दशा, मजदूरी, बाजार मूल्य, जातियों का सामाजिक और आर्थिक स्तर आदि कई विषयों का ज्ञान होता है। ग्राम व्यवस्था, किसानों की स्थिति, आवागमन के साधन और किराया आदि पर प्रकाश डालने वाली बहियों में कागदो की बही, जैतपुर बही, व राजपूत जागीरदारी, शासकों तथा मुस्लिम शासकों से विवाह आदि सामाजिक संस्कारों का उल्लेख करने वाली “ब्याव बही’ सामाजिक इतिहास के संदर्भ में अत्यन्त उपयोगी है।

जयपुर राज्य के रिकॉर्ड

जयपुर रिकॉर्ड में सीहा हजूर नामक स्रोत एक प्रकार से दैनिक हिसाब के आमद-खर्च को बतलाने वाली डायरियां हैं। यह खुले पत्रों में लिखी वार्षिक बण्डलों के रुप में बंधी हुई है। वि.सं. १७३५ से वि.सं. २००६ तक इनमें राजसी वस्राभूषणों, त्यौहार पवाç आदि का वर्णन है, इसी प्रकार दैनिक कार्यों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने वाली बहियों में ताजी रिकॉर्ड बहियां मुख्य हैं। यह  ढूंढाड़ी लिपि में लिखी हुई है। १८वीं और १९वीं शताब्दी के इतिहास को प्रस्तुत करने में सहायक है। पोतदार रोजनामचा, पीढा रोजनामचा जयपुर शहर के नियोजन तथा लोगबाग पर प्रकाश डालते हैं। ३२ खण्डों में वेष्टित राजलोक का विस्तृत आर्थिक रिकॉर्ड “दस्तूर कोमवार’ नाम से जाना जाता है। यह रिकॉर्ड तोजी रिकॉर्ड पर आधारित है। इनसे जातियों, व्यवसायों, विशिष्ट सुविधाओं आदि का ज्ञान भी प्राप्त होता है।

“दस्तूर उल-अमल’ से भी सामाजिक स्थितियों पर प्रकाश पड़ता है, वहीं उनसे भू-राज के मूल्य लाग-बाग की जातिगत वसूली आदि कृषि और पंचायत व्यवस्थाओं की जानकारी भी मिलती है।

“कपड़द्वारा’ पत्रों से भी सामाजिक धार्मिक परिस्थितियों के साथ राजनीतिक-आर्थिक व्यवहारों का दिग्दर्शन होता है। न्याय सभा अथवा सिहा अदालती पत्रों से जयपुर राज्य की न्याय व्यवस्था, अपराध, दण्ड तथा सुधारों के प्रांत राज्य की न्याय व्यवस्था की कार्यवाहियों का अध्ययन किया जा सकता है। निरख बाजार रिकॉर्ड (१७६०-१८१५ ई.) कस्बों, परगनों का बाजार भाव मालूम करने के लिए उपयोगी है।

जोधपुर के दस्री रिकॉर्ड

जोधपुर के दस्री रिकॉर्ड में ओहदा बही में अधिकारियों के अधिकार वृद्धि करने अथवा कम करने, शिकायतों, ईनाम आदि आज्ञाओं का उल्लेख है।

“पट्टा बही’ में राजस्थान के सभी राजपूत राज्यों के अनुरुप भूमि पट्टों की मूल प्रतियां विद्यमान हैं। इन बहियों से राजपूत शासकों की धार्मिक वृत्ति, सहिष्णु नीति और उदार व्यवहार का पता चलता है।

“हथ बही’ में शासकों के निजी संस्मरणों, गुप्त मंत्रणाओं और धार्मिक कार्यों का उल्लेख है। इन बहियों में सामाजिक-आर्थिक इतिहास के साथ-साथ सांस्कृतिक इतिहास की सामग्री संग्रहित है, उदाहरणार्थ वि.सं. १८३७ की एक बही में गंगा शुरु द्वारा राज परिवार हेतु गंगाजल की कावड़ पहुंचाने तथा उसके लाने की मजदूरी के रुप में ३० रुपया व्यय किया गया था इत्यादि।

“हकीकत बही’ से राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक विषयों का दैनिक तिथिवार वर्णन प्राप्त होता है। राज्य के परगने तथा उनकी स्थिति, अधिकारियों की प्रचलित पदवी, उद्बोधन, पुलिस, डाक और यातायात प्रबन्ध, आयात-निर्यात होने वाली वस्तुएं इत्यादि कई विषय इसमें समाहित हैं। स्वतन्त्रता का योगदान, जागीरदारी और शासकों की मनोवृत्तियां अंग्रेजों से संबंध आदि पर भी यह बहियां तिथि युक्त ब्यौरे प्रदान करती हैं।

अन्य

इन बहियों के अतिरिक्त हकीकत खतूणियां खजाना बही, खजाना चौपन्या, पट्टा खतूणी, और जालौर रिकॉर्ड की छेरा की बही मारवाड़ के इतिहास हेतु अच्छे अभिलेख साधन है।

अंग्रेजी भाषा में लिखी अथवा छपी हुई सामग्री राष्ट्रीय अभिलेखागार, नई दिल्ली में संकलित है। यह सामग्री तीन भागों में विभाजित है –

  • रिकॉर्डस् आॅफ द फॉरेन एण्ड पोलीटिकल डिपार्टमेंट
  • राजपूताना एजेंसी रिकॉर्डस्
  • विविध श्रृंखलाबद्ध रिकॉर्डस्

रिकॉर्डस् आफ द फॉरेन एण्ड पोलीटिकल डिपार्टमेंट

इन रिकॉर्डस् में दफ्तरी पत्र व्यवहार है। गवर्नर जनरल तथा उसकी कोंसिल के सदस्यों द्वारा प्रस्तावित प्रस्ताव, स्मरण पत्र, मांग पत्र आदि का लेखा और गवर्नर जनरल, गवर्नर जनरल के एजेन्टों तथा विभिन्न रजवाड़ों में नियुक्त पोलीटिकल ऐजेन्टों के प्रशासनिक, अर्द्ध प्रशासनिक इत्यादि पारस्परिक पत्र-व्यवहारों का संकलन इस श्रेणी में रखा हुआ है।

राजपूताना एजेंसी रिकॉर्डस्

रिकॉर्ड में राजा-महाराजाओं और पोलीटिकल एजेन्टों के मध्य की प्रशासनिक कार्यवाहियों, पोलिटिकल एजेन्टों का ए.जी.जी. और गवर्नर जनरल के मध्य राजपूताना सम्बन्धी सामाजिक, आर्थिक सुधारों के प्रति की गई कार्यवाहियों राजनीतिक परामशों के साथ-साथ एजेन्टों की डायरियां आदि विषयों की संकलित किया हुआ है।

यह रिकॉर्डस जहां राजस्थान के १८वीं से २०वीं शताब्दी तक राजनीतिक स्थिति का ब्यौरा प्रदान करते हैं, वहीं दरबारी आचरण, जागीरदारों के पारस्परिक मतभेद, सामाजिक कुरीतियों एवं आर्थिक व्यवस्थाओं को भी प्रस्तुत करते हैं।

विविध श्रृंखलाबद्ध रिकॉर्डस्

रिकॉर्ड विविध विषयों के वे संकलित पत्र हैं जो यात्रा विवरण, याददाश्तों पुरस्कार सम्मान आदि का हवाला देते हैं।

 राजस्थान के इतिहास के स्रोत  राजस्थानी ख्यात-साहित्य

राजस्थानी भाषा में लिखा हुआ साहित्य राजस्थान के इतिहास का महत्वपूर्ण स्रोत है। प्राचीन राजस्थानी साहित्य का प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रुप में इतिहास से घनिष्ठ सम्बन्ध रहा है। यह साहित्य संस्कृत प्राकृत, पाली, अपभ्रंश, डिंगल, पींगल भाषा अथवा राजस्थान की विभिन्न बोलियों में लिखा हुआ मिलता है। साहित्य, जैन साहित्य, संत साहित्य, लोक साहित्य और फुटकर-साहित्य एवं ब्राह्मण साहित्य, चारण साहित्य में लेखकीय प्रवृतियों को वर्गीकृत किया है।

किन्तु इतिहास की दृष्टि से डॉ. रघुवीर सिंह ने साहित्य को चार भागों में वर्गीकृत किया है –

  • ख्यात, वंशावलियों तथा इसी प्रकार का साहित्य।
  • गद्य में लिखी हुई जीवन कथायें; जो ऐतिहासिक महत्व की हैं।
  • संस्कृत, डिंगल तथा पींगल रचित पद्यात्मक ग्रन्था जिनमें किसी शासक विशेष या वंश विशेष का विवरण है।
  • अन्य रचनाएं जो अप्रत्यक्ष राजस्थान के इतिहास, सभ्यता एवं संस्कृति पर प्रकाश डालती है।

राजस्थानी भाषा में लिखा हुआ यह साहित्य पुनश्च: वंशावलियों, पीढियावली, पट्टावली, विगत वचनिका, दरावत, गतश्त्यात आदि के अंतर्गत विभाजित है।

वंशावलियों में विभिन्न वंशों के व्यक्तियों की सूचियां प्राप्त होती है। इन सूचियों में वंश के आदि पुरुष तक पीढ़ीवार वर्णन भी प्राप्त होता है। वंशावलियां और पीढियावलियां अधिकतर “भाटीं’ के द्वारा लिखी हुई हैं। प्रद्वेस राजवंश तथा सामन्त परिवार इस (भाट) जाति के व्यक्ति का यजमान होता था।

बड़वा-भाटी का राज्य में सम्मान होता था एवं शासकों द्वारा इन्हें “राव’ आदि के विरुद्ध दिये हुए थे। मेवाड़ तथा सारवाड़ के संदर्भ में इसके उदाहरण प्राप्त होते हैं कि कतिपय जैन यति भी राज परिवारों की वंशावलियां रखते थे। खरतरगच्छ के जैन यति मारवाड़ राजवंश के कुलगुरु माने जाते थे। राजवंश की वंशावली तैयार करना, शासकों तथा उनके परिवारों के सदस्यों के कार्यकलापों का विस्तृत विवरण रखना आदि उनका मुख्य कार्य रहा था। इस प्रकार वंशावलियां और पिढियावलियां शासकों, सामन्तों, महारानियों, राजकुमारों, मंत्रियों नायकों आदि के साथ-साथ कतिपय मुख्य घटनाओं का विवरण भी उल्लेखित करती है। फलत: इतिहास के व्यक्तिक्रम, घटनाक्रम और संदर्भक्रम के स्रोत की दृष्टि से वंशावलियां महत्वपूर्ण साधन बन जाती है। अमरसात्य वंशावली, सूर्यवंश वंशावली, राणाजी री वंशावली सिसोद वंशावली तवारीख वंशावली इत्यादि इसके उदाहरण हैं। इसमें कोई संदेह नहीं है कि वंशावलियां १६वीं शताब्दी पूर्व से लिखी जाती रही थीं। परंतु उनमें अधिकांश वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। यह भी आवश्यक नहीं है कि किसी विसिष्ठ व्यक्ति द्वारा एक ही समय में वंशाविलियां लिखी गई थी, अपितु यह लेखन परम्परा भी पैतृक रही थी। इसीलिए अधिकांश वंशावलियों में किसी लेखक का नाम नहीं मिलता है।

वंशावलियों, पीढियावलियों और पट्टावलियों के पश्चात् विगत,  हकीगत वचनिका आदि वर्णनात्मक और सूचनात्मक गद्दाविद्या है। इसमें इतिहास की दृष्टि से शासक, शासकीय परिवार, राज्य के प्रमुख व्यक्ति अथवा उनके राजनीतिक, सामाजिक व्यक्तित्व का विवरण मिलता है। आर्थिक दृष्टि से विगत में उपलब्ध आंकड़े आदि तत्कालीन आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों और व्यवहारों को समझने एवं इतिहास-प्रभाव हेतु अत्यन्त उपयोगी सिद्ध हुए हैं।

विगत हकीगत के वश्चात् बात या वात साहित्य भी राजस्थान में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है। बात का शाब्दिक अर्थ है वर्णन अथवा कथा। इस साहित्य की रचना मुख्य रुप से १७वीं और १८वीं शताब्दी में हुई थी। बातें दो प्रकार की होती हैं :-

(1) एस तो ख्लाल में अंग के रुप में अर्थात् जिनका निर्माण इतिहास की दृष्टि से ऐतिहासिक पुरुष या ऐतिहासिक तथ्य के आधार पर साहित्य सृजन के उद्देश्य से किया गया;

(2) दूसरी प्रकार की बातें ऐतिहासिक तथ्यों से आधार पर कथा कहने की कला के विकाश के पूर में मिलती है।

इस प्रकार बातों में ऐतिहासिक तथ्य गौण और कल्पना तत्व अधिक होता है फिर भी “”अंग विच्छेद” पद्धति के अनुरुप इन बातों से जहां तथ्य-निरुपण करने में सहायता मिलती रही है, वहीं सामाजिक और संस्कृतिक दशा को जानने हेतु भी यह प्राथमिक स्रोत के रुप में अपना स्थान रखती है।

राजस्थान  में उपलब्ध बातों की इतनी प्रचुरता है कि सभी का नाम उल्लेखित करना संभव नहीं है, किन्तु कतिपय महत्वपूर्ण बातों में जगत पंवार की बात, कुवरंसी सांखला की बात, रावलराणाजी री बात आदि के अतिरिक्त कुछ ख्यातें भी बातों का संकलन हैं, ऐसी ख्यातों में नैणसी और बांकीदास की ख्यात मुख्य है।

राजस्थान की गद्य विद्या का अत्यन्त प्रौढ़ और उत्कृष्ट स्वरुप ख्यात साहित्य में विद्यमान है, वहीं इतिहास की दृष्टि से ख्यात में अन्य साहित्य-विद्याओं से अधिक विश्वसनीय, तथ्यात्मक और ऐतिहासिकता का आधार है। इतिहास में इनकी स्रोत भूमिका को देखते हुए कहा जा सकता है कि ख्यात साहित्य इतिहास शोध की अमूल्य निधी है। ख्यात मूलत: संस्कृत भाषा का शब्द है और शब्दार्थ की दृष्टि से इसका आशय ख्यातियुक्त, प्रख्यात, विख्यात, कीर्ति आदि है। किंतु राजस्थान में इसका संदर्भ इतिहास के पर्याय के रुप में प्रयुक्त होता रहा है। इसमें प्रत्येक वंश या विशिष्टि वंश के किसी पुरुष या पुरुषों के कार्यों और उपलब्धियों का हाल मिलता है। ख्यातों का नामांकरण वंश, राज्य या लेखक केनाम से किया जाता रहा है, जैसे – राठौड़ां री ख्यात, मारवाड़ राज्य री ख्यात, शाहपुरा राज्य री ख्यात, नैणसी री ख्यात आदि।

ख्यात – साहित्य का सृजन मुगल बादशाह अकबर के काल से प्रारंभ माना जाता है। अकबर के शासन काल में जब अबुलफजल द्वारा अकबरनामा के लेखन हेतु सामग्री एकत्रित की गई तब विभिन्न राजपूताना की रियासतों को उनके राज्य, वंश तथा ऐतिहासिक विवरण भेजने के लिए बादशाह द्वारा आदेश दिया गया था। इसी संदर्भ में प्रत्येक राज्यों में ख्यातें लिखी गई। इस प्रकार १६वीं शताब्दी के उतरार्द्ध से ख्यात लेखन परम्परा आरम्भ हुई, किन्तु इनमें १५वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध से ही ऐतिहासिक वर्णन लिखा हुआ मिलता है। कतिपय ख्यातें उनके मूल रुप में प्राप्त होती है, परन्तु अधिकांश लिपिकारों द्वारा बाद में प्रतिलिपि मिलती हैं। इन प्रतिलिपि, ख्यातों में प्रतिलिपिकारों ने अपने-अपने ढंग से प्रसंग जोड़कर भी लिख दिये हैं। अत: विभिन्न प्रतिलिपियों के तुलनात्मक अध्ययन और सम्पादित किये पाठों की ख्यात ही इतिहास शोध हेतु उपयोगी कही जा सकती है।

ख्यात लेखन का आधार प्राचीन बहियां समकालीन ऐतिहासिक विवरण, बड़वा-भाटों की वंशावलियां, श्रुति परम्परा से चली आ रही है।

ख्यातों में समाज की राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक, नैतिक और सांस्कृतिक प्रवृष्टियों का विस्तृत दिग्दर्शन ही नहीं होता, अपितु तत्कालीनी और पूर्वकालीक मानव जीवन के आदर्श और सम्पूर्ण व्यवहार का इतिहास-बोध भी प्राप्त होता है। इस प्रकार तात्कालिक भाषा साहित्य, संगीत, कला, विज्ञान आदि की प्रगति पर भी ख्यात साहित्य में लिखा हुआ प्राप्त होता है।

ख्यातों में ऐतिहासिक दृष्टि से कतिपय दोष भी है। ख्यातें राज्याश्रय में लिखी जाने के कारण अतिश्योक्ति पूर्ण विवरण की सम्भावनाओं से वंचित नहीं है। इनमें अपने-अपने राज्य अथवा आश्रयदाता के वंश का बढ़-चढ़कर महत्व बतलाने की चेष्टायें हमें दिखलाई देती हैं।

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